विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
देश के विरोध और देश प्रेम को लेकर ज़रूरी बहस चल रही है। बहस का एक मुद्दा यह है कि देश प्रेम को व्यक्त करने के लिए क्या किया जाए? ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भारत माता की जय नहीं कहने का ऐलान कर बहस को नया मोड़ दे दिया है। उनके समर्थन में हैदराबाद से एक फ़तवा आया, तो राज्यसभा सांसद जावेद अख़्तर ने अपने कार्यकाल के आख़िरी दिन उच्च सदन में तीन बार भारत माता की जय का नारा लगाकर ओवैसी को करारा जवाब दे दिया।
मौजूदा दौर में जिस तरह ‘सेकुलर’ और ‘सांप्रदायिक’ शब्दों की व्याख्या की जाने लगी है, वह परेशान करने वाली बात है। परेशान करने वाली बात यह भी है कि लोकतांत्रिक देश में बहुसंख्य आबादी की भावनाओं का आदर करने में सरकारें भी अक्सर हिचकती रहती हैं। देश की 83 परसेंट आबादी हिंदू है, लेकिन देश में हर उस मांग को तवज्जो दी जाती है, जो 17 परसेंट लोग करते हैं। आख़िर क्या यह लोकतंत्र की मूल भावना के ख़िलाफ़ नहीं है? जो 83 फ़ीसदी आबादी हिंदू है, उसमें भी जो अल्पसंख्यक वर्ग है, उसको ही तवज्जो दिए जाने का मलतब साफ़ समझ में नहीं आता। दबे-कुचले वर्गों की बात सुनी जाए, उन पर ज़्यादा ध्यान दिया जाए, यह तो सही है। लेकिन केवल उनकी ही सुनी जाए, तब तो यह लोकतांत्रिक ज्यादती ही कही जाएगी।
पिछली 26 जनवरी की परेड में मैंने राजधानी के राजपथ पर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की भव्य प्रतिमा देखी, तो मन में गर्व हुआ। मुझे महापुरुषों की प्रतिमाएं देखकर, उनकी किताबें और संदेश पढ़कर हमेशा ही प्रेरणा मिलती है। लेकिन मेरे मन में एक सवाल उस वक़्त ज़रूर कौंधा। उसका ज़िक्र भी मैंने अपने कई मित्रों से किया। सवाल यह था कि सही है कि हम आज़ादी की लड़ाई और देश को आगे बनाने-संवारने वाले महापुरुषों का इस तरह सम्मान करें, लेकिन बहुसंख्य आबादी जिन्हें अपनी प्रेरणा और आस्था का स्रोत मानती है, उनकी अनदेखी हम क्यों करते रहते हैं? भारत या कहें कि हिंदोस्तान को 84 करोड़ देवी-देवताओं का देश माना जाता है। बाक़ियों को छोड़कर केवल भगवान राम और कृष्ण को ही लें, तो क्या हम गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड में उनकी प्रतिमाओं के ज़रिए कोई संदेश देश-दुनिया को नहीं दे सकते? पता नहीं क्यों देश के 83 परसेंट आदमियों की भावनाओं का ही गला घोंटा जा रहा है?
मैं जब पाकिस्तान गया, तो बहुत से पाकिस्तानी नागरिकों से बातचीत का मौक़ा मिला। मुझे यह देख-सुनकर हैरत हुई कि वहां कोई भी आम आदमी भारत या इंडिया शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता। सभी हिंदोस्तान (या हिंदुस्तान) कहते हैं। हिंदोस्तान यानी वो जगह, जहां हिंदू रहते हैं। इसकी व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं दिल्ली के चांदनी चौक का बाशिंदा हूं। वहां की मुस्लिम आबादी भी ज़्यादातर हिंदोस्तान शब्द का ही इस्तेमाल करती है। आज कोई किसी मंच से हिंदोस्तान शब्द बोले, तो कुछ ख़ास भाई-बहन लोग उसे सांप्रदायिक करार देने में कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे।
लेकिन अख़बार का नाम ‘द हिंदू’ हिं हो तो कोई बात नहीं, हिंदू कॉलेज के नाम पर किसी को कोई ऐतराज़ नहीं है। इसी तरह हिंदोस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल और एचसीएल यानी हिंदोस्तान कंप्यूटर्स लिमिटेड या कहें कि हिंदोस्तान नाम के साथ शुरू होने वाली तमाम सरकारी और ग़ैर-सरकारी कंपनियां और संस्थान क्या सांप्रदायिक विचारधारा की ओर इशारा करते हैं? इन नामों में किसी को सांप्रदायिकता की बू नहीं आएगी। फिर ऐसा क्या हो गया है कि अगर कोई सियासी व्यक्ति या सियासी विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति हिंदू, हिंदी, हिंदोस्तान की बात करता है, तो उसे सेकुलर मानने से इनकार कर दिया जाता है? मेरी नज़र में यह सबसे बड़ा पोंगापंथ है। दिखावा है। झूठ का चश्मा लगाकर सच्चाई को भी झुठला देने का सुविधाभोगी कमाल है।
