Vijay Goel

पुरस्कार लौटने की राजनीति क्यों

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
पिछले दिनों एक लेखक ने दादरी घटना के बाद साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया, मैं कुछ समझ नहीं पाया कि इसका दादरी घटना से क्या सम्बन्ध है । धीरे-धीरे कुछ और साहित्यकारों ने भी लौटाया । ये खुद लौटा रहे हैं या एक-दूसरे को तैयार करते हैं ताकि मोदी सरकार के खिलाफ एक माहौल बने, क्योंकि दादरी में तो दो मरे, जिसकी जांच चल रही है, पर इससे पहले 1984 के दंगों में, भागलपुर के दंगों में, भोपाल गैस काण्ड में, मुजफ्फरनगर (यूपी) के दंगों में आपातकाल लगने पर, मुरादाबाद के दंगों में ये लोग चुप बैठे थे और अब सरकार बदलने पर ही यकायक इनकी आत्मा जाग गई, यह देखकर मुझे आश्चर्य और दुःख दोनों था ।
 
एक साहित्यकार ही ने मुझे कहा कि ये लोग एक सरकार के शासन में अवार्ड ले लेते हैं और फिर उसी की वफादारी निभाने के लिए दूसरी सरकार जब आती है, तब ये उन्ही अवार्डों को वापस करने का दिखावा करते हैं । मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ। मुझे मौका मिला तो मैं इन लौटाने वालों से चर्चा करना चाहूँगा ।
 
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की भेड़चाल चल रही है। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार दलील दे रहे हैं कि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है यानी सहनशीलता कम होती जा रही है, लिहाज़ा वे इस तरफ़ ध्यान देने के लिए ऐसा  कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसा कुछ नहीं है, बल्कि केंद्र में एनडीए सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिशों की वजह से सामाजिक समरसता और सौहार्द में इज़ाफ़ा ही हुआ है। जो साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर अख़बारों और टीवी न्यूज़ में सुर्ख़ियां बटोर रहे हैं, उल्टे वे ही यह बात साबित कर रहे हैं कि उनमें असहिष्णुता बढ़ रही है। वे साबित कर रहे हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सुशासन सुहा नहीं रहा है। वे साबित कर रहे हैं कि वे एनडीए विरोधी सियासी
पार्टियों के प्रवक्ता हैं। या फिर नई परिस्थितियों में जो सुविधाएँ इनको पिछली सरकार में मिल रही थीं, उनके छिनने की आशंकाओं से आशंकित हैं। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों का कहना है कि तर्कवादी प्रो. एम एम कलबुर्गी और दादरी में गोमांस को लेकर कथित हत्याकांड की अनदेखी नहीं की जा सकती।
 
मेरा मानना है कि कोई भी पुरस्कार लौटाना सिरे से ग़लत है। फिर अगर आप दो हत्याओं के विरोध में ऐसा करते हैं, तो कर्नाटक में धारवाड़ निवासी कन्नड़ लेखक प्रो. कलबुर्गी की हत्या 30 अगस्त को की गई थी। विरोध करना था, तो तभी पुरस्कार लौटा दिए होते। साफ़ है कि आप सोच-समझ कर सियासत कर रहे हैं। अगर दादरी कांड के बाद आपकी आत्मा ढंग से जाग गई, तो हत्याकांड के बाद आपको उसी दादरी में बना सद्भावपूर्ण माहौल क्यों नज़र नहीं आया ? आपको यह क्यों नहीं नज़र आया कि वहां के हिंदू समाज ने पीड़ित परिवार की पूरी मदद की। न केवल पीड़ित परिवार, बल्कि दूसरे मुस्लिम परिवारों को भी पूरी सुरक्षा का भरोसा दिलाया। सरकार विरोधी लोगों ने वहां पहल कर उसे साम्प्रदायिकता का रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी फिर कानून व्यवस्था तो राज्य सरकार का काम है। अभी यह साबित होना बाक़ी है कि गोवध का आरोप लगाकर किसने हत्या की साज़िश रची। आप लेखक हैं, पुलिस और सीबीआई जैसी जांच एजेंसी नहीं हैं। अपराधियों की धरपकड़ चल रही है। गांव के हिंदुओं के बर्ताव ने साबित कर दिया है कि वह महज़ कुछ सिरफिरों का काम था, न कि गांव के एक समाज की साझा साज़िश।
 
सवाल पुरस्कार लौटाने की टाइमिंग को लेकर भी है। प्रो. कलबुर्गी की हत्या या दादरी में की गई हत्या से पहले क्या कभी इस तरह की वारदात नहीं हुईं ? पुरस्कार लौटाने का सिलसिला देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल ने शुरू किया। उन्हें वर्ष 1986 में अंग्रेज़ी साहित्य के लिए अकादमी सम्मान दिया गया था। नयनतारा का आरोप है कि सरकार, देश की सांस्कृतिक विविधता की हिफ़ाज़त नहीं कर पाई है। अगर उनका यह बयान सियासी नहीं है और वे वाक़ई ऐसा मानती हैं, तब तो उन्हें यह अकादमी पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए था। जिस साल उन्हें पुरस्कार मिला, उससे दो साल पहले यानी 1984 के सिख विरोधी दंगे वे क्यों भूल गईं ? नयनतारा जी अगर संवेदनशील हैं, तो क्या सिखों के क़त्ल-ए-आम को वे जायज़ मानती हैं?  उन्हें इस पर चुप्पी तोड़नी चाहिए। समाज की असहिष्णुता 1984 के दंगों या भागलपुर दंगों या और भी इस तरह की वारदात के वक़्त या उनके बाद पुरस्कार वापस करने वालों को क्यों नज़र नहीं आई ?
 
