विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य है और पीएमओ में राज्यमंत्री रह चुके हैं)
कोई आदमी हड़बड़ी में काम करे और गड़बड़ी हो जाए, तो बड़े-बुज़ुर्ग, समझदार लोग उसे ऐसा नहीं करने की नसीहत देते हैं। अक्सर देखा गया है कि गड़बड़ी होने के बाद एक बार की नसीहत ज़्यादातर लोग गांठ बांध लेते हैं। लेकिन कोई सरकार अगर बार-बार हड़बड़ी करे और बार-बार गड़बड़ी हो, तो आप क्या कहेंगे? आपके ज़ेहन में शायद यही सवाल आएगा कि ऐसी सरकार आख़िर सबक़ क्यों नहीं लेती?
राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक हो चुका है, इस बात से किसी को भी इनकार नहीं होगा। राजधानी में रहने वाले और रोज़मर्रा के कामकाज या नौकरी के लिए दिल्ली में आने वाले लोग यहां सांस के साथ ज़हर ख़ींचने को मजबूर हैं। मैं भी दिल्ली में रहता हूं, दिल्ली को प्यार करता हूं, लिहाज़ा नहीं चाहता कि यहां की हवा में घुला ज़हर ख़त्म नहीं हो। लेकिन सवाल यह है कि सम-विषम नंबर की गाड़ियों को अलग-अलग दिन चलाने का फ़ार्मूला वायु प्रदूषण कम करने के लिए वाक़ई काम आएगा या नहीं? दिक्कत यह है कि इस क़िस्म के फ़ैसले लेते वक़्त दिल्ली के आम लोगों, नौकरशाही, पुलिस और विपक्ष से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जाता। आनन-फ़ानन में फ़ैसला लिया जाता है और लोगों पर लाद दिया जाता है। अगर समस्या का यही समाधान है, तो इससे भी मुझे ऐतराज़ नहीं है। लेकिन असल बात यह है कि इस तरह के अव्यावहारिक फ़ैसलों से समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं निकलने वाला है। उल्टे बहुत से स्तरों पर समस्या खड़ी हो जाएगी।
दिल्ली सरकार ने अचानक मीडिया को बुलाकर ऐलान कर दिया। सोचा होगा नए आइडिया को लोग हाथों-हाथ लेंगे और ख़ूब वाहवाही मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने उल्टे सवाल उठाने शुरू कर दिए। फ़ैसला था कि दिनों के हिसाब से सम-विषम नंबरों की गाड़ियां दिल्ली की सड़कों पर दौड़ेंगी। लेकिन तीन-चार दिन बाद अचानक पता नहीं क्या हुआ कि सरकार के मंत्री ने फिर से मीडिया को बुलाया और कहा कि दिनों के नहीं, बल्कि तारीख़ों के हिसाब से सम और विषम नंबर की गाड़ियां सड़कों पर उतरेंगी। लोगों ने सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लगा दी, तो सरकार को आख़िरकार कहना पड़ा कि फ़ॉर्मूला लागू कर जल्द ही इसकी समीक्षा की जाएगी। फिर नए सिरे से इसमें सुधार किए जाएंगे। अब अगर सरकार फ़ॉर्मूले का ऐलान करने से पहले ही जनता की राय ले लेती, तो क्या बिगड़ जाता? जो फ़ज़ीहत हुई, वह तो कम से कम बच जाती। सरकार की साख़ बची रहती। दिलचस्प बात तो यह है कि हड़बड़ी में गड़बड़ी ऐसे लोगों की सरकार कर रही है, जो बाक़ायदा आंदोलन चलाकर आम लोगों की सरकार की वक़ालत करते रहे हैं।
यह सही है कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण कम करने के लिए ठोस क़दम उठाए जाने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन ऐसा करने के लिए समग्र रणनीति बनानी होगी। एक-दो प्रशासनिक फ़ैसलों से कुछ नहीं होने वाला। दिल्ली में अभी 90 लाख वाहन हैं। रोज़ डेढ़ हज़ार नई गाड़ियां सड़कों पर उतर रही हैं। इसके अलावा दूसरे राज्यों से दिल्ली में आने वाले वाहनों के साथ ही ऐसे वाहनों की भी बड़ी संख्या है, जो दिल्ली से होकर गुज़रते हैं। एनजीटी के ग्रीन टैक्स लगाने के बाद हालांकि दिल्ली से होकर गुज़रने वाले बड़े माल ढुलाई डीज़ल वाहनों की संख्या में कमी आई है, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है।
