विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
देश के लिये शर्मनाक है ऐसा संसदीय गतिरोध: अपने चार दशक से ज्यादा के राजनीतिक जीवन में मैंने संसद का इतना अनुत्पादक सत्र कभी नहीं देखा जितना 5 मार्च से 6 अप्रैल, 2018 तक चला बजट सत्र रहा। 22 दिन का यह सत्र विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस के हंगामे के कारण बेकार चला गया। वह भी तब जबकि बजट सत्र संसद का सबसे महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है। मुझे चिंता इस बात की है कि आखिर सारे देश की जनता के प्रति उत्तरदायी संसद सदस्य इस प्रकार संसद को बंधक बनाकर कर क्या हासिल करना चाहते हैं। कांग्रेस के ऐसे अस्वीकार्य और अस्तरीय विरोध से भारत की दुनिया में क्या छवि बनेगी जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में पहचाना जाता है। कांग्रेस के इस रवैये से संसद ही नहीं, सारा देश अपमानित हुआ है। क्या कांग्रेस यह सच स्वीकार करने का साहस करेगी और देश की जनता से माफी मांगेगी?
संसद का वेल अखाड़े में बदला: संसद जनता के पैसे से चलती है और जनता के लिये चलती है। इसका मूल उद्देश्य देश भर से चुने गए जन प्रतिनिधियों के माध्यम से देश के हर गरीब, वंचित, शोषित और हर वर्ग का सर्वांगीण विकास और कल्याण है। यह हर सांसद का मूल दायित्व है। लेकिन कांग्रेस द्वारा भारी हंगामे के कारण बजट सत्र का दूसरा भाग पूरी तरह से बेकार चला गया। इस दौरान 22 कार्यदिवसों में रत्ती भर काम नहीं हुआ। भारतीय संसद के उच्च सदन ने इस तरह का सत्र शायद ही कभी देखा हो जिसमें देश के हर नागरिक और हर क्षेत्र के हित के लिये काम करने का संकल्प लेकर आने वाले सांसद क्षेत्रीय, निजी और स्वार्थपूर्ण राजनीति भरे मुद्दों पर लगातार वेल को अखाड़ा बनाकर संसद ठप्प कर रहे थे।
यदि कांग्रेस चाहती तो मुख्य विपक्षी दल के तौर पर सदन चलने में सरकार को सहयोग कर सकती थी जिससे क्षेत्रीय मुद्दों पर संसद ठप करने वाली पार्टियां अलग दिखाई दें। उसने आरोप लगाया कि एआईएडीएमके जैसे दल एनडीए के सहयोगी हैं जबकि उनके सांसदों के हंगामे में पूरा साथ भी कांग्रेस ने ही दिया। इस दौरान राज्य सभा में ही जनहित से जुड़े 9 महत्वपूर्ण बिल धरे के धरे रह गए। इसमें मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अन्याय से बचाने, सड़क दुर्घटना के पीड़ितों के मुआवजे को 10 लाख रुपए तक बढ़ाने, भ्रष्टाचार को सामने लाने वाले व्हिसिल ब्लोअर्स को संरक्षण देने और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने जैसे महत्वपूर्ण बिल थे जो देश की बड़ी आबादी पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाले हैं। इस दौरान कांग्रेस ने सिर्फ पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी(संशोधन) बिल, 2018 पास होने दिया। वह चाहती तो अन्य बिल भी पास हो सकते थे लेकिन वह इसमें भी वोट बैंक की राजनीति करती रही। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार निरोधक(संशोधन) बिल, 2018 को 13 दिन तक कार्यसूची में रहने के बाद भी पास नहीं होने दिया। क्या वह देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी जंग के खिलाफ है?
लगातार घट रही है संसद की उत्पादकता: मैं चार बार सांसद रहा हूं और पक्ष व विपक्ष दोनों में रहा हूं। एनडीए सरकार में दूसरी बार मंत्रीपद का दायित्व संभाल रहा हूं। विपक्ष में रहते हुए भी मैंने कभी वेल में जाकर विरोध नहीं किया। मेरे राजनीतिक संस्कार ऐसे हैं। संसदीय कार्य मंत्रालय के प्रभार का यह मेरा दूसरा अवसर है, पर बड़ा अवसर है क्योंकि मुझे मुख्यतः राज्य सभा के कामकाज को मुझे ही देखना था और राज्य सभा में ही हमारी पार्टी का बहुमत नहीं है। मैं प्रधानमंत्री का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी। मेरे संस्कारों में हमेशा से यह रहा कि राजनीति विचारधारा की होती है। आपस में संबंध अच्छे हों तो इससे दूसरी पार्टियों से सहयोग मिलता है। कार्यभार संभालने के बाद शीतकालीन सत्र 15 दिसंबर, 2017 से 5 जनवरी तक चला जिसमें 13 बैठकें हुईं। इस दौरान राज्यसभा की उत्पादकता 56 प्रतिशत और लोकसभा की 92 प्रतिशत रही जो ठीकठाक थी। राज्य सभा में 9 बिल पास हुए और लोक सभा में 13 बिल पास हुए। दोनों सदनों में संयुक्त रूप से 13 बिल पास किए। इसके बाद दो चरण में हुए बजट सत्र का पहला चरण भी अच्छा रहा और सभी दलों में मेरे व्यक्तिगत संबंधों का लाभ मुझे मिला। इसके लिये मैंने सभी दलों के नेताओं से मिलकर उन्हें धन्यवाद दिया। बजट सत्र का पहला चरण भी बहुत अच्छा चला लेकिन बजट सत्र का दूसरा चरण पूरी तरह से बेकार चला गया।
