विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
भारत में गंगा एक ऐसी नदी है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक लोगों की आस्था का केंद्र है, लेकिन इस नदी का पानी आज पीने लायक भी नहीं है। मैं सोचता हूं कि ऐसा कैसे हुआ कि देश के ज़्यादातर लोगों की आस्था जिस नदी पर है, उसकी दुर्दशा आख़िर उन्होंने ही क्यों कर दी? बहुत से लोग मानते हैं कि गंगा की इस हालत के लिए सरकारें ज़िम्मेदार हैं, लेकिन मेरा उनसे सवाल है कि अगर सरकारें ज़िम्मेदार हैं, तो उन्होंने उनका विरोध क्यों नहीं किया?
क्या हम नदियों, तालाबों, झीलों में पूजा-पाठ की सामग्री प्लास्टिक की थैलियों में बांधकर फेंकने की अपनी छोटी सी आदत बदल पाए हैं? मेरा साफ़ तौर पर मानना है कि बिना जन-भागीदारी के गंगा और दूसरी नदियों को गंदा होने से नहीं रोका जा सकता। अब केंद्र में मोदी सरकार ने भी जनता की मदद से गंगा को साफ़ करने की पहल की है, तो मैं इसका स्वागत करता हूं। 30 जनवरी को दिल्ली में गंगा किनारे वाले इलाक़ों के 1600 से ज़्यादा ग्राम प्रधानों और सरपंचों का सम्मेलन बुलाया गया। इसमें केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों ने शिरक़त की। सम्मेलन में सरकार ने माना कि गंगा में प्रदूषण के लिए ख़ासतौर पर बड़े-बड़े शहरों के सीवर और औद्योगिक कचरा ज़िम्मेदार है, लेकिन गंगा किनारे बसे गांवों का कचरा भी इसकी बड़ी वजह है। साफ़ है कि बिना जन-भागीदारी के यह प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो सकता। गंगा को पूरी तरह साफ़-सुथरी बनाने में क़रीब 50 हज़ार करोड़ रुपए का ख़र्च आने का अनुमान है। इसमें पांच साल लग सकते हैं, लेकिन प्रोजेक्ट के पूरी तरह सफल होने में 15 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि केवल पानी की सफ़ाई की ही बात नहीं है, बल्कि गंगा किनारे घाट बनाने, उनके सौंदर्यीकरण और पर्यटन और व्यापार के लिहाज़ से गंगा में यातायात बहाल करने का भी काम होना है। मोदी सरकार इसके लिए कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट के लिए 20 हज़ार करोड़ का बजट आवंटित किया गया है। इससे पहले तीस साल तक गंगा की सफ़ाई पर क़रीब चार हज़ार करोड़ रुपए ही ख़र्च किए गए थे। वह रक़म भी ज़्यादातर अफ़सरों और ठेकेदारों की जेब में ही चली गई, अगर तब गंगा की साफ़-सफ़ाई का बेसिक काम भी शुरू हुआ होता, तो अब मोदी सरकार के सामने इतनी दिक्कत नहीं होती। गंगा किनारे 118 शहर बसे हैं, जिनसे रोज़ क़रीब 364 करोड़ लीटर गंदगी और 764 उद्योगों से होने वाला प्रदूषण गंगा में मिलता है। यह बहुत बड़ी चुनौती है और बिना लोगों के जागरूक हुए इससे निपटा नहीं जा सकता। अब अच्छी बात यह कि मोदी सरकार के सात मंत्रालयों ने इस गंभीर चुनौती को फ़तह करने के लिए हाथ मिला लिए हैं। ये मंत्रालय हैं- मानव संसाधन विकास, पोत परिवहन, ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता, पर्यटन, आयुष और युवा और खेल मामले। पहले योजना थी कि गंगा की सफ़ाई पर ख़र्च का 75 फ़ीसदी केंद्र और 25 फ़ीसदी बोझ राज्य उठाएं, लेकिन मोदी सरकार ने दरियादिली दिखाते हुए सारे ख़र्च का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया है। हालांकि मैं फिर ज़ोर देकर कह रहा हूं कि बिना देश के आम लोगों की भागीदारी के इस दिशा में हमें पूरी कामयाबी नहीं मिल सकती। हमारी आस्था की नदी गंगा की स्थिति दुनिया के दूसरे देशों की बड़ी नदियों के मुकाबले अलग है। मॉनसून में गंगा का पाट औसतन करीब 15 फीट तक बढ़ जाता है, जबकि सर्दियों में यह बहुत कम हो जाता है। माना जाता है कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं, लिहाज़ा रोज़ लाखों लोग इसमें डुबकी लगाते हैं। करोड़ों लोग महाकुंभों, अर्धकुंभों और दूसरे मौक़ों पर गंगा में डुबकी लगाने के लिए कई-कई दिनों तक गंगा किनारे जुटते