Vijay Goel

रावण का पुतला दहन-महज़ एक रस्म

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
मैं रामलीलाओं से बहुत प्रभावित हूँ, वो ही कहानी, वो ही मंचन फिर भी हर वर्ष बार-बार देखने से मन नहीं भरता। दशहरे के दिन हर साल रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। जब से मैंने होश संभाला है, तब से यह देखता आ रहा हूं। बचपन में घर से छोटी-सी दरी लेकर रामलीला देखने जाते थे। अगर ज़मीन पर बिछी लाल-नीली वाली दरी पर जगह नहीं मिलती, तो अपनी दरी ज़िंदाबाद। उन दिनों की तस्वीर आज भी ज़ेहन में कौंधती रहती है। कितना जोश हममें रामलीला देखने को लेकर होता था।
 
सच्चाई की जीत का त्यौहार हम पूरे दिल से देखते, मूंगफलियां खाते, देर रात घर आते और अगले दिन दोस्तों से बतियाते। हमें बचपन में सिखाया गया था कि रावण बुराई का प्रतीक है, इसलिए उसका पुतला जलाया जाता है। राम अच्छाई के प्रतीक हैं, इसलिए वे रावण को जलाते हैं। संदेश यह था कि बुराई कितनी भी ताक़तवर हो, आख़िर में हारती ही है। लेकिन इस साल दशहरे पर सोशल मीडिया पर छाया एक मैसेज़ पढ़कर मैं सोच में पड़ गया। मैसेज़ कुछ इस तरह था:
“मैंने महसूस किया है,
उस जलते हुए रावण का दुःख
जो सामने खड़ी भीड़ से
बार-बार पूछ रहा था,
तुम में से कोई राम है क्या ?”
 
बात बिल्कुल सटीक है। हम बुराई को तो ख़त्म करने की परंपरा निभाते आ रहे हैं, लेकिन असल जिंदगी में हममें से कितने राम के थोड़े-बहुत भी संस्कार चाहते हैं। हममें से कितने लोग अपने बच्चों को सच्चाई वाले संस्कार दे रहे हैं ? जब मैं पिछली ज़िंदगी में झांकता हूं, तो देखता हूं कि बहुत सारी चीज़ें बिल्कुल बदल गई हैं। न केवल उनका रूप-रंग बदल गया है, बल्कि उनके मायने और संदेश भी बदल गए हैं। अभी रामलीलाओं का दौर ख़त्म हुआ है। मुझे भी कई रामलीलाओं में जाने का मौक़ा मिला और मैंने देखा कि उनका स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। बचपन और जवानी की दहलीज़ पर आने के बहुत दिन बाद तक मुझे रावण केवल बुराई का ही प्रतीक लगता था, लेकिन अब देखता हूं कि हम लोग ख़ुद ही इतने बुरे हो गए हैं कि घिनौने से घिनौना अपराध करते हुए हमारे हाथ नहीं कांपते। रोज़ाना लड़कियों और छोटी-छोटी बच्चियों को बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा है। समाज में रिश्वत का बोलबाला है। ऐसे में साफ़ लगता है कि हर साल दशहरे पर रावण को जलाना अब महज़ ऐसी परंपरा भर रह गया है, जिससे कोई संदेश, कोई संस्कार अब हम लोग लेते नहीं हैं।
 
मेरे बचपन में रामलीलाएं कितनी सादगी से होती थीं, लेकिन अब एक-एक रामलीला पर लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च किए जा रहे हैं। रामलीला कमेटियों में ख़र्च बढ़ाने को लेकर कॉम्पिटीशन होने लगे हैं। दिक्कत यह है कि यह सारा ख़र्च महज़ भव्यता बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। न कि रामलीला का संदेश नई पीढ़ी तक पहुंचाने के मक़सद से। वही लीला है, वही संस्कृत है, तो फिर आज के बच्चे रामलीला के संदेश कैसे ग्रहण करेंगे ? जीवन मूल्यों के ख़त्म होते जाने के इस दौर में क्या रामलीलाएं नई पीढ़ियों को संस्कार देने का ज़रिया नहीं बन सकतीं ?
 