प्रसंगवश एक चर्चा और करता चलूं कि बड़े डीज़ल वाहनों की संख्या में आई कमी से टैक्स जमा करने वाले ख़ुश नहीं हैं। टैक्स जमा करने का काम ठेके पर निजी कंपनियों के ज़िम्मे है। उनकी दलील है कि इससे उन्हें घाटा होने लगा है, लिहाज़ा उन्होंने अदालत का दरवाज़ा भी शायद खटखटा दिया है। मैं कहना चाहता हूं कि इस क़िस्म की स्वार्थी मानसिकता बदलने की बेहद ज़रूरत है। चाहे किसी कंपनी की मानसिकता हो या आम आदमी की, इसमें बदलाव बेहद ज़रूरी है। जब बात पूरे समाज के अस्तित्व की हो, तो हममें कुछ क़ुर्बानियां देने का जज़्बा तो होना ही चाहिए। जब बात इतने बड़े ख़तरे की हो, तो कंपनियों को मुनाफ़ा कम होने की मानसिकता से बाहर निकल कर सोचने की ज़रूरत है। इसी तरह दिल्ली के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि वायु प्रदूषण कम करने के लिए वे भी सकारात्मक सोच रखें। आख़िर उनकी और उनके परिवार के लोगों की ज़िंदगी का सवाल है।
कोई भी समस्या हो, उससे निपटने के लिए दूरगामी क़दम उठाने ही पड़ते हैं। दिल्ली की सरकारों ने वायु प्रदूषण की इस बड़ी समस्या को लंबे समय से नज़रअंदाज़ किया, तो दिल्ली वालों ने सरकारों पर दबाव भी नहीं बनाया। हालात आज किस क़दर बिग़ड़ गए हैं, सभी जान और समझ रहे हैं। अब भी वक़्त है कि हम समग्र सोच के ज़रिए ऐसे क़दम उठाएं, ऐसा बुनियादी ढांचा तैयार करें कि समस्या और विकराल रूप न धारण कर ले। सरकारी फ़ैसले थोपने की बजाए लोगों की मानसिकता बदलने के लिए सकारात्मक पहल करने की ज़रूरत है। दिल्ली में बड़ी गाड़ी में लोग इसलिए निकलते हैं कि उन्हें अपनी शान-ओ-शौक़त दिखाने की ललक है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में ऐसा नहीं है। क्योंकि वहां लोकल ट्रेन और सार्वजनिक सड़क परिवहन का बुनियादी ढांचा इतना मज़बूत है कि अमीर लोग भी उसका ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करने में मुंबई के पैसे वालों के मन में कोई हीन भावना नहीं आती। लेकिन दिल्ली की बात अलग है। मैं अपनी दिल्ली के लोगों से अपील करना चाहता हूं कि प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए वे किसी सरकारी फ़ैसले का इंतज़ार नहीं करें। ख़ुद भी सोचें और समाज की मदद करें।
दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए केवल वाहन ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। कूड़ा-कर्कट जलाने से भी हवा ज़हरीली होती है। पड़ोसी राज्यों के किसान खेतों की कटाई के बाद पड़े कचरे में आग लगा देते हैं, इसका भी ख़ासा असर दिल्ली की हवा पर पड़ता है। बड़ी अदालतों के सख़्त निर्देशों के बावजूद पड़ोसी राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी इस पर रोक नहीं लगवा पाई है। साफ़ है कि किसानों में इस बारे में जागरूकता पैदा नहीं की जा सकी है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर वैध और अवैध निर्माण भी वायु प्रदूषण की बड़ी वजह है। दिल्ली के अलावा एनसीआर के आस-पास के इलाक़ों में बड़े पैमाने पर आवासीय निर्माण कार्य हो रहे हैं। उनकी वजह से धूल के कण दिल्ली की हवा की निर्मलता ख़त्म कर रहे हैं। दिल्ली को चाहिए कि वह पड़ोसी राज्यों से इस बारे में बात कर कारगर नीति बनवाए। लोगों को चाहिए कि वे इस बारे में सरकार पर दबाव बनाने का काम करें। हवा में प्रदूषण दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में चल रही औद्योगिक गतिविधियों की वजह से भी हो रहा है। वहां भी नई तकनीक के इस्तेमाल के लिए सरकार को दबाव डालना चाहिए। वायु प्रदूषण की एक छोटी वजह धूम्रपान भी है। इसके लिए लोगों को जागरूक करने का काम केंद्र सरकार भी कर रही है। इस कोशिश को और तेज़ करने की ज़रूरत है।