अभी तक केवल कुछ साहित्यकारों ने ही साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की असंवेदनशील पहल की है। हर साल 24 भाषाओं में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाते हैं। अनुवाद के लिए भी अवॉर्ड मिलता है। अकादमी की स्थापना 1954 में की गई थी। ऐसे में ज़ाहिर है कि पुरस्कृत साहित्यकारों की संख्या एक हज़ार से ज्यादा है। तो क्या पुरस्कार नहीं लौटाने वाले बाक़ी साहित्यकार संवेदनशील नहीं हैं?  पुरस्कार लौटाने वाले लेखक क्या अपनी बिरादरी को ही ग़लत संदेश नहीं दे रहे हैं?
 
कुछ का मानना है कि पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार कोई राजनीति कर रहे हैं, जिसका उल्टा असर अकादमी पर पड़ेगा। साहित्य अकादमी स्वायत्त संस्था है। चंद नकारात्मक सोच वाले साहित्यकार अगर ग़लत माहौल बनाएंगे, तो सरकार के लिए तो यह अपने लोगों को अकादमी में दाख़िल कराने का अच्छा मौक़ा होगा। इस तरह के विवाद खड़े कर आप अंग्रेज़ी समेत 24 भारतीय भाषाओं के साहित्य का भला नहीं कर रहे हैं। सियासत नेताओं का काम है, उन्हें ही करने दीजिए। समाज को विषाक्त बनाने की इस तरह की कोशिशों का मैं पुरज़ोर विरोध करता हूं।
 
समाज में अगर असहिष्णुता बढ़ रही है, तो आप साहित्य की रचना कर लोगों को जागरूक बनाने का काम करिए। नकारात्मक सोच वाली सियासी पार्टियों की तरह समाज को बांटने और देश के सहिष्णु सामाजिक ताने-बाने के साथ खिलवाड़ का काम मत कीजिए।
 
दूसरी बात यह है कि पुरस्कार तो आपने लौटा दिया, वह प्रतिष्ठा कैसे वापस करेंगे, जो पुरस्कार दिए जाने के बाद आपको हासिल हुई थी ? वह आर्थिक लाभ कैसे वापस करेंगे, जो पुरस्कार की वजह से आपको मिला था ?  साहित्य अकादमी अवॉर्ड की समाज में प्रतिष्ठा है। पुरस्कार आपको पहचान दिलाते हैं, उनका निरादर कैसे किया जा सकता है ?  क्या पुरस्कार के बाद बनी अपनी पहचान भी आप वापस कर सकते हैं ? ऐसा नहीं कर सकते, बल्कि कहना चाहिए कि ऐसा हो ही नहीं सकता, तो फिर ख़ांमख़ां पुरस्कार को मज़ाक मत बनाइए। अगर आपको सियासत करनी है या किन्हीं सियासी पार्टियों का समर्थन करना है, तो उनमें शामिल क्यों नहीं हो जाते ?
 
किसी भी लिहाज़ से साहित्य अकादमी का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।
यह ग़लत है। साहित्य के लिए भी और समाज के लिए भी। ऐसा करना तब तो बहुत ही ग़लत है, जब आप देश को पूरी तरह समर्पित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर बेबुनियाद आरोप लगाकर पुरस्कार लौटा रहे हों। पिछले साल मई में सरकार बनी थी यानी अभी कुल जमा क़रीब डेढ़ साल भी नहीं हुआ है। देश के सभी संवेदनशील लोग जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री सबका साथ-सबका विकास की भावना से 24 घंटे काम करते हैं। देश के विकास और ग़रीबों के लिए उन्होंने जो योजनाएं लागू की हैं, उनके नतीजे अब आने शुरू होंगे। सबने देखा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने किस तरह इस डेढ़ साल में दुनिया भर में भारत की छवि को चमकाया है। अगर अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन और जर्मनी जैसे दुनिया के ताक़तवर देश उन्हें चमत्कारी नेता मान रहे हैं, तो क्या वे देश और उनके नागरिक हमारे देश के किसी वजह से इन भटके हुए लेखकों से कम बुद्धिमान हैं? माफ़ कीजिएगा, ऐसा नहीं है। देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी है। आप विरोध कीजिए, इनकार कीजिए, लेकिन पुरस्कार लौटाने की राजनीति ठीक नहीं। पुरस्कार लौटाना है, तो फिर लेना क्यों ? ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार से आप पुरस्कार लेने को आप अपना गौरव समझें, अपनी पीठ थपथपाएं और जब दूसरी सरकार आए, तो उसी पुरस्कार को विरोध का हथियार बनाकर लौटा दें।
 
साहित्य अकादमी सरकार के नियंत्रण में नहीं है। वह देश में साहित्य के विकास के लिए बनाई गई है। अकादमी देश के नागरिकों की धरोहर है। उसका गलत इस्तेमाल करना,  देश के नागरिकों की भावनाओं का अपमान करना है।  
 
पुरस्कारों का अगर इस तरह तिरस्कार होगा, तो सम्मान देने वाले हज़ार बार सोचेंगे। इसे इस स्तर का मज़ाक मत बनाइए कि अकादमियां अवॉर्ड देना ही बंद कर दें। पुरस्कार लौटाने से क्या होगा? ख़ुद के व्यक्तित्व पर सवालिया निशान मत लगने दीजिए। पुरस्कार लौटाकर अपना सम्मान कम मत कीजिए। पता नहीं कब आपकी आत्मा जाग जाती है और कब सो जाती है? मुझ जैसा सियासी नेता अगर कुछ लेखकों के इस काम से आहत हुआ है, तो ज़रा सोचिए कि लाखों साहित्य प्रेमियों के दिल पर क्या गुज़रती होगी?

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