लेकिन नई पीढ़ी की चिंता किसी रामलीला कमेटी को नहीं है। वे तो केवल ये जतन करने में लगी रहती हैं कि बड़े-बडे नेता, अभिनेता, धन्ना सेठ उनके यहां आएं।
 
मैं अक्सर रामलीलाओं में जाता हूं, तो बच्चों को एक कहानी सुनाता हूं। कहानी आपने भी सुनी होगी कि एक स्कूल में शिक्षा अधिकारी मुआयने पर आए, तो उन्होंने बच्चों से सवाल किया कि शिव जी का धनुष किसने तोड़ा, सवाल सुनकर बच्चों में सन्नाटा पसर गया। आगे की लाइन में बैठा एक बच्चा सिर खुजला कर बोला कि सर सच-सच कह रहा हूं, मैंने नहीं तोड़ा। दूसरा बच्चा बोल पड़ा कि सर मैं तो कल स्कूल आया ही नहीं था, पता नहीं धनुष किसने तोड़ा ? तीसरा बोला कि सर मैं तो वॉशरूम गया था, मुझे नहीं पता किसने तोड़ दिया धनुष ?  अफ़सर ने टीचर से पूछा कि मास्टर साहेब बच्चे कैसे जवाब दे रहे हैं, तो मास्टर बोले कि साहब आप ख़ांमख़ां परेशान हो रहे हैं। शरारती बच्चे हैं, किसी ने तोड़ दिया होगा ।
 
पहले तो यह एक चुटकुला लगता था, लेकिन अब लगता है कि यह हक़ीक़त है। सवाल यह है कि आज की रामलीला देखकर क्या बच्चों को समझ में आ रहा है कि उन्हें क्या सिखाने की कोशिश की जा रही है ? पिछले कुछ वर्षों में बगैर परीक्षा दिए बच्चों को पास करने की प्रणाली के कारण बच्चों ने सीखना छोड़ दिया इसलिए अब शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने का अभियान चलाया जा रहा है।
 
अगर सीधे बच्चों से बातचीत कर यह समझने की कोशिश करेंगे, तो आप यक़ीनन चौंक जाएंगे। मैं कई जगहों पर रामलीलाओं के मंच पर बच्चों को बुलाकर सवाल करता हूं कि राम के चारों भाइयों के नाम बताओ… बताओ कि रावण के भाइयों के नाम क्या हैं ? सूर्पनखा कौन थी ? बच्चे उल्टे-सीधे जवाब देते हैं और रामलीला का आयोजन करने वाले और देखने आए दिल्ली वासी हंसते हैं, ठहाके लगाते हैं। बच्चों को अब ठीक से हिंदी आती नहीं । संस्कृत के श्लोकों वाली रामलीला कितनी समझते होंगे पता नहीं ।
 
बच्चों के भोले-भाले जवाबों पर हंसी आना लाज़िमी है, लेकिन यह गंभीर मसला है, माता-पिता को इसे समझना होगा और बच्चों को समझाना होगा कि रामलीला के असली माइने क्या हैं। केवल दशहरे के मौक़े पर ही नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में घर पर उन्हें बताना होगा कि रामलीला का संदेश क्या है ? उन्हें बताना होगा कि रामलीला अच्छाई पर बुराई की जीत का संदेश क्यों देती है ? उन्हें बताना होगा कि रामलीला हमें दैनिक सामाजिक व्यवहार में सिखाती है कि बच्चों को माता-पिता के आदेश मानने चाहिए, जैसे राम ने माना और 14 साल तक जंगल में रहने चले गए। आज कोई अपने बच्चों को वनवास नहीं दे रहा, लेकिन संदेश तो यही है कि माता-पिता की बात माननी चाहिए। रामलीला के ज़रिए बच्चों को यह सिखाना होगा कि पति का धर्म क्या होता है… पत्नी का धर्म क्या होता है.. भाई और मित्र का क्या धर्म है। पर यह माता-पिता तो तब सिखायेंगे जब खुद पालन कर रहे होंगे । अपने बूढ़े माता-पिता की जब वो देखभाल नहीं कर रहे तो अपने बच्चों से श्रवण कुमार या राम बनने की आशा कैसे करेंगे ।
 