संसद के बजट सत्र के पहले चरण में लोक सभा में सदन कीं 7 और राज्य सभा में 8 बैठकें हुईं थीं। इस सत्र में लोकसभा की बैठकों की उत्पादकता आशातीत ढंग से 134.61 प्रतिशत रही जबकि राज्य सभा की उत्पादकता आशा के अनुरूप 96.31 प्रतिशत रही। सामान्यतः दोनों सदनों में शाम 6 बजे तक ही काम होता है लेकिन इस दौरान लोक सभा के सांसदों ने 3 दिन देर रात तक काम किया तो राज्य सभा सांसदो ने भी 5 दिन देर रात तक बैठकर राष्ट्रहित के विषयों पर चर्चा और बहस करके कई बिल पास किए। पहले सत्र की उत्पादकता देखकर संसदीय कार्य राज्य मंत्री के तौर पर मुझे बेहद आत्मसंतोष हुआ और मैंने इसके लिये सभी दलों को धन्यवाद भी दिया। लेकिन पहला सत्र दिन के उजियारे जैसा बीतने के बाद दूसरा सत्र विपक्ष के हंगामे के बाद काली रात में बदल गया। दूसरे सत्र में राज्य सभा के कुल 120 में से करीब 117 कार्य घंटे बर्बाद हो गए। इस दौरान लोक सभा की उत्पादकता सिर्फ 4 प्रतिशत और राज्य सभा की 8 प्रतिशत रही।
बजट सत्र के दूसरे चरण में 22 दिन जब धुल गए तो सरकार ने विपक्ष और विपक्ष ने सरकार, दोनों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए कि सदन को किसी ने चलने नहीं दिया। जनता के सामने यह बड़ी कठिन समस्या थी कि भरोसा किस पर किया जाए। यह ठीक है कि सरकार का काम है संसद को चलाना लेकिन अगर विपक्ष अड़ ही जाए कि सदन चलने नहीं देंगे, नारे लगाए, प्ले कार्ड दिखाए, धरने पर बैठ जाए तो सरकार भी कैसे संसद चला पाएगी। 5 मार्च को जब सदन शुरू हुआ तो कांग्रेस की तरफ से नियम 267 के अन्तर्गत कार्य स्थगित करने के लिए नोटिस दिया गया। सरकार बैंकिंग क्षेत्र के मुद्दों, कावेरी विवाद और आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा सहित सभी मुद्दों पर चर्चा के लिये तैयार थी लेकिन विपक्ष खुद चर्चा से भागकर हंगामा करता रहा।
लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखकर जनता फैसला कर सकती है कि सदन को कौन-सी पार्टी चलने नहीं दे रही, कौन-सी पार्टी के सदस्य वैल में पहुंचे हुए हैं और कौन नारेबाजी और हंगामा कर रहे हैं। शायद विपक्ष को लगता है कि उनकी बात मीडिया के माध्यम से सदन के बाहर भी रखी जा सकती है लेकिन समाधान तो सदन में चर्चा से ही निकलता है, न्यूज चैनल के स्टूडियो में बैठकर नहीं।
संसद में घटता कार्य, बढ़ता खर्च: आंकड़ों की तुलना करें तो पता चलता है कि 1952 से लेकर 1967 तक प्रत्येक तीन लोकसभाओं की औसतन 600 दिन बैठकें हुई। लेकिन 15वीं लोकसभा(2009 से 2013) तक मात्र 365 दिन बैठक हुई। पहली लोकसभा में सदन के कामकाज के कुल समय में से 49 फीसदी समय विधेयकों पर चर्चा में लगाया गया था। यह आंकड़ा दूसरी लोकसभा में नीचे गिरकर 28 फीसदी पर आ गया और अब 15वीं लोकसभा में मात्र 23 फीसदी समय विधेयकों पर चर्चा में दिया गया। बैठकों और कामकाज के लिहाज से 14वीं और 15वीं लोकसभा का कार्यकाल सबसे कमजोर कहा जा सकता है। पहली और 15वीं लोकसभा के 61 साल के सफर को बानगी के तौर पर लें तो दिखेगा कि न केवल बैठकों की संख्या और काम के घंटों में, बल्कि करीब हर कामकाज में गिरावट आयी है। चाहे वह प्रश्नकाल हो, विधेयकों पर चर्चा हो या फिर गैर सरकारी कामकाज। बैठकों की संख्या घटने के कारण सदन में कई विधेयकों को बिना पर्याप्त चर्चा के पारित कर दिया गया। संसद की एक दिन की कार्यवाही के संचालन में लगभग 1.57 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इस हिसाब से भी संसद को बाधित करना बड़ा अपराध ही कहा जाएगा
सदन में चर्चा के सिवा कोई रास्ता नहीं: संसदीय कार्यवाही के नियम 255 और 256 के जानबूझकर सदन के कामकाज में गंभीर और लगातार बाधा डालने वाले सदस्य को एक दिन से लेकर पूरे सत्र के लिये निलंबित किया जा सकता है। ऐसा कई मौकों पर हो भी चुका है।
(पंजाब केसरी, 17.04.2018)