
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
कांग्रेस के शासन में लोग भ्रष्टाचार और महंगाई से इतने त्रस्त और ग्रस्त थे कि कहते थे कि ये मनमोहन सिंह की सरकार चली जाए, चाहे कोई भी आ जाए । इस पर जब लोगों को एक बेहद ईमानदार और विकास पुरुष के रूप में नरेन्द्र मोदी मिले तो सोने पर सुहागा हो गया ।
यह विश्वास हम में से किसी को भी नहीं था, शायद स्वयं नरेन्द्र मोदी को भी नहीं कि कितना बहुमत आएगा । इसलिए उन्होंने अपना पांच साल का विजन जनता के सामने रख दिया, ताकि उसको देखकर जनता उनको प्रचंड बहुमत दे और हुआ भी यही, किन्तु लोगों ने उस विजन को पांच साल का न मानकर एक साल का मान लिया कि वे सारे काम एक साल में हो जाने चाहिए, इसलिए लोगों की बेचैनी बढ़ गई और बहुतों ने ऐसे ही आलोचना करना शुरू कर दिया जैसा क्रिकेट के मैदान में सचिन तेंदुलकर जब खेल रहे होते हैं तो दर्शक उसे समझाते हैं कि गेंद को कैसे खेलना है । हम यह भूल जाते हैं कि जैसे सरकार चुनने में हम मदद करते हैं, वैसे ही हमें सरकार चलाने में भी मदद करनी है।
हम सभी सोचते हैं कि सरकार हमारे लिए सब कुछ कर दे और हमें कुछ नहीं करना पड़े, तो यह ग़लत है। अगर सरकार की जवाबदेही हमारे लिए है, तो हमारी जवाबदेही भी ख़ुद के लिए और देश के लिए है। जब हम केवल अपनी सूहलियतों के बारे में ही सोचते हैं, तब चिंता होना लाज़िमी है। आज अच्छा या बुरा, जैसा भी हो, मोरल रिएक्शन दिखाई नहीं देता। बहुत सीधा उदाहरण है कि हम ख़ुद पर तो नैतिक मूल्य लागू करने का ज़िम्मा नहीं डालते, लेकिन दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वे अपनी ज़िम्मेदारियां ईमानदारी से निभाएं। दूसरों को नसीहत देना और ख़ुद अच्छा आचरण अमल में नहीं लाना आज हमारा चरित्र हो गया है।
बारिश के मौसम में थोड़ी देर अच्छी बारिश हो जाए, तो दिल्ली से लेकर मुंबई, दक्षिण और पूर्व के सुदूर इलाक़ों तक में गली-गली गले-गले पानी भरने की तस्वीरें आम हैं। देश के न्यूज़ चैनल कई-कई दिन तक सड़कों पर पानी भर जाने की तस्वीरें दिखाते रहते हैं। टीवी चैनल, अख़बार और लोग चीख-चीख कर सरकारों, ज़िला प्रशासनों, नगर निकायों को कोसने लगते हैं। लेकिन कोई क्या यह सोचता है कि अपने घर के बाहर पानी की निकासी के लिए छोड़ी गई नाली पर उसने रैंप बनवा रखा है, इससे भी समस्या पैदा होती है। ऐसे में अगर नगर निकाय या कोई दूसरी व्यवस्था अपना काम कर भी दे, तो कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। रिहायशी इलाक़ों में पानी जमा होगा ही। अगर कोई अतिक्रमण हटाओ दस्ता हमारी कॉलोनी में रैंप तोड़ने आ जाए, तो फिर तो हमारे नागरिकीय अधिकारों की गरिमा इतनी ओजस्वी हो जाती है कि हम पथराव करने लगते हैं।
बिजली की कमी के विरोध में हम हिंसक हो जाएंगे, लेकिन आस-पास हो रही बिजली की चोरी की शिकायत दर्ज कराना हमें अपनी ज़िम्मेदारी नहीं लगती। किसी भ्रष्ट कर्मचारी को कुछ रिश्वत थमाकर हम तय लोड से ज़्यादा बिजली ख़र्च करेंगे, लेकिन जब बिजली कटौती होगी, तो बिजलीघर में आग लगा आएंगे।
बिजली कर्मचारियों को बंधक बना लेंगे। दरअस्ल, आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। वैचारिक स्तर पर इसके लिए पहले मज़बूत ढांचा तैयार करने पर ध्यान नहीं दिया गया।