सम-विषम वाहन अलग-अलग दिन चलाने के फ़ैसले पर अमल से पहले ही बहुत सारे लोगों ने बहुत सारे सवाल खड़े किए हैं। सेल्फ़ ड्राइविंग वाली नौकरीपेशा महिलाओं के लिए इससे मुसीबत खड़ी हो सकती है। ख़ासतौर पर उन महिलाओं के लिए जो देर शाम या रात में दफ़्तरों से घरों के लिए निकल पाती हैं। घर से अस्पताल और अस्पताल के घर जाने वाले मरीज़ों के लिए भी यह फ़ैसला ख़ासी मुसीबत खड़ी कर सकता है। ड्यूटी पर तैनात ट्रैफ़िक पुलिस वाले को समझाने में ही काफ़ी वक़्त ज़ाया हो जाएगा। कुछ बीमारियां तो ऐसी होती हैं, जिनमें पांच मिनट की देरी भी प्राण-घातक साबित हो सकती है। इमरजेंसी में प्रसव पीड़ा होने पर क्या कोई तारीख़ के हिसाब से गाड़ी की तलाश करेगा या तुरंत अपनी गाड़ी से अस्पताल लिए रवाना हो जाएगा? बच्चों को कॉम्पिटीशन देने दिल्ली के किसी सेंटर पर पहुंचना हो, तो क्या होगा? सबसे बड़ी बात यह है कि इस क़िस्म के सवालों का अगर कोई सीधा-सीधा उत्तर निकल भी आए, तो दिल्ली सरकार इसे इतने बड़े पैमाने पर लागू कैसे करा पाएगी? एनफ़ोर्स टैक्नीक क्या होगी?
सम-विषम गाड़ियों का फ़ार्मूला भोले-भाले, सीधे-साधे बहुत से लोगों से अपराध भी करवा रहा है। एक अख़बार के मुताबिक दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के आउटर सर्किल में इन दिनों नकली नंबर प्लेट बनाने का धंधा ज़ोरों से चल रहा है। मक़सद साफ़ है कि सम नंबर की गाड़ी के मालिक विषम नंबर की नंबर प्लेट बनवा रहे हैं और विषम गाड़ियों के मालिक सम नंबर की प्लेट। अख़बार का दावा है कि नंबर प्लेट बनाने वाले गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन के काग़ज़ भी नहीं देख रहे हैं।
उन्हें अपनी जेबें भरने का नया ज़रिया मिल गया है। दिल्ली के बहुत से लोग इस तरह आपराधिक कृत्य भी करने से नहीं चूक रहे। सड़कों पर पहले से ही इतना जाम रहता है कि ट्रैफ़िक पुलिस अगर हर गाड़ी की नंबर प्लेट की जांच करने लगे, तो फिर क्या हाल होगा? पुलिस के लिए एक सिरदर्दी और बढ़ जाएगी। पुलिस को चाहिए कि नंबर प्लेट बनाने वाली दुकानों पर तुरंत ध्यान दे, दुकान वालों और लोगों को अपराधी बनने से रोके।
मैं दिल्ली से प्यार करता हूं। इसलिए चाहता हूं कि दिल्ली सेहतमंद रहे। दिल्ली की आब-ओ-हवा सेहतमंद होगी तो दिल्ली के दिल वाले बाशिंदों के चेहरे पर हमेशा मुसकान रहेगी। बीमार होने से केवल सेहत पर ही असर नहीं पड़ता, बल्कि पूरे परिवार का अर्थशास्त्र गड़बड़ा जाता है। घर के दूसरे सदस्य भी मानसिक तौर पर परेशान रहते हैं और सीमित आमदनी वालों का अच्छा-ख़ासा बजट इलाज पर ख़र्च होने लगता है। इस वजह से परिवारों की दूसरी ज़रूरतों में कटौती करनी पड़ती है। रिश्तों के आपसी संबंध ख़राब होने लगते हैं। लिहाज़ा सही यही है कि दिल्ली साफ़-सुथरी रहे। हर तरह के प्रदूषण से मुक्त रहे। लेकिन इसके लिए हड़बड़ी में फ़ैसले लेकर गड़बड़ी करने से बचना होगा और बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार करना होगा। मेरे लिए बड़ा सवाल यह है कि क्या दिल्ली सरकार अब कोई सबक़ लेगी या नहीं?