विजय गोयल
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
दिवाली का त्योहार मुझे बचपन से बहुत पसन्द रहा है, क्योंकि इस दिन हम नए कपड़े पहनते, शाम को पूजन होता और दिवाली से कई दिन पहले पूरे घर की सफाई होती थी। शायद ही कोई ऐसा त्योहार हो, जो स्वच्छता का इतना बड़ा संदेश लेकर मनाया जाता हो। दिवाली पर घर का कोना-कोना साफ किया जाता, सफेदी कराई जाती और दिवाली तक घर को पूरी तरह से सजा दिया जाता। अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वच्छता अभियान की बात करते हैं तो उसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि हम दिवाली का संदेश भूल गए।
भारत में हम देखें तो हर त्योहार कोई न कोई संदेश लिए हुए है।। हर त्योहार जहां एक ओर अपने पीछे एक कहानी लिए हुए है, वहीं दूसरी ओर कोई न कोई सामाजिक संदेश लिए हुए होता है। हमारे पूर्वजों ने समाज में अच्छे काम करने के लिए उसके साथ कोई न कोई पर्व जोड़ दिया है। जब लोग पूरे साल नहीं मिलते, तब वे दिवाली पर जरूर मिल लेते हैं और उनमें पूरे साल न मिलने की झाक भी टूट जाती है। मैं विशवास के साथ कह सकता हूं कि यदि रक्षाबन्धन का त्योहार नहीं होता तो कई भाई अपनी बहन से सालों-साल नहीं मिलते, पर इस त्योहार के कारण रो-पीटकर भाई अपनी बहन तक साल में एक बार तो पहुंच ही जाता है।
हमारे इन त्योहारों की वास्तविकता और चमक-दमक को आधुनिक जीवन ने हम से छीन लिया है, ये महज रीति-रिवाज और गले की फांस बनते जा रहे हैं। लोग ये भूल गए कि एसएमएस, फेसबुक और ईमेल से आप अपने फर्ज की इतिश्री तो कर सकते हैं पर सम्बन्धों में प्रगाढ़ता और मधुरता नहीं बनाए रख सकते। वैसे ही जैसे एसएमएस और सोषल मीडिया के माध्यम से बिना पब्लिक के बीच गए, आप वोट नहीं ले सकते।
दिवाली का त्योहार आधे से ज्यादा तो गिफ्ट के आदान-प्रदान का त्योहार रह गया है। इस त्योहार से कुछ दिन पहले तक ऐसा लगता है कि लोग अपने अच्छे-भले परिवारों को छोड़ घरों से सड़कों पर ट्रैफिक जाम में उतर आए हैं। मैं जिसके घर गिफ्ट देने जा रहा हूं, वह मुझे घर पर नहीं मिलता और जो मेरे घर गिफ्ट लेकर आ रहा है मैं उसे नहीं मिल पाता और अब उपहार भी रिष्तेदारों व नजदीकियों को नहीं, बल्कि व्यापार से जुड़ गए हैं। लोग उनको उपहार दे रहे हैं, जिनसे उन्हें काम है या भविष्य में काम पड़नेवाला है। उपहार लिए-दिए ही नहीं जा रहे हैं, बल्कि उनका वजन भी तोला जा रहा है कि जो हमारे घर उपहार छोड़कर गया, वह कितना महंगा है और किसी ने छोटा उपहार दे दिया तो मानो गाली दे दी हो। धीरे-धीरे ये सब चीजें दिवाली में तनाव लेकर आती जा रही हैं। कौन मिलने आया और कौन हमसे मिलने नहीं आया। उसका हिसाब रखना शुरू हो जाता है।
पहले बच्चे मां-बाप के साथ बाजार में जाया करते थे और मनपसन्द दीये, लक्ष्मी-गणेश, हटड़ी, सजाने का सामान खरीदते थे और खुद घर में खड़े होकर पूरा परिवार फूल-हार से घर को सजाता था, उसका आनन्द ही कुछ और था। धीरे-धीरे यही चीजें नौकरों के हाथ से मंगाई जाने लगी और अब तो आॅनलाईन ये सारे काम हो रहे हैं। चीज तो आ जाती है, पर वो आनन्द कहां ।
