Vijay Goel

हमने बचपन को मार दिया

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
सुबह का सुहाना मंज़र अगर दिल से महसूस कर लिया जाए, तो पूरे दिन ताज़गी रहती है। लिहाज़ा मैं रोज़ टहलने के लिए पार्क में जाता हूं। लेकिन गर्मियों की छुट्टियों के बावजूद अब पार्क में बच्चे धमाचौकड़ी करते नज़र नहीं आते। इस बारे में गंभीरता से सोचा, तो गहरी चिंता हुई। सवाल उठा क्या हमने बच्चों से बचपन मुझे याद है कि मैं एक दिन एक पार्क में बैट-बॉल लेकर बच्चों के साथ गया। खेल शुरू किया ही था कि हमें रोक दिया गया कि हरियाली ख़राब हो जाएगी। हमें टोकने वाले बुज़ुर्ग शख़्स थे। अजीब बात है कि अब बुज़ुर्ग इतने मानसिक तनाव में रहते कि उन्हें पार्क में खेलते हुए बच्चे भी अच्छे नहीं लगते। हरियाली का अपना महत्व है, लेकिन क्या इसके नाम पर बच्चों से पार्क में खेलने का सहज अधिकार हम छीन लेंगे ?
 
हमारी उम्र के सब लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि बचपन में हम अपनी गलियों में ही खेल लेते थे। जहां कहीं कच्ची गलियां होतीं, गुच्ची बनाकर गुल्ली-डंडा खेलने लगते। जब गुल्ली कैच होती, तो दांव दे रही टीम को क्रिकेट से भी ज़्यादा आनंद आता था और खेल रही टीम की मायूसी देखते ही बनती थी। और रंगबिरंगे कंचों की तो बात ही निराली थी। गली में दस छोटे-बड़े पत्थर एक-दूसरे पर रखकर पिट्ठू खेला जाता था। लड़कियां अक्सर इक्कड़-दुक्कड़ या स्टापू खेलती थीं। पता नहीं अब ये खेल कहां चले गए। अब गलियों में वाहनों का राज है। लगता है शहरों में इंसान नहीं, गाड़ियां ही रहती हैं। गलियों में वाहन फ़र्राटे भरते हैं, लिहाज़ा चोट लगने का डर होता है और अगर बच्चे जोख़िम उठाकर खेलें भी, तो किसी गाड़ी को बॉल लग गई, तो बाप रे बाप, लोग आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
 
दूसरी बात यह कि तरक़्की के इस दौर में अब कंप्यूटर, इंटरनेट, सोशल मीडिया का बोलबाला है। पढ़ाई के भारी-भरकम बोझ तले दबे बच्चे अब घरों में ही सिमट कर रह गए हैं। इंटरनेट की दुनिया में ओझल बच्चों की आंखें कितनी कमज़ोर होती जा रही हैं, मां-बाप को बहुत देर बाद पता चलता है, लेकिन उनकी भी मजबूरी है। बहुत से बड़े मैदान सरकारों ने आमदनी के लिए नीलाम कर दिए। वहां ऊंची-ऊंची इमारतें बन गईं। एक नई बात और हुई है। पहले सीनियर सैंकेंडरी स्कूलों के लिए चार एकड़ जगह दी जाती थी। दो एकड़ बिल्डिंग के लिए और दो एकड़ मैदान के लिए। अब स्कूलों के लिए महज़ दो एकड़ ज़मीन दी जाती है। लिहाज़ा खेल के बड़े मैदान नहीं बचे। जिन स्कूलों में मैदान हैं, वे दोपहर दो बजे के बाद खाली हो जाते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या स्कूलों की छुट्टी हो जाने के बाद सरकार को मैदान आस-पास के बच्चों के लिए नहीं खोल देने चाहिए? पब्लिक स्कूलों को छोड़ दें, तो क्या सरकारी स्कूलों में इस तरह का इंतज़ाम नहीं हो सकता ?
 
