विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
25 जनवरी को देश में राष्ट्रीय मतदाता दिवस होता है। देश में आजकल लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने को लेकर बहस चल रही है। यह बहस इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि अब चुनाव क़रीब-क़रीब हर साल होने लगे हैं। आज़ादी के बाद 1967 तक चार बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए थे। वर्ष 1967 में हुए चौथे चुनाव में कांग्रेस का तिलिस्म टूट गया और कई राज्यों में देश के नागरिकों ने उसे पूरी ताक़त नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि कुछ सरकारें वक़्त से पहले ही ज़मीन पर आ गईं। बात उस समय और ज़्यादा बिगड़ गई, जब इंदिरा गांधी ने एक साल पहले 1971 में ही केंद्र में मध्यावधि चुनाव करा दिए। अब ऐसे हालात बन गए हैं कि देश में कहीं न कहीं चुनाव हर साल होने लगे हैं। इससे बड़े पैमाने पर देश का ख़ज़ाना ख़ाली होता है और केंद्र या राज्यों में सरकारें बनाने वाली पार्टियां या गठबंधन विकास पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं रख पाते हैं। श्रम शक्ति की बर्बादी, हज़ारों करोड़ की सरकारी रक़म की बर्बादी, काले धन का जमकर इस्तेमाल होने के साथ-साथ सद्भाव के भारतीय सामाजिक ताने-बाने पर इसका बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।
पिछले दिनों एक स्थाई संसदीय समिति ने इस बारे में विस्तार से अपनी रिपोर्ट संसद में रखी है, जिसमें कई सुझाव दिए गए हैं। समिति ने माना है कि चुनाव हर साल होने की वजह से देश को बहुत नुकसान हो रहा है। समिति के मुताबिक़ हर पांच साल में दो बार चुनाव होने का रास्ता निकालना पड़ेगा। समिति का सुझाव है कि ऐसा करने के लिए राज्यों के दो समूह बूनाने चाहिए। एक समूह का चुनाव नवंबर, 2016 में कराया जाए और दूसरे समूह के राज्यों के चुनाव मई-जून, 2019 में लोकसभा चुनावों के साथ कराए जाएं। इससे कई राज्यों के कार्यकाल पर थोड़ा-बहुत असर पड़ सकता है, लेकिन ऐसा हो गया, तो देश का बड़ा फ़ायदा होगा। मैं भी इस सुझाव से सहमत हूं। चुनाव आयोग को इस बारे में गंभीरता से पहल कर सियासी सहमति बनाने के लिए आगे आना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि चुनाव सुधार को लेकर यह बहस नई है। मेरी पार्टी बीजेपी में भी इस बारे में मंथन चलता रहा है। देश के उप-राष्ट्रपति और राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे भैंरोसिंह शेखावत भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने के पक्षधर थे। मैं ख़ुद भी इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात कर अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुका हूं।
चुनाव सुधार की इस ज़रूरत के साथ-साथ और बहुत सी ख़ामियों पर भी विचार किया जाना चाहिए। सियासी व्यक्ति होने के नाते मैं रोज़ बहुत से लोगों से मिलता रहता हूं। रोज़ ही कई लोग वोटर लिस्ट को लेकर शिकायतें करते हैं।