दिवाली मिठाई का त्योहार है, लोग दिवाली पर एक-दूसरे को मिठाई देते हैं, फिर ड्राई-फ्रूट का चलन हुआ ओर अब ड्राई-फ्रूट के साथ-साथ कोल्ड ड्रिंक से लेकर सोने-चांदी के सिक्के दिए जाने लगे हैं। मुझे कई बार आष्चर्य होता है कि मिठाई खाता तो कोई नही पर बिकती व बंटती पूरी है, तो आखिरकार ये जाती कहां है, तो किसी ने कहा कि अन्त में ये मिठाई नीचे की श्रेणी के लोगों में जाती है। अमीर लोग तो अब डायबटिज और अन्य बीमारियों के कारण मिठाई खाते ही नहीं हैं।
इन सब बातों के कहने का तात्पर्य यह है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो हमारे ये त्योहार धीरे-धीरे फीके पड़ने शुरू हो जाएंगे। होली में रंग मत लगाओ, ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दिवाली में पटाखे मत जलाओ, इससे प्रदूशण होता है।
मुझे लगता है कि इस माहौल के पीछे बड़ी वजह है कि बदलते वक्त के साथ त्योहारों का स्वरूप का नहीं बदलना। आदमी आम जिन्दगी में भी बदलाव चाहता है। रोज-रोज आप वही खाना नहीं खा सकते, वही कपड़े नहीं पहन सकते। तो फिर त्योहारों के मामले में हम रूढि़यों को क्यों नहीं तोड़ रहे हैं। हमारा समाज तेजी से आधुनिकता की ओर दौड़ लगा रहा है, तब क्यों हमें अपने त्योहार मनाने के तौर-तरीके बदलने नहीं चाहिए ? जिसे हमारी नई पीढ़ी सुविधा से कर ले और संस्कार भी न छोड़े। पूजा-पाठ कराने की जिम्मेदारी समाज के बड़े लोगों और धर्म गुरूओं की है। वे लोग नइ पद्धतियां यानी सिस्टम ईजाद करने के बारे में नहीं सोच रहे हैं।
रावण का वध कर जब रामचन्द्र भगवान अयोध्या लौटे तो प्रकाष और आतिषबाजी कर उनका स्वागत करने की परम्परा है। तब क्या पटाखे होते थे, तब ढोल-नगाड़े पटाखे का काम करते होंगे। अब स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है कि पटाखे नहीं जलाने चाहिए क्योंकि इससे हवा जहरीली हो रही है। बात किसी हद तक सही भी है। पटाखे चलाने का मकसद उत्सव मनाना ही है। तो फिर हम पटाखों के विकल्प के तौर पर उत्सव मनाने के लिए सांस्कृति आयोजन क्यों नहीं कर रहे हैं ? इस तरह उत्सव मनाकर हम गांव-देहात की प्रतिभाओं को बढ़ावा भी दे सकते हैं। यह एक विकल्प है, तो दूसरे बहुत से विकल्प भी तलाशे जा सकते हैं। आखिरकार तो पटाखे और आतिशबाजी जलाने का मतलब उत्सव मनाना है, अपनी ख़ुशी को जाहिर करना है। पटाखों के प्रदूशण की तो हम बात करते हैं, पर कोई यह पूछे कि वाहनों व फैक्टरियों के प्रदूशण पर हम कितना संजीदा हैं।