होना तो यह चाहिए था कि उस वक़्त के गर्म माहौल को मनमाफ़िक आकार में ढालने का काम किया जाता। लेकिन जर्जर राजनीतिक सोच ने उस गर्म माहौल पर ढेर सारा ठंडा पानी डाल दिया। अब ऐसा सोच-समझकर किया गया, ऐसा तो नहीं लगता। हां, यह ज़रूर साबित होता है कि उस वक़्त की सियासी समझ ही कमज़ोर थी। आज़ादी की लड़ाई तो देश के नागरिकों के अदम्य सहयोग से जीत ली गई, लेकिन स्वतंत्र देश का नेतृत्व आज़ाद हुई ज़मीन पर विकास और समाज निर्माण का कोई दूरदर्शी ख़ाका नहीं खींच पाया।
आज अजीब हालत है। लोकतंत्र के नाम पर वह सब कुछ धड़ल्ले से हो रहा है, जो बिल्कुल नहीं होना चाहिए। देश के नागरिक वोट बैंक में बदल गए हैं। देश को चलाने वाली संसद की तस्वीरें देखकर चिंता होने लगी है। लोगों के ज़ेहन में नागरिकबोध ख़त्म सा हो गया है। सोच नकारात्मक होती जा रही है। वह आलोचना तो करता रहता है, लेकिन भागीदारी की कोई भावना उसमें नहीं होती।
अजीब हाल है। सरकार अगर बेहतरी के लिए किसी सरकारी व्यवस्था के निजीकरण की बात करती है, तो तत्काल बड़े पैमाने पर विरोध शुरू कर दिया जाता है। सरकारी अधिकारी, कर्मचारी अगर सही तरीक़े से काम कर रहे होते, तो निजीकरण की नौबत ही क्यों आती? यह सही है कि सरकारी विभागों का मूल मक़सद केवल मुनाफ़ा कमाना नहीं है। उनका काम मुनाफ़े के साथ-साथ समाज निर्माण का भी है। लेकिन ऐसा सात दशक में अभी तक क्यों नहीं हुआ? इस निठल्लेपन की वजह राष्ट्रीय सोच का विकास न होना ही है। तो फिर निजीकरण से डर कैसा?
उदाहरण के लिए रेलवे और किसी प्रदेश के रोडवेज़ सिस्टम को ले सकते हैं। आप रेलवे में नौकरी करते हैं, तो आपको वेतन समेत सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, लेकिन जो काम आपको करना है, यूनियनों की धौंस जमाकर वह नहीं करेंगे। यात्री जाएं भाड़ में। उदाहरण के तौर पर सरकारी और निजी बैंकों को भी ले सकते हैं।
दूसरा, पहलू यह है कि देश के आम नागरिक की अवधारणाएं भी बदल गई हैं। घाटा कम करने के लिए अगर रेलवे दस रुपए किराए में बढ़ा दे, तो इतना हल्ला होता है कि संसद क्या, सड़कें तक ठहर जाती हैं। लेकिन वही यात्री, जिसे लगता है दस रुपए बढ़ाकर सरकार ने उसकी जेब काट ली है, जब स्टेशन के बाहर निकलता है, तो ऑटो रिक्शा वालों की मनमानी का विरोध नहीं करता। पचास रुपए की बजाए, दो सौ रुपए भी चुपचाप दे देता है। ग़ौर से सोचा जाए, तो ऑटो रिक्शा वाला भी तो देश का नागरिक है, लेकिन उसमें भी राष्ट्रीय चेतना नहीं है।
वह अपने साथी नागरिक की मजबूरी का फ़ायदा उठाने से नहीं चूकता। विदेशी सैलानियों के मामले में हम अक्सर देखते हैं कि चाहे वाहन वाले हों या गाइड या फिर होटल वाले, सभी देश का बदनाम चेहरा विदेश भेजते हैं। लेकिन सभी ऐसे हों, यह भी सही नहीं है। दिक्क़त यह है कि सही लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है।
