विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
पिछले दिनों दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप कांड में नाबालिग अपराधी की भूमिका को लेकर काफ़ी चर्चा हुई। ख़ासकर गंभीर अपराधों के मामले में नाबालिगों को मिंलने वाली सज़ा पर देश भर में मंथन किया गया। बहुत से लोग इस पक्ष में हैं कि रेप और हत्या जैसे गंभीर अपराधों की सूरत में कठोर सज़ा के लिए उम्र का दायरा घटाकर 16 साल कर दिया जाना चाहिए। यह बहस का अहम मुद्दा है और कानूनविद इस पर विमर्श करते ही रहेंगे। अभी हाल ही में कानून में बदलाव किया भी गया है। जिसके तहत जुवेनाइल रेपिस्ट को ख़ास हालात में सज़ा-ए-मौत भी सुनाई जा सकती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आज शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर के मौक़े ज़्यादा होने के बावजूद हमारे और आपके बच्चे अपराधों की तरफ़ आकर्षित क्यों हो रहे हैं? आंकड़ों को देखें, तो हालत चिंता करने लायक नज़र आती है।
बच्चों को जिस उम्र में खेलना-कूदना चाहिए, उस उम्र में वे छेड़छाड़ तो छोड़िए, रेप जैसे गंभीर अपराध करने में भी नहीं चूक रहे। संसद में हाल ही में जुवेनाइल क्राइम यानी बच्चों के ज़रिए होने वाले अपराधों को लेकर एक रिपोर्ट पेश की गई है। मैंने यह रिपोर्ट पढ़ी, तो चौंक गया। हज़ारों सवाल मेरे ज़ेहन में कौंधने लगे।
मुझे लगा कि हमारा समाज जैसे-जैसे भौतिक तरक़्की की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हमारे बच्चे यानी देश का बचपन संस्कार विहीन होता जा रहा है। संसद में पेश वह रिपोर्ट हमें बता रही है कि अपराध करने बच्चों की संख्या में साल दर साल बढ़ोतरी होती जा रही है।
वर्ष 2012 में देश में जुवेनाइल क्राइम के 27 हज़ार 936 केस दर्ज किए गए। अगले साल यानी 2013 में यह आंकड़ा बढ़कर 31 हज़ार को पार कर गया और 31,725 केस जुवेनाइल क्राइम के दर्ज किए गए। साल 2014 में 33 हज़ार 526 जुवेनाइल क्राइम के मामले सामने आए। ग़ौर करने लायक बात यह है कि आमतौर पर नाबालिगों द्वारा किए गए छोटे-मोटे क्राइम के मामले परिवार और समाज के दबाव में दबा दिए जाते हैं या फिर आपसी सहमति से केस पुलिस के पास नहीं ले जाया जाता। कहने का मतलब यह है कि जितने केस बाक़ायदा दर्ज होते हैं, उनके मुक़ाबले हक़ीक़त में बाल अपराध के मामले बहुत ज़्यादा होते हैं।
अब ज़रा सोचिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। जिस देश का बचपन दिनों दिन अपराध की ओर बढ़ रहा हो, उस देश का भविष्य कैसा होगा? अब एक बड़ा सवाल यह है कि क्या क़ानून को सख़्त बनाकर बाल अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है? मेरा तो मानना है कि क़ानून में मौत की सज़ा या दूसरी कड़ी सजाओं के प्रावधान करने से इस मामले में बात नहीं बनेगी। मुझे अपने बचपन की याद है। अव्वल तो हम माता-पिता या शिक्षकों से झूठ बोलने की सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन कभी-कभार किसी साथी या भाई-बहन को बचाने के लिए झूठ बोलना भी पड़ता था, तो कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती थी और उस दौरान हमारा शारीरिक जुगराफ़िया भांपकर झूठ अक्सर पकड़ भी लिया जाता था।
लेकिन आज के बच्चे न केवल धड़ल्ले से झूठ बोल रहे हैं, बल्कि इतनी सहजता से बोल रहे हैं कि आप आसानी से उन पर यक़ीन भी कर रहे हैं। इसका मतलब साफ़ है कि नैतिक शिक्षा या अंग्रेज़ी में कहें, तो मोरल एजूकेशन की बेहद कमी होना ही इसकी बड़ी वजह समझ में आती है। यह मोरल एजूकेशन केवल स्कूलों में ही नहीं, बल्कि परिवारों में होनी ख़त्म सी हो गई है। चकाचौंध भरे इस दौर में मां-बाप के पास बच्चों को सही बातें सिखाने और लगातार सिखाते रहने का समय ही नहीं है।