मैं नरेन्द्र कोहली जी की राम कथा पर आधारित पुस्तक “अभ्युदय” से बहुत प्रभावित हुआ। अक्सर रामलीलाओं में दर्शकों से अनुरोध करता हूँ कि वे पुस्तक जरुर पढ़ें, क्योंकि उसका आधार वैज्ञानिक हैं । आज किसी से पूछो अहिल्या बाई पत्थर से जीवित कैसे हो गई। बड़े-बड़े जवाब देंगें की राम जी ने पत्थर को छुआ तो अहिल्या बाई जीवित हो गई । जबकि तथ्य यह है की समाज के बहिष्कार के कारण वो बेचारी पाषण तुल्य हो गई । राम जी ने उसकी दुःख भरी गाथा जान उसे अपनाया तो समाज ने भी अपना लिया ।
 
कोई भी आश्चर्य करेगा की राम ने बाली को छुपकर क्यों मारा, पर कोहली इसके भी  तर्क देते हैं। विश्वामित्र मुनि का राम लक्ष्मण बालकों को ताड़का वध के लिए ले जाना केवल ताड़का का वध करवाना न होकर, बालकों को दशरथ के राज्य के वनों के  हालात दिखाना था कि  कैसे उन पर राक्षसों का कब्ज़ा होता जा रहा है और कैसे वे आम नागरिक एवं ऋषि-मुनियों को परेशान करते हैं, ताकि जब राम राजा बनें तो उन्हें वस्तुस्थिति का पता रहे।
 
आज के कॉरपोरेट कल्चर में बच्चे हनुमान के चरित्र से काफ़ी कुछ सीख सकते हैं। हनुमान सफलतम संगठक थे। उन्होंने अपने मालिक के हित साधने के लिए सब कुछ किया। वे वक़्त के पाबंद थे। चतुर थे। तुरंत फ़ैसले करते थे। हर तरह के हालात से निपटने में माहिर थे। लेकिन आज यह सब कुछ नहीं सिखाया जा रहा है। आजकल तो केवल चमक-दमक पर ज़ोर है। आज की रामलीलाएं भव्य हैं। लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च कर तकनीक का जमकर इस्तेमाल कर रही हैं। पहले शहरों में एक प्रमुख लीला हुआ करती थी, लेकिन अब एक की दो, दो की तीन होते-होते हर मुहल्ले की अपनी रामलीला होने लगी है, क्योंकि रामलीला कमेटी में अपने-अपने अहम् को लेकर झगड़े होते हैं और फिर एक की दो रामलीला हो जाती है, परिणाम ये होता है कि दर्शक भी बंट जाते हैं ।
 
जब रामलीला वाले ही एकता का संदेश देने में नाकाम हो गए हों, तो वे समाज को क्या संदेश देंगे, सोचने वाली बात है। अब तो रावण के साथ सेल्फ़ी लेने का ज़माना है। बाज़ार में रावण के दस सिरों के मुखौटे बिक रहे हैं। लोग उन्हें अपने बच्चों की जिद पर ख़रीद रहे हैं यानी अब रावण के दस सिर लोगों के ड्रॉइंग रूम का हिस्सा होने लगे हैं, तब मुझे बड़ी चिंता होती है।
 
सोचने वाली बात यह है कि अब मौजूदा दौर में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने से क्या होगा ? अब रामलीला संदेश और संस्कार नहीं, बल्कि मनोरंजन के लिए होने लगी है। आज़ादी के बाद भारतीय समाज राम के आदर्शों पर चलने का प्रयत्न करने लगा था, तब तो रामलीला का मतलब था। अब हम साठ साल से ज़्यादा समय तक भटके हुए नेतृत्व की वजह से चलते-चलते जहां पहुंच गए हैं, वहां अपनी भलाई के लिए हमें तुरंत सोचना शुरू करना पड़ेगा। दशहरे जैसे त्यौहार का स्वरूप बदलना पड़ेगा। समय के साथ बदलाव ही सामाजिक विकास की सीढ़ी तैयार करते हैं। मुझे बड़ा अच्छा लगता है कि कुछ जगहों पर दशहरे के दिन आज के दौर की बुराइयों के पुतले फूंके गए। कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़, भ्रष्टाचार के खिलाफ पुतले जलाए गए। ऐसे ही हम दूसरी बुराइयों को भी ले सकते हैं। हर साल गांव, गली-मुहल्ले और शहरों के स्तर पर हम तीन बुराइयों की थीम पर पुतले बनाएं, उन्हें समारोह पूर्वक जलाएं, तो इस पर्व में नया जोश आ सकता है। नई पीढ़ी के लिए नया दशहरा सार्थक होगा।

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