भारत में इस वक़्त 35 साल से कम उम्र वाले 60 फ़ीसदी से ज़्यादा हैं। हम युवा देश हैं। लेकिन क्या युवाओं में राष्ट्रीयता की भावना है? नौजवान बुरी तरह नकारात्मक विचारों से घिरे हैं। पुराने ज़माने में विश्व बिरादरी पर हमारे देश का दबदबा रहा है, तो फिर से ऐसा ज़रूर हो सकता है। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार करना होगा। मैं मानता हूं कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस तरफ़ गंभीरता से काम कर रही है, जिसके नतीजे एक-दो साल में दिखने लगेंगे।
भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? चौंकाने वाला आंकड़ा है कि पिछले बीस साल में क़रीब तीन लाख किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं। ये छोटे और मंझोले किसान हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि इन किसानों की रीढ़ एक-दो प्रतिकूल मौसमों में ही क्यों टूट जाती है कि नौबत ख़ुदकुशी की आ जाती है? जवाब बहुत सीधा सा है कि आज़ादी के बाद देश पर शासन करने वाली सरकारों ने छोटे-मंझोले किसानों को उभरने नहीं दिया।
वर्ष 1951 में पहली जनगणना में पता चला कि देश की आधी आबादी खेती पर निर्भर है। उसके बाद 2011 में जनगणना का आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। साठ साल बाद देश में किसानों की संख्या घटकर क़रीब आधी से भी कम रह गई। आज देश में खेती करने वाले और खेतों में मजदूरी करने वालों की संख्या महज़ 26 करोड़ है। इनमें से ख़ुद की ज़मीनों पर खेती करने वाले किसानों की संख्या तो 12 करोड़ ही है। सवाल यह है कि किसानों की संख्या में इतनी कमी क्यों आ गई?
ज़ाहिर है कि खेती मुनाफ़े का सौदा नहीं रहा, इसलिए बहुत से लोगों ने खेती छोड़ दी? सवाल यह है खेती फ़ायदे का सौदा क्यों नहीं रहा? क्योंकि आज़ादी के बाद से अभी तक की सरकारों ने किसानों के विकास के लिए सही नीतियां नहीं बनाईं।
अब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार जो क़दम उठा रही है, उनके नतीजे आने में कुछ वक़्त लगेगा और तभी उनकी विवेचना और मीमांसा भी की जा सकती है।
आज़ादी के बाद से ज़्यादातर वक़्त तक देश पर शासन करने वालों और उनका साथ देने वालों ने किसानों की नहीं, बिचौलियों की ही मदद की। यही वजह है कि किसान और बदहाल होते गए और भ्रष्टाचार की खुली छूट पाकर बिचौलिये और धनवान, साधनवान होते गए। इस वजह से उस बहुत बड़े तबक़े में राष्ट्रवादी सोच विकसित ही नहीं हुई, जिसने आज़ादी की लड़ाई में बाक़ायदा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। लेकिन ऐसा नहीं है कि ये हालात बदल नहीं सकते। मैं युवाओं और किसानों पर ध्यान देने की वकालत इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि ये दो तबके राष्ट्रवादी सोच वाले हो जाएं, तो देश को मज़बूत और समृद्ध राष्ट्र बनाने का काम बहुत आसान हो सकता है। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि खाली पेट किसी को सदाचरण की बातें नहीं सिखाई जा सकती हैं। मेरा मानना है कि केंद्र सरकार तो ज़िम्मेदारी निभाने में लगी है। अभी क़रीब डेढ़ साल ही हुए हैं।
नतीजे आने में थोड़ा वक़्त और लगेगा। लेकिन हम सभी लोग ज़रा सोचें कि हम अपनी ज़िम्मेदारी कितनी निभा रहे हैं।
My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.
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