मतदान के दौरान क़रीब-क़रीब हर बूथ से यह शिकायत आती है कि वोटर कार्ड होने के बावजूद कई लोगों के नाम वोटर लिस्ट में नहीं होते। यह छोटा नहीं, बड़ा मसला है। वोटर लिस्ट को लेकर दूसरी कई तरह की भी विसंगतियां हैं। मसलन, कुछ लोग मुझसे कहते हैं केंद्र के चुनाव में वोटर लिस्ट में उनका नाम था, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट से उनका नाम ग़ायब था। इसी तरह पंचायत चुनावों में तो वोटर लिस्ट में नाम था, लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों की वोटर लिस्ट में नाम नहीं था। मैं सोचता हूं कि चुनाव आयोग को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अब संचार क्रांति का दौर चल रहा है। बहुत सा डेटा नेट पर उपलब्ध है। पिछले साल अप्रैल तक देश भर में 82 करोड़ आधार कार्ड बन चुके थे। यह आंकड़ा देश की कुल आबादी का क़रीब 70 फीसदी है। अप्रैल से लेकर इस साल अब तक नौ महीने गुज़र चुके हैं। ज़ाहिर है कि आधार कार्ड के आंकड़े में काफ़ी इज़ाफ़ा हो चुका होगा। ऐसे में केंद्र, राज्य और ज़िलावार वोटर लिस्टों में संशोधन नहीं हो पाना हैरत की बात है। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जो 35 साल पहले गांव छोड़ चुके हैं, लेकिन उनके नाम आज भी गांव की वोटर लिस्ट में हैं। साथ ही आज जहां वे रह हैं, वहां की वोटर लिस्ट में भी उनके नाम हैं।
पता नहीं क्यों इस विसंगति को दूर करने की कोई ठोस कोशिश नहीं की जा रही है। मेरी चुनाव आयोग से पुरज़ोर अपील है कि वोटर लिस्ट जल्द से जल्द अपडेट की जाएं, जिससे लोकतंत्र की असली आत्मा को सुकून मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, बहुत से ताक़तवर और रसूखदार उम्मीदवार बिना जनाधार के ही जीतते रहेंगे और लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका लगता रहेगा। वैसे भी आज खंडित जनाधार का ज़माना है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र भाई मोदी की अगुवाई में बीजेपी को जितना जनाधार मिला, उससे लगता है कि स्थिर सरकारों का दौर एक बार फिर शुरू हो सकता है। यूपी और कुछ दूसरे राज्यों के चुनाव परिणामों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही संदेश देश के मतदाताओं ने दिया है। लेकिन फ़र्ज़ी वोटिंग तभी रोकी जा सकती है, जब मतदाता सूचियां अपडेट करने का कोई वैज्ञानिक सटीक तंत्र हम विकसित करें। जो कि आज के संचार क्रांति के ई-दौर में पूरी तरह संभव है। हां, इसके लिए चुनाव आयोग की इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
पिछले कुछ चुनावों से मतदान का प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन अब भी अगर हम वोटिंग का औसत 60-65 प्रतिशत मान लें, तो भी कहा जा सकता है कि ज़्यादातर सरकारें असल में अल्पमत की सरकारें। हैं। वजह साफ़ है। देश में 30-35 प्रतिशत लोग वोट डालने के लिए घरों से निकलते ही नहीं। अगर 60-65 फ़ीसदी वोटिंग में से ही जीत होती है, तो क्या इसे देश के कुल वोटरों का बहुमत माना जा सकता है? सवाल यह भी बड़ा है कि देश के 30-35 फ़ीसदी लोग वोट डालने के लिए घरों से निकलते क्यों नहीं हैं? वोटर लिस्टों की गड़बड़ी भी इसकी एक बड़ी वजह है।
पहले तो यह पता लगाना कि वोटर लिस्ट में नाम है या नहीं, फिर नाम शामिल कराना या कटवाना, यह सारी क़वायद अब भी थोड़ी जटिल है। लिहाज़ा बहुत से लोग इस झमेले में पड़ते ही नहीं और ज़ाहिर है कि वे वोटिंग करने भी नहीं निकलते। इस प्रक्रिया को आसान और भरोसेमंद बनाकर देश के बहुत से नागरिकों के मन से इस प्रवृत्ति को निकाला जा सकता है। जब वोटर लिस्टों में गड़बड़ियों का मसला हल नहीं हो पा रहा है, तब देश में अनिवार्य वोटिंग पर बहस बड़ी हास्यास्पद लगती है। चुनाव आयोग से दोबारा दरख़्वास्त है कि लोकतंत्र के मंदिरों तक पहुंचने वाले इस चोर दरवाज़े को बंद करने के लिए कृपया कोई तंत्र विकसित करे।
————————————————-