Vijay Goel

सोशल मीडिया के दौर में समाज

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं)

इन दिनों इन्टरनेट आधारित एक ख़तरनाक खेल ‘ब्लू व्हेल’ खासी चर्चा में है। यह खेल खेलने वाले बच्चों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। मैं जब भी ऐसी ख़बरें पढ़ता हूं, मन बहुत व्यथित होता है। मन में सवाल उठता है कि कोई खेल कैसे किसी बच्चे की ज़िंदगी ख़त्म करने का माध्यम बन सकता है? लेकिन डिजिटल दुनिया के खेल ‘ब्लू व्हेल’  के बारे में ऐसा ही है। इस खेल को एक कुंठित व्यक्ति ने डिज़ाइन किया है, जिसके चक्रव्यूह में फंसने वाले बच्चे तरह-तरह के टास्क करते हैं और आख़िरी टास्क होता है जान देने की बहादुरी दिखाने का। हमारे मन में खेल शब्द सुनते ही जोश और उमंग का संचार होता है। हमारे बचपन के खेल कितने निराले होते थे, यह बताने की ज़रूरत बड़ों को नहीं है। हां, आज के बच्चे उन बहुत सारे खेलों के बारे में नहीं जानते हैं, जो तन में स्फूर्ति तो भरते ही थे, साथ ही हमें बौद्धिक रूप से भी मज़बूत बनाते थे। समूहों में खेले जाने वाले खेल नेतृत्व की क्षमता भी बढ़ाते थे और सामुदायिक भावना भी मन में भरते थे। तब हम सोच भी नहीं सकते थे कि शतरंज, कैरम, लूडो या सांप-सीढ़ी जैसे कुछ खेलों को छोड़कर कोई खेल घर के कमरों में बैठकर भी खेला जा सकता है। लेकिन अब घरों से शतरंज और लूडो की बिसातें ही ग़ायब होती जा रही  हैं।

आज बहुत से खेल डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध हैं। कभी भी ख़ाली समय में या यात्रा करते वक़्त बहुत से लोग ये खेल खेलते हुए देखे जा सकते हैं। वे इनमें इतने तल्लीन होते हैं कि आसपास क्या हलचल हो रही है, इसका भी पता उन्हें नहीं चलता। दफ़्तर में खाली वक्त में लोग कंप्यूटर पर खेलों की आभासी दुनिया में खोए होते हैं। मैट्रो, बसों, टैक्सियों में सफ़र के दौरान लोग अपने- अपने स्मार्ट फ़ोनों पर झुके रहते हैं। आसपास भीड़भाड़ के बावजूद हम पूरी तरह तन्हा होते हैं। यही वजह है कि आदमी अपने इर्द-गिर्द को भी भूलकर ख़ुद में ही सिमटता जा रहा है। सामाजिक प्राणी आदमी समाज से कटता जा रहा है। लोगों के अंदर सकारात्मक संवेदनाएं ख़त्म होती जा रही हैं। कोई घायल सड़क पर तड़पता रहता है, आसपास भीड़ भी जुटती है, तो लोग केवल उसकी तस्वीरें या वीडियो बनाते रहते हैं, उसे अस्पताल लेकर जाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। बहुत कम लोग हैं, जो ज़रूरतमंदों की मदद के लिए तुरंत आगे आते हैं। फिलहाल तो इसी तथ्य से उम्मीद बरक़रार है। लोग कभी तो आभासी दुनिया से ऊबकर आसमान को जी भरकर देखेंगे।

वैज्ञानिक तरक़्की अच्छी बात है, पर क्या सामाजिक पतन की क़ीमत पर इसे लक्ष्य की ओर बढ़ने की सीढ़ी क़रार दिया जा सकता है? सोशल मीडिया के इस दौर में सामाजिक कड़ियां बुरी तरह बिखरने लग जाएं, तो चिंता की बात है। दो साल पहले अगस्त के आख़िरी दिन आधी रात को दिल्ली के एक बच्चे ने व्हाट्सअप पर अपनी तस्वीर के साथ संदेश लिखा कि ऐसी दुनिया में नहीं रहना, जहां पैसे की क़ीमत इंसान से ज़्यादा है। रात को वह पंखे से झूल गया। इसके कुछ दिन बाद ही खबर आई कि एक लड़की ने ख़ुदकुशी करने का सबसे नायाब तरीका ढूँढने के लिए करीब सौ वेबसाइट सर्च की। कुछ युवाओं ने ख़ुदकुशी के लाइव वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किए हैं। ऐसी ख़बरें चिंता बढ़ाती हैं। यह कैसा सोशल मीडिया है जो बहुत से ‘फ्रेंड्स’ होते हुए भी व्यक्ति को अकेला करके छोड़ देता है.

ऐसा नहीं है कि प्रौद्योगिकी का नकारात्मक इस्तेमाल ही हो रहा है। यह तर्क किसी भी स्तर पर नहीं दिया जा सकता है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से तो हम दुनिया के साथ क़दमताल ही नहीं कर पाएंगे, लेकिन इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग पूरी दुनिया में हो रहा है। आतंकवाद, तमाम तरह के आर्थिक घोटाले, जासूसी वगैरह में इंटरनेट का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। अकेले हमारे देश में 50 करोड़ से ज़्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। सौ करोड़ से ज़्यादा लोग मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि बचपन से ही लोगों को इसके सकारात्मक इस्तेमाल के बारे में जागरूक किया जाए। आज सरकारी कामकाज आधुनिक तौर-तरीक़ों से किए जाएं, इस ओर काफ़ी ध्यान दिया जा रहा है। निजी क्षेत्र भी सोशल मीडिया और इंटरनेट को तरज़ीह दे रहा है। शिक्षा, रोज़गार, उत्पादन सभी क्षेत्रों में संचार के साधनों की तरक़्क़ी बहुत कारगर साबित हो रही है। ऐसे में जिस गति से व्यक्तिगत और सामुदायिक ‘यूज़र्स’ की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है, उसी गति से कंटैंट मैनेजमेंट की ज़रूरत है। सोशल मीडिया को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने की भी ज़रूरत है। अभिभावकों के लिए भी रिफ्रेशर कोर्स कराने की व्यवस्था की जा सकती है। सरकारी और निजी क्षेत्र की संचार सुविधाएं देने वाली तमाम कंपनियों को इस बारे में सोचना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर हमारे दोस्तों की संख्या लाखों में होने के बावजूद हम रिश्तों की गर्माहट का गुनगुना ऐहसास भूलकर धीरे-धीरे अकेलेपन के सर्द अंधेरों में खो जाएं।

 

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My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.

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