आप विदेश जाएं, तो पाएंगे कि अगर कोई भारत, यहां तक कि पाकिस्तान का मूल निवासी है, तो उसे वहां हिंदू ही कहते हैं। भारतीय या पाकिस्तानी नहीं। लेकिन बड़ी विडंबना है कि हमारे देश में विकसित हो चुकी वोट बैंक की स्वार्थी राजनीति ने हिंदू शब्द तक को सांप्रदायिक यानी कम्युनल बना दिया है। इसी तरह भगवा रंग तो सांप्रदायिक हो गया है, लेकिन हरा और लाल रंग सांप्रदायिक नहीं, प्रोग्रेसिव और सेकुलर हो गए हैं। मैं मानता हूं कि किसी भी क़िस्म का कट्टरपंथ आख़िरी तौर पर सही नहीं ठहराया जा सकता, चाहे वह भगवा रंग में रंगा हो या लाल या हरे रंग में या किसी भी रंग में।
ऐसे में सवाल यह है कि देश की ज़्यादातर आबादी की आस्था के स्वरूप राम और कृष्ण को क्या किसी भी स्तर पर सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है? अगर नहीं, तो फिर गणतंत्र दिवस की परेड में उनकी झांकियां क्यों नहीं शामिल की जा सकतीं? ऐसा करने में किस बात का डर है। क्या इससे देश के संविधान की मूल भावना का उल्लघंन हो सकता है? मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई संवैधानिक व्यवधान पैदा हो सकता है। दूसरा सवाल यह है कि भगवा वेष, गले में रुद्राक्ष की माला, हाथ में कलावा जैसे हिंदू प्रतीकों के ही सिलसिले में सांप्रदायिकता की बात क्यों की जाती है? मुस्लिम पहनावे, टोपी के सिलसिले में बिल्कुल नहीं। नब्बे के दशक में हमारे नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने छद्म-धर्मनिरपेक्षता शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया था, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उनकी वह सोच राजनीतिक स्तर पर उतना अटेंशन नहीं पा सकी, जितना उसे मिलना चाहिए था। दिक़्क़त यह है कि हमारी राजनीति उदारता के नाम पर बुरी तरह भटक गई है। इस क़दर भटक गई है कि सही को सही कहने में भी उसे शर्म आती है।
अगर देश के प्राचीन मंदिरों या कहूं कि हिंदुओं के इतिहास और आस्था से जुड़े प्रतीकों में भरोसा रखना सांप्रदायिकता है, तो फिर सरकारी स्तर पर उनकी संरक्षा क्यों की जाती है? इसके लिए बाक़ायदा पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग बनाया गया है, जिसे करोड़ों रुपए का बजट दिया जाता है। पुरातत्व संरक्षण विभाग यानी आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया यानी एएसआई देश की तमाम धरोहरों का संरक्षण करता है। फिर वे हिंदुओं से जुड़े हों या फिर मुस्लिमों या फिर किसी और धर्म या संप्रदाय से। अगर ऐसा किया जाना संवैधानिक रूप से सही है, तो फिर व्यावहारिक तौर पर ऐसा माहौल क्या बना दिया गया है कि हिंदुओं के पक्ष में बात करने वाले सभी लोगों पर सांप्रदायिक होने का टैग लगा दिया जाता है।
दरअस्ल, मनोवैज्ञानिक तौर पर सच्चाई यह है कि ज़्यादा संख्या वाला कोई भी उदार समूह कम संख्या वाले किसी समूह की देखभाल पर तवज्जो इसलिए देता है ताकि वह ख़ुद को कमज़ोर नहीं समझे।
इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि ज़्यादा संख्या वाला समूह किसी भी स्तर पर कमज़ोर है, कायर है या धर्मभीरु है या कहें कि सांप्रदायिक है। ‘सांप्रदायिक’ शब्द ‘संप्रदाय’ शब्द में ‘इक’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। जैसे ‘इतिहास’ से ’ऐतिहासिक’ या फिर ‘राजनीति’ से ’राजनैतिक’ शब्द बनता है। ‘इक’ प्रत्यय लगाने के बाद शब्द के अर्थ में ‘से संबंधित’ जुड़ जाता है। जैसे राजनैतिक का मतलब हुआ राजनीति से संबंधित। उसी तरह सांप्रदायिक का अर्थ हुआ संप्रदाय से संबंधित। ज़रा ध्यान से सोचिए कि हिंदुओं के मामले में तो सांप्रदायिक शब्द नकारात्मक लिया जाता है। लेकिन मुस्लिम या कोई दूसरा समुदाय या संप्रदाय अगर अपने हितों की बात करें, तो उसे सांप्रदायिक कहने का फैशन नहीं है। यह तो भाषा विज्ञान के साथ बड़ा मज़ाक हुआ।
मेरी हर संप्रदाय के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समाज शास्त्रियों से अपील है कि इस मामले में ज़रा ग़ौर करें और सांप्रदायिक और सेकुलर शब्दों के फैशनेबल इस्तेमाल से बचें। अपने हितों की बात करना किसी भी देश, समाज में बुरी बात नहीं है। हां, कट्टर होना हर देश, हर समाज के लिए बुरी बात है।
अगर मैं अपने घर में पूजा कर रहा हूं और मुझे पड़ोस में होने वाली नमाज़ या किसी और पूजा पद्धति से होने वाले कर्मकांड से कोई परहेज़ नहीं है, तो फिर क्या परेशानी है? मेरी पूजा पर सांप्रदायिक होने का कथित सेकुलर तिलक मत लगाइए कृपया।
——————-