विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्यमंत्री हैं)
अटल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना आकाश को आंखों में समेटने के समान है। उनके बारे में जितना कहा जाए, कम है। उनकी विराट जीवन यात्रा का हर पड़ाव इतिहास की एक करवट है। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे वाजपेयी का राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव शुरु से अनन्य था। इसी के चलते वह राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। उसी के माध्यम से राष्ट्र सेवा में जीवन समर्पित कर दिया । इसी कड़ी में 21 अक्टूबर, 1951 में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा स्थापित भारतीय जनसंघ से वह जुड़े। 1957 में भारतीय जनसंघ के चार सांसदों में से एक थे। तब से लेकर देश का प्रधानमंत्री बनने तक अटल जी ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन के असंख्य उतार-चढ़ाव देखे। देश और विदेश में रहने वाले करोड़ों भारतवासियों और भारतवंशियों से मिलकर उन्होंने भारत की आत्मा को गहराई से समझा। यह समझ उनके हर कार्य में दिखाई देती थी। नेहरु-गांधी परिवार के प्रधानमंत्रियों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय इतिहास में उन चुनिंदा नेताओँ में से हैं, जिन्होंने सिर्फ़ अपने नाम, व्यक्तित्व और करिश्मे के दम पर केंद्र में सरकार बनाई। अटल जी का साहित्य जगत भी अपने आप में संपूर्ण था। मानव मन से लेकर समाज के हर मुद्दे पर उनका मौलिक चिंतन तो था ही, उसके प्रति समाधान की दृष्टि भी उनके पास थी।
मेरा सौभाग्य रहा कि बाकी मंत्रालयों की जिम्मेदारी के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री के तौर पर मुझे अटल जी को और भी करीब से देखने का सौभाग्य मिला। वे विषम से विषम परिस्थितियों में भी शांतचित्त और दृढ़ रहते थे। उन्हें हर समय देश की चिंता रहती थी। भारत के सामर्थ्य, शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिये वे हमेशा तत्पर रहते थे लेकिन सिद्धातों से समझौता उन्हें कतई मंजूर नही था। जब 1996 में एनडीए सरकार की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली तो उन्होंने इस पर कोई अफसोस नहीं किया। प्रधानमंत्री बनने का अवसर आम राजनीतिक व्यक्ति को जीवन में बमुश्किल एक बार मिल जाए तो बहुत बड़ी बात है लेकिन अटल जी ने राजनीतिक जोड़तोड़ की बजाए प्रधानमंत्री पद छोड़ना बेहतर समझा।
मुझे 27 मई, 1996 को संसद में दिया उनका ऐतिहासिक भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने भारत की जनता पर भरोसा जताते हुए सिद्धातों से समझौता करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि हम फिर सत्ता में लौटेंगे और वे लौटे भी। फिर से प्रधानमंत्री बनकर लौटे और पूरे पांच साल सरकार चलाकर देश को सुशासन का नया मॉडल दिया।
देश के राजनीतिक इतिहास में यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इससे पहले की सभी गैर कांग्रेसी सरकारें कांग्रेस की बैसाखियों पर थीं और आखिरकार उसके षड़यंत्रों का शिकार होकर असमय गिर गईं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को गिराने की भी भरपूर कोशिशें हुईं। उस समय के हमारे सहयोगी दलों को भरमाया गया, ललचाया गया, लेकिन अटल जी के विनम्र और सबको साथ लेकर चलने के स्वभाव के कारण विपक्ष की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। खुद राजनीतिक पंडित इस बात से हैरान थे कि कैसे कोई गैर-कांग्रेसी सरकार पांच साल चल सकती है।
अटल जी जब भी वे संसद में बोलते थे, पूरा सदन उन्हें एकाग्र होकर सुनने के लिये आतुर रहता था। सब जानते हैं कि खुद पूर्व प्रधानमंत्री उनकी बड़ी प्रशंसक थीं। जब उन्होंने पहली बार संसद में भाषण दिया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि वे एक दिन देश के प्रधानमंत्री अवश्य बनेंगे। मैं विनम्रता से कहना चाहता हूं कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद और फिर भारत रