विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
केंद्र में बीजेपी सरकार बनने के बाद से ही उसे लेकर आक्रामक रूख अपनाए हुए है। इस वजह से सत्ता पक्ष के साथ अपोजिशन की दूरी बढ़ गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ विपक्षी दलों के स्टैंड से उनकी मंशा का पता चलता है। जस्टिस मिश्रा के खिलाफ लाया गया‘नोटिस ऑफ मोशन फॉर रिमूवल’ यानी जज को हटाने का नोटिसदरअसल अपने अस्तित्व को बचाने को लेकर विपक्ष की जद्दोजहद को दर्शाता है। यह नोटिस देश की पारदर्शी न्याय व्यवस्था पर कांग्रेस और उसके सहयोगियों का ऐसा हमला है, जिसका करारा जवाब जनता देगी। वर्षों केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस की सोच ने न केवल देश के लोगों को निराश किया है बल्कि विदेश में भी देश की छवि ख़राब की है। बहरहाल,कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशको हटाने का जो नोटिसदिया,उसे राज्य सभा के चैयरमेन और उपराष्ट्रपति एम. वैंकया नायडू ने खारिज कर दिया।
आग में घी
संविधान के अनुच्छेद 124(4)के तहत सुप्रीम कोर्ट के जज को उसके पद से हटाने के लिए लोक सभा के 100 या राज्य सभा के कम से कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर होने जरूरी हैं। यह प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद अंत सदन के कुल सदस्यों के आधे और प्रस्ताव के समय उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्यों द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाना अनिवार्य है। आज एक ओर विपक्ष संविधान की कसमें खा रहा है, उसकी दुहाई दे रहा है, पर उसी संविधान की आड़ में ओछी राजनीति कर रहा है। यदि संविधान में निहित प्रावधानों का दुरूपयोग होने लगे तो फिर हमें कुछ संवैधानिक बदलावों की भी जरूरत महसूस होने लगेगी। 545 सदस्यों की लोक सभा और 245की राज्य में कांग्रेस के दोनों सदनों में 40 से 50 सदस्य हैं, पर महाभियोग के नाम से प्रस्ताव ऐसे दिया जा रहा, जैसे बहुमत कांग्रेस के साथ है। कांग्रेसियों को अच्छी तरह पता है कि चैयरमेन प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लेते, तो दोनों सदनों में बहुमत की कमी के कारण यह टिकने वाला नहीं था।
कांग्रेस कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट और खास तौर से चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के फैसलों से असहमति जताती रही है। जज लोया के केस की एसआईटी जांच की मांग ठुकराए जाने ने आग में घी का काम किया और कांग्रेस ने बिना सोचे-विचारे हताशा-निराशा में चीफ जस्टिस के खिलाफराज्य सभा के सभापति को नोटिस भेज दिया। हालांकि स्वयं कांग्रेस पार्टी इस पर एकमत नहीं है।जनता जानती है कि राम मंदिर मामले की सुनवाई कर रही तीन जजों की पीठ के मुखिया जस्टिस दीपक मिश्रा ही हैं। ऐसे में कांग्रेस का उनके ख़िलाफ़ महाभियोग का नोटिस किस इरादे से लाया गया, यह समझा जा सकता है।संविधान निर्माताओं ने जब संविधान की रचना की, तब उन्होंने ऐसे प्रावधान नहीं किए,जिससे कोई विदेशी मूल का व्यक्ति भारत का सांसद और प्रधानमंत्री न बन सके। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन ऐसा भी आएगा,जब एक पार्टी एक विदेशी मूल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना स्वीकार कर लेगी।
ऐसे ही जब राष्ट्रपति,सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट के जजों को हटाने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया,तो उसका मतलब यह नहीं था कि एक या दो पार्टी के सांसद यह जानते हुए भी कि संख्या बल उनके पक्ष में नहीं है, इस पर नोटिस मूव कर सुर्खियां बटोरें। उसके पीछे भावना यह थी कि यदि कभी ऐसा समय आ जाए, जब शीर्षसंवैधानिक पदों पर आसीन लोग मर्यादा से बाहर जाकर सत्ता का मनमाना दुरूपयोग करने लगें, तब जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए सांसद आम सहमति से या कम से कम दो-तिहाई बहुमत से इन्हें हटा सकें। यह सही है कि राज्य सभा के सभापति को जजेस इनक्वायरी एक्ट, 1968 के सेक्शन 3(1)(b) के तहत नोटिस को स्वीकारने याअस्वीकारने का अधिकार दिया गया है, लेकिन इस संदर्भ में केवल यही नहीं देखा जाना चाहिए कि आरोप बेबुनियाद या निराधार हैं या अक्षमताऔर दुर्व्यवहारके अन्तर्गत आते हैं या नहीं, बल्कि यह भी देखा जाना चाहिए कि सदन में और जनता में इन जजों के लेकर ओपिनियन क्या है। संविधान के अनुसारतो आप सदन में 50 सदस्य की गिनती करवा कर लोक सभा में भी अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं। पर ऐसा अविश्वास प्रस्ताव केवल नाटकीय होगा, जिसमें सबको पता है कि आप सत्तारूढ़ दल की तुलना में संख्या बलमें बहुत ही पीछे हैं।
दुविधा में विपक्ष
राज्यसभा सांसदों के लिए हैंडबुक के प्रावधानों के अनुसार जब तक सभापति किसी नोटिस पर निर्णय नहीं कर लेते हैं, तब तक उसका प्रचार और प्रसार नहीं किया जा सकता है। लेकिन कांग्रेस ने इस मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस करके इसके पीछे की राजनीतिक मंशा साफ कर दी। साथ ही नियमों का उल्लंघन भी किया। नोटिस में कोई तथ्य ऐसा नहीं है, जिससे जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ लगाए गए किसी भी आरोप की पुष्टि होती हो। कांग्रेस ने ऐलान किया है कि वह ‘संविधान बचाओ दिवस’ मनाएंगी और चैयरमेन के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगी। उसी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा, जिसके मुख्य न्यायाधीश पर उसने5गंभीर आरोप लगाए हैं।
न्यायपालिका पर हमला करने वाले विपक्षी दल एक और दुविधा में फंस गए हैं। आगे यदि सुप्रीम कोर्ट का कोई भी निर्णय उनके मन मुताबिक नहीं आया तब उन्हें यही लगता रहेगा कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ उनके आरोप पत्र के कारण ऐसा फैसला आया है। कांग्रेस और उसके कुछ गिने चुने साथी अपनी निराशा को संविधान की आड़ देकर संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर न करें।
(नवभारत टाइम्स, 25.04.2018)