एक मजेदार बात यह है कि अब लोगों से पटाखे भी नही चलते, इसलिए वे एक-एक पटाखा न जलाकर एक पूरी लड़ी में आग लगाते हैं और इसी तरह से एक-एक आतिशबाजी न जलाकर 140 आतिशबाजी का डिब्बा लेते है। जो खुद ब खुद चलती रहती है। इससे से अच्छा तो यह है कि क्यों न सरकार ही दिवाली पर आतिशबाजी का बड़ा कार्यक्रम करे, जिसको देखने सब लोग आएं। ऐसा कई देषों में नए वर्श पर होता भी है। हमारे देष के लिए नए वर्श से ज्यादा दिवाली महत्वपूर्ण है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे सभी त्योहारों की एक पुस्तक छपनी चाहिए, उसका वैज्ञानिक और धार्मिक महत्व समझाया जाना चाहिए और इन त्योहारों पर जो बहुत ज्यादा रस्म-रिवाज है, उसे छोटा करना चाहिए ताकि आज के आधुनिक समय के अन्दर जब नई पीढ़ी के पास समय नही है, वे इसके पौराणिक महत्व के साथ सही पूजा-पाठ भी कर सकें और अपने बच्चों में संस्कार भी दे सकें।
नई पीढ़ी को भी पूजा में ज्यादा देर तक बैठना पसन्द नहीं है, लिहाजा पंडित जी से कोई नहीं कहता कि कथा को संस्कृत के साथ हिन्दी या जो भाशा परिवार जानता है, उसमे भी समझाएं। अन्यथा नई पीढ़ी को यह समझ में ही नहीं आता कि पूजा के पीछे मूल मकसद आखिर है क्या ? वह तो बस इतना समझती है कि दीपावली है तो चमक-दमक करो, मिठाई खाओ और पटाखे चलाओ। अगर कोई माता-पिता बच्चों को त्योहारों का महत्व बताने के लिए किताबों का सहारा लेना चाहे, तो भी कोई फायदा नहीं। कई किताबों में इतनी क्लिश्ट भाशा का इस्तेमाल होता है कि कुछ समझ पाना माता-पिता तक को भी मुष्किल होगा।
दिवाली के पूजन पर भी हम जो पूजन पंडित जी से करवाते हैं या हम स्वयं लक्ष्मी चालीसा, गणेश चालीसा का पाठ करते हैं, पहले हो सकता है कि हमें उसका अर्थ मालूम हो, पर हम अपनी नए पीढ़ी के बच्चों को उसका अर्थ नहीं समझाते । मुझे मालूम नहीं कि इस विधि-विधान की सीडी मार्किट में है भी या नहीं, जो उसकी विधि भी बता दे और उसका अर्थ भी। ऐसी सीडी होनी चाहिए ताकि हम केवल पंडितों पर निर्भर न रहें, जिन्हें दस जजमानों के यहां जाना होता है और वे जल्दी-जल्दी संस्कृत में मन ही मन उच्चारण कर पूजा निपटा देते हैं।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दीपावली का त्योहार संस्कृति से बहुत दूर हो गया है। यह त्योहार अब केवल बाजार के हवाले होकर रह गया है। आखिर में मैं दीपावली से जुड़ी एक और बुराई का जिक्र करना चाहता हूं, वह है जुआ। दीपावली पर बहुत-से घरों में जुआ खेलने की परम्परा इसका सांस्कृतिक स्वरूप पूरी तरह खो चुकी है। देश भर में त्योहार के नाम पर बड़े पैमाने पर जुआ क्यों खेला जाता है यह मेरी समझ से परे है। जो षौक के तौर पर जुआ खेलें भी उसे कृपया दिवाली के साथ न जोड़े।
अंत में मैं यही कहूंगा कि पहले हम लोग घर में घी-तेल के दीये जलाते थे। वातावरण शुद्ध रहता था। अब बिजली की लडि़यां आ गई है। दीये तैयार करने और बातियों को जलाकर मुंडेरों पर रखने में जो आनंद था, वह भी खत्म हो गया है। रोषनी तो हो रही है, लेकिन हम मानसिक रूप से दीपावली से दूर हो गए है। एक परम्परा है, जिसे निभा रहे हैं। मैं चाहता हूं कि यह सूरत बदले। नई पीढ़ी पूरी उमंग के साथ त्योहार का मतलब समझकर उसे मनाए। अगर हम माता-पिता यह ठान लें, तो ऐसा जरूर हो सकता है। नहीं तो दिवाली का यह त्योहार तनावपूर्ण ही बनकर रह जाएगा, जिसमें लोग अपने परिवार से दूर गिफ्ट बांटते हुए, ट्रैफिक जाम में फंसे हुए मनाएंगे।