हैं। ज़ाहिर है कि सैकड़ों टन पूजा सामग्री गंगा में फेंकी जाती है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अंतिम संस्कार भी गंगा के किनारे किए जाते हैं। साथ ही देश के दूसरे हिस्सों से लोग अस्थि विसर्जन के लिए भी बड़ी संख्या में गंगा पहुंचते हैं। अगर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर औद्योगिक कचरे की समस्या का हल निकाल लें और सख़्ती से इस पर अमल कर भी लें, तब भी रोज़ करोड़ों लोगों के संपर्क में आने वाली गंगा प्रदूषित ही रहेगी, जब तक कि लोगों के मन में इसकी साफ़-सफ़ाई को लेकर पुख़्ता भावनाएं नहीं पनपती।
यह भी कड़ुवा सच है कि आज के आर्थिक दौर में केवल आस्था के नाम पर ही आप लोगों को किसी सामाजिक मुहिम से बहुत दिनों तक जोड़े नहीं रख सकते। ज़्यादातर लोगों में गंगा को लेकर आस्था आज भी घटी नहीं है। हां, पहले की तरह अब ऐसा नहीं होता कि सच-झूठ का फ़ैसला गंगाजल हाथ में लेकर होता हो। ऐसे में अगर गंगा को साफ़ रखना है, तो इसे लोगों के कर्तव्यों के साथ-साथ रोज़गार से भी जोड़ना होगा। गंगा किनारे नदी से जुड़े रोज़गार के मौक़े पैदा करने होंगे। केंद्र सरकार ने यह पहल भी शुरू कर दी है। लोगों को जैविक खेती के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें सेहत के प्रति भी जागरूक करना होगा। इस तरह ‘नमामि गंगे’ केवल गंगा के पानी की साफ़-सफ़ाई तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह एक समग्र आंदोलन होना चाहिए। अभी तक ज़्यादातर तो गंगा पंडे-पुजारियों के पेट भरने का ही ज़रिया है, लेकिन अब मोदी सरकार चाहती है कि श्रद्धालुओं को विकास के कामों के लिए दान देने के लिए प्रेरित किया जाए। विकास कार्यों में दानदाताओं के नाम के शिलापट्ट लगाए जाएं। मॉडल धोबीघाट बनाने के साथ-साथ आधुनिक शवदाह गृह विकसित किए जाएं। लोगों को बताया जाए कि वे अपनों का अंतिम संस्कार आधुनिक पद्धति से करें, तो उनके रिश्तेदारों को सौ फ़ीसदी मोक्ष मिलेगा। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस मुहिम में आम लोगों की भागीदारी के साथ देश के नामचीन लोग भी जुड़ें।
हाल ही में मैंने किसी अख़बार में पढ़ा कि कश्मीर घाटी की डल झील की सफ़ाई एक स्वयंसेवी संस्था ने बिना किसी सरकारी मदद के की। यह अपनी तरह की अनोखी पहल थी। लोगों से अपील की गई कि वे डल झील की सफ़ाई में मदद करें, बदले में उन्हें कपड़े दिए जाएंगे। बड़ी संख्या में लोग सफ़ाई में जुट गए। कपड़े देने का प्रलोभन नहीं दिया जाता, तब भी लोग डल की सफ़ाई करते ही। इसे ‘वस्त्र सम्मान’ का नाम दिया गया। झीलों की नगरी राजस्थान के उदयपुर शहर के लोगों ने पिछले दिनों श्रमदान कर झीलों की सफ़ाई की। उन्होंने बाक़ायदा ‘झील हितैषी नागरिक मंच’ बना रखा है। मंच की शिकायत है कि राजस्थान हाईकोर्ट की सख़्ती के बावजूद प्रशासन इस तरफ़ कड़ाई नहीं कर रहा है। अभी हाल ही में राजस्थान हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने राज्य सरकार को एक मार्च, 2016 तक राजस्थान झील विकास प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है। 26 जनवरी को केरल में कोझिकोड़ के ज़िलाधिकारी ने फेसबुक पर लोगों से अपील की कि शहर की बड़ी झील की अगर वे सफ़ाई करेंगे, तो उन्हें बिरयानी खिलाई जाएगी। अपील रंग लाई और लोगों ने झील को निर्मल बना दिया। यह बेहद गंभीर बात है कि इंसानों की करतूत का असर पूरी क़ुदरत पर पड़ रहा है। मैं चाहता हूं कि न केवल गंगा, बल्कि देश की सभी नदियों की पवित्रता लौटाने की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने अपना काम पूरी ईमानदारी से शुरू कर दिया है। अब बारी आम आदमी की है, हमारी और आप की है। जो नदियां हमें जीवन देती हैं, उन्हें मिटाने का काम हम न करें। सरकार के कंधे से कंधा मिलाकर काम करें।
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