विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
आज देशभक्ति पर विचार और देश के ख़िलाफ़ आग उगलने का सिलसिला चल रहा है। सुकून की बात यह है कि देशभक्ति की भावना के पक्ष में विचार करने वाले करोड़ों नागरिक हैं और देश को तोड़ने की बात करने वाले मुट्ठीभर गुमराह लोग ही हैं। ऐसे दौर में देश को मिली आज़ादी के एक महानायक को याद करना बेहद ज़रूरी है। रस्मन भी और मौजूदा वक़्त की नज़ाक़त को देखते हुए भी।
रस्मन इसलिए कि अभी 27 फ़रवरी को उनका बलिदान दिवस था। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई के महानायक थे पंडित चंद्रशेखर आज़ाद। आज से 75 साल पहले 27 फ़रवरी, 1931 को यूपी में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद मन में देश की आज़ादी का सपना संजोए हमेशा-हमेशा के लिए आज़ाद हो गए। वे जीतेजी अंग्रेज़ एसपी नॉट बाबर के हाथ नहीं लगे। जब आख़िरी गोली बची, तो उन्होंने अपने नाम को सार्थक करते हुए वह अपनी कनपटी पर दाग ली।
आज जब देश के कुछ गुमराह नौजवान देश को तोड़ने की बात कर रहे हैं, तब चंद्रशेखर आज़ाद को याद करने और उनकी शहादत को नए सिरे से प्रचारित करने की ज़रूरत है। जो चंद गुमराह लोग नारे लगाते हैं कि उन्हें कश्मीर, केरल और बंगाल की आज़ादी चाहिए, मैं उन्हें सलाह देता हूं कि वे देश की आज़ादी की लड़ाई के महानायकों से सीखें कि देश क्या होता है? गुलामी क्या होती है? उनसे सीखें कि अपने देश की आज़ादी की मांग करने वालों को अंग्रेज़ किस तरह की बर्बर सजाएं देते थे। अब जब लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की क़ुर्बानी से देश आज़ाद है और हमें बोलने की आज़ादी हासिल है, तब देश को तोड़ने की बात कहना तो दूर, सोचना भी आज़ादी की लड़ाई का सबसे बड़ा अपमान है।
कुल मिलाकर मैं समझता हूं कि चंद्रशेखर आज़ाद की 75वीं वर्षगांठ पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाई जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हां, सोशल मीडिया पर देश भक्तों ने जमकर उन्हें याद किया, यह अच्छी बात है। मैंने बचपन में चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में ख़ूब पढ़ा था। मेरे प्रेरणा पुरुषों में वे भी शामिल थे। बचपन में उनके बारे में पढ़कर हमें गौरव का अनुभव होता था। उनके कई क़िस्से आज भी मेरे मन में कुलबुलाते रहते हैं। आज़ाद के पिताजी यूपी के उन्नाव ज़िले के बदर गांव के रहने वाले थे। लेकिन अकाल की वजह से उन्हें अलीराजपुर रियासत के भावरा गांव में जाना पड़ा। वहीं 23 जुलाई, 1906 को चंद्रशेखर का जन्म हुआ। भावरा गांव आज मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले में है। देश के हालात समझ आते ही चंद्रशेखर ने परिवार छोड़ दिया और बनारस जा पहुंचे। किशोर चंद्रशेखर ने बनारस में संस्कृत विद्यापीठ में प्रवेश ले लिया।
वर्ष 1921 में महात्मा गांधी ने देश में असहयोग आंदोलन की लहर फैलाई, तो चंद्रशेखर उससे जुड़ गए। अब आप देखिए कि महज़ 14-15 साल की उम्र में ही वे देश के प्रति कितने समर्पित थे। आज ज़रा इस उम्र के किशोरों को देखिए, तो दुख होता है। उनके कंधों पर अच्छे भविष्य की मृग-तृष्णा ने वज़नदार बस्ते लटका रखे हैं। बहरहाल, उन दिनों गांधी जी के आव्हान पर देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। इससे पहले 1919 में हुए जलियावाला बाग नरसंहार का भी असर चंद्रशेखर के किशोर मन पर काफ़ी पड़ा। एक दिन चंद्रशेखर धरना देते हुए गिरफ़्तार कर लिए गए। मजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है, तो जवाब आया ‘आज़ाद’। फिर सवाल आया कि पिता का नाम बताओ, तो उन्होंने जवाब दिया ‘स्वाधीन’। पूछा गया कि घर कहां है, तो जवाब दिया गया ’जेलखाना’। इन जवाबों से मजिस्ट्रेट को गुस्सा आ गया और 15 बेंत की सज़ा सुना दी गई। हर बेंत पर उन्होंने महात्मा गांधी ज़िंदाबाद और देश की आज़ादी के समर्थन में नारे लगाए। तब से उनके नाम के आगे आज़ाद शब्द जुड़ गया। लेकिन आज आज़ाद जैसे लाखों देश भक्तों की क़ुर्बानी का नतीजा यह है कि कुछ लोग देश तोड़ने की बात कहकर देश भक्त होने की दलील दे रहे हैं। ऐसे लोगों को शर्म आनी चाहिए।
मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि इस मौक़े पर मैं महान शहीद पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन परिचय आपसे कराऊं। मैं जानता हूं कि मेरी पीढ़ी के सभी लोगों ने आज़ाद जी के बारे में बचपन में उस उम्र में ही बहुत कुछ पढ़ा है, जिस उम्र में उनके मन में आज़ादी की लड़ाई के अंकुर फूटे थे। दरअस्ल, हमें लगता था कि काश हम भी चंद्रशेखर के साथी होते, तो मज़ा आ जाता। अब इस उम्र में जब अपने बचपन की याद मुझे इस बहाने आती है, तब भी हर बार रोमांच का अनुभव वैसा ही होता है, जैसा बचपन में होता था। मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि आज़ादी की लड़ाई के महान सेनानियों को भुलाना हरगिज़ नहीं चाहिए। जन्मदिन और शहादत दिवसों के बहाने ही देश भर में बड़े पैमाने पर सरकारों और समाज को आयोजन करने चाहिए। दूसरी बात यह है कि आज के विघटनवादी सोच के दौर में तो ऐसे महापुरुषों की शिक्षाओँ और देश के प्रति उनके समर्पण का परिचय बच्चे-बच्चे से कराया जाना बेहद ज़रूरी है।
आज जिस एक और बात से मेरी चिंता बढ़ जाती है, वह है देश के ज़्यादातर युवाओं में राजनीतिक चेतना का नहीं होना। चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन हमें बताता है कि आजादी की लड़ाई के वक़्त नौजवान में मन में राजनीतिक चेतना किस हद तक घर कर चुकी थी। इस सवाल का जवाब तो समाजशास्त्रियों को तलाशना ही होगा। मुझे पता है कि चंद्रशेखर आज़ाद जब आज़ादी की लड़ाई में कूदे, तो वह कोई उन्माद नहीं था, क्रोध नहीं था, बदले की भावना नहीं थी, बल्कि उनकी सोच राजनीतिक स्तर पर पूरी तरह परिपक्व थी। एक बात और भी है कि चंद्रशेखर किसी क्रांतिकारी ख़ानदान से नहीं, बल्कि आम परिवार से थे। वर्ष 1922 में चौराचौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन अचानक वापस ले लिया, तो चंद्रशेखर जैसे बहुत से नौजवानों की विचारधारा में बड़ा बदलाव आया।
आज भी मुझे यह सोचकर हैरत होती है कि मात्र 17-18 साल की उम्र में हिंदोस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारियों के संगठन से सक्रिय तौर पर जुड़ गए थे। साल 1927 में राम प्रसाद बिस्मिल समेत चार साथियों के बलिदान के बाद आज़ाद ने उत्तर भारत की सभी क्रांतिकारी पार्टियों को जोड़कर हिंदोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया था। राम प्रसाद बिस्मिल आज़ाद के चंचल स्वभाव की वजह से उन्हें ‘क्विक सिल्वर’ के कूट नाम से बुलाते थे। काकोरी में आज़ाद और उनके साथियों ने ट्रेन से अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूट लिया। बाद में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाला लाजपत राय पर लाठियों
से हुए जानलेवा हमले के विरोध में उन्होंने भगत सिंह और राजगुरु के साथ अंग्रेज़ अफ़सर सौंडर्स की हत्या कर दी। चंद्रशेखर की अगुवाई में ही भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। तीनों पकड़े गए, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद अपने वचन के मुताबिक़ अंग्रेज़ों के हत्थे ज़िंदा नहीं चढ़े और 27 फरवरी, 1931 के दिन करीब 25 साल की उम्र में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में उन्होंने शहादत दे दी।
चंद्रशेखर आज़ाद की तारीफ़ करने वालों में उस वक़्त के ताक़तवर कांग्रेस नेता और बाद में देश के पहले प्रधानमंत्री बने जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। ऐसे में कांग्रेस का भी फ़र्ज़ बनता है कि वह भी देश की आज़ादी के ऐसे शहीदों को याद करे और देश को तोड़ने का इरादा रखने वालों के कंधे से कंधा मिलाकर न खड़ी हो।
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