एक और पहलू भी है, जिसकी वजह से बचपन खोता जा रहा है। आज माता-पिता छोटे-छोटे बच्चों से बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाले रहते हैं। मेरे एक दोस्त ने अपने बच्चे को स्कूल में दाख़िला दिलाते ही एक घंटे की स्वीमिंग क्लास, एक घंटे की कंप्यूटर क्लास और एक घंटे की एरोबिक्स क्लास ज्वाइन करा दी। पता नहीं लोग बच्चों से चाहते क्या हैं? अगर नर्सरी क्लास में किसी अच्छे स्कूल में बच्चे का दाख़िला नहीं होता, तो बच्चे को ही कोसा जाता है। हालत यह है कि कोई चीज़ कपड़ों पर गिर जाए, तो बच्चे के साथ ऐसा बर्ताव होता है कि उसने बड़ा अपराध कर दिया।
 
खेलते हुए बच्चा कपड़े गंदे कर लाए, तो भयंकर डांट पड़ती है। अब बच्चा मिट्टी में नहीं खेलेगा, तो देश की मिट्टी, देश के संस्कार से जुड़ेगा कैसे? बच्चों को हर पल नसीहत दी जाती है पेड़ पर मत चढ़ना, गिर जाओगे, पतंग मत उड़ाना, छत से गिर जाओगे, अंधेरे में मत जाओ, भूत आ जाएगा। पता नहीं, हम बचपन को पहले राजा-महाराजाओं के लड़के 14-15 साल की उम्र में घोड़े पर सवार होकर लड़ाई के लिए निकल जाते थे। अब 15 साल के बच्चों को मां पल्लू में छुपाए रखती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि चक्रव्यूह भेदने पहुंचे अभिमन्यु की उम्र क्या रही होगी? लेकिन मौजूदा दौर में हम 24 घंटे बच्चों की ख़ामियां निकालते रहते हैं। हम उन्हें महंगे खिलौने तो देते हैं, वक़्त बिल्कुल नहीं देते और सोचते हैं कि हमने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली है।
 
आज घरों में ही बच्चों का बचपन कहीं खो गया है। घरों में उनके अपने कमरे हैं, जो मां-बाप सजाकर रखते हैं और दोस्तों को दिखाकर गर्व महसूस करते हैं। वे नहीं जानते कि घर में बच्चों को अपनापन महूसस कराना कितना ज़रूरी है। बच्चों को सजे-धजे कमरों की ज़रूरत नहीं, मां-बाप के लाड़-दुलार की ज़रूरत ज्यादा है। अपने-अपने अकेलेपन के कमरों में क़ैद बच्चों की सेहत ख़राब हो रही है। वे डिप्रैशन, ब्लड प्रैशर, डाइबिटीज़ जैसी गंभीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। पहले एक दंपती के औसतन तीन-चार बच्चे होते थे। वे आपस में खेलकर, लड़-झगड़कर अपनी भड़ास निकाल लेते थे। अब परिवारों में एक या दो बच्चे ही होते हैं। उस पर भी मां-बाप की उम्मीदों का बोझ। मां-बाप डे-वन से ही बच्चों का करियर बनाने में लग जाते हैं। इससे बचपन खो रहा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तीन-चार बच्चे आज भी वक़्त की ज़रूरत है, लेकिन बचपन के ग़ायब होते जाने की बहुत बड़ी समस्या से निजात पाने के लिए हमें कुछ तो पूरी गंभीरता से सोचना होगा ।
 
मेरा सुझाव है कि ऐसे पार्क हों, जिनमें सिर्फ़ बच्चे खेलें। अगर पूरा पार्क बच्चों के लिए नहीं हो, तो आधी जगह रिज़र्व की जाए। इसी तरह स्कूल टाइम के बाद मैदान इलाक़े के आम बच्चों के लिए खोले जाएं। मुझे याद है कि दिल्ली के सप्रू हाउस में बच्चों के लिए फ़िल्मों का इंतज़ाम होता था। अब ऐसा नहीं के बराबर है। अब वक़्त की मांग है कि बच्चों के लिए स्पेशल क्लब खोले जाएं। पुराने देसी खेलों को दोबारा बढ़ावा दिया जाए। साथ ही माता-पिता की काउंसिलिंग के लिए केंद्र बनें, जहां उन्हें समझाया जाए कि बच्चों से बड़ी अपेक्षाएं क्यों नहीं की जानी बचपन को बचाना है, तो इस तरफ़ पूरी शिद्दत और ईमानदारी से सोचना होगा।
 
हम कहते तो रहते हैं कि बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं, लेकिन देश का भविष्य मज़बूत हाथों में रहे, इसके लिए करते कुछ नहीं हैं। जो करते हैं, वह आधा-अधूरा होता है। जब हमारे आज के बच्चे दिमाग़ी तौर पर मज़बूत नहीं होंगे, तो ज़रा सोचिए कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कड़ी प्रतियोगिता वाले इस दौर में हमारी क्या स्थिति होगी ?

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