ऐसे में नतीजा बिल्कुल वही होगा, जो संसद में पेश रिपोर्ट में दर्ज आंकड़े बता रहे हैं। मैं तो बचपन में झूठ बोलने में ही बुरी तरह कांप जाता था। लेकिन आज हक़ीक़त यह है कि साल 2012 में 1175 बच्चे रेप के आरोपी बनाए गए। रेप के इरादे से हमला करने वाले बच्चों की संख्या रही 613 और 183 केस महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के दर्ज किए गए। आप चौंक जाएंगे यह जानकर कि 2012 में 990 बच्चे मर्डर के केस में सुधार गृहों में भेजे गए और धारा 307 यानी जान से मारने की कोशिश में 876 नाबालिग पकड़े गए। इसी तरह साल 2013 में 1884 नाबालिगों पर रेप का आरोप लगा। रेप के लिए हमला करने के मामलों में इस साल काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ और पिछले साल के 613 केस के मुक़ाबले 1424 केस 2013 में दर्ज किए गए। इसी तरह छेड़छाड़ के केस भी 183 से बढ़कर 312 हो गए। मर्डर के केस भी 990 के मुक़ाबले बढ़कर 1007 तक पहुंच गए। साल 2014 में रेप के मामले बढ़कर 1989 हो गए। रेप के इरादे से हमले के केस बढ़कर 1891 हो गए। छेड़छाड़ के केस बढ़कर 432 हो गए। लेकिन मर्डर और मर्डर की कोशिश के केस घटकर क्रमश: 841 और 728 दर्ज किए गए। यहां मैं फिर कह रहा हूं कि थानों में दर्ज यह आंकड़ा अंतिम नहीं कहा जा सकता। क्योंकि केस बच्चों से जुड़े होते हैं, लिहाज़ा बहुत से मामले आपस में ही कह-सुन कर निपटा लिए जाते हैं, यह हम सभी जानते हैं।
मुझे तो यह आंकड़े वाक़ई परेशान कर रहे हैं। समाज शास्त्रियों को भी कर रहे होंगे। लेकिन इस हालत के लिए क्या सरकारें ही ज़िम्मेदार हैं? क्या हम दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि क्योंकि कड़ा क़ानून नहीं था, इसलिए बच्चे गंभीर अपराध कर रहे थे? मुझे नहीं लगता कि केवल क़ानून कड़े होने से हालात सुधर सकते हैं। इस सिलसिले में मैंने कई मनोचिकित्सकों से बात की। क़रीब-क़रीब सबका मानना है कि यह एक सामाजिक चुनौती है और सामाजिक स्तर पर ही बड़ों को जागरूक कर इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। जुवेनाइल माइंड को समझने की सख़्त ज़रूरत है। यह उम्र ऐसी होती है, जिसमें सेक्स के प्रति आकर्षण ज़्यादा होता है। ऐसे में अब सही वक़्त आ गया है, जब सेक्स एजूकेशन को लेकर साफ़सुथरी नीति बनाई जाए और उसे ईमानदारी के साथ लागू भी किया जाए।
हमें बचपन में जो सुविधाएं और एक्सपोज़र हासिल नहीं था, वह आज के बच्चों को सहज रूप से हासिल है। जैसे रेडियो, टीवी, इंटरनेट और स्मार्ट फ़ोन। ऐसे में इन सभी चीज़ों के इस्तेमाल में बहुत सावधानी की ज़रूरत है, क्योंकि बहुत सी चीज़ों में सही और ग़लत की सीमारेखा बहुत ही झीनी सी होती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बहस में एक विदुषी महिला का एक कथन मुझे बड़ा अच्छा लगा। वह कह रही थीं कि आजकल मिडिल क्लास के परिवार ख़ुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में वही जुमले अपनाने लगे हैं, जो कथित अत्याधुनिक लोग अपननाते हैं। मसलन, माता-पिता अपने बच्चों को भी ‘यार’ संबोधन से पुकारने लगे हैं। उन्होंने बिल्कुल सही कहा। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि ‘यार’ क्या होता है। जब थोड़ी समझ आई, तो यही सीखने को मिला कि ‘यार’ शब्द सही लोग इस्तेमाल नहीं करते। बहरहाल, यह छोटा सा उदाहरण है कि हम बड़े लोग ख़ुद बिगड़कर, आचरण भ्रष्ट होकर बच्चों को किस तरह बिगाड़ रहे हैं।
अब ज़रूरत है कि माता-पिता को भी नैतिक शिक्षा का पाठ दोबारा पढ़ाया जाए, ताकि वे अपने बच्चों को बिगड़ने से रोक पाएं। इसके लिए बाक़ायदा स्कूलों में हफ़्ते-दो हफ़्ते का कोर्स कराया जा सकता है। क्योंकि यह देश को बनाने और बचाने का अहम मामला है, लिहाज़ा सरकारों को भी अपनी तरफ़ से इस ओर पहल करनी चाहिए। ऐसा प्रावधान किया जा सकता है कि माता-पिता जब बच्चों के स्कूलों में ओरिएंटन कोर्स करने जाएं, तो सरकारें इसके लिए ख़ास तौर पर छुट्टियां दें। अगर हम देश को वाक़ई महान बनाना चाहते हैं, तो देश के बचपन को गंदगी से बचाना बहुत ज़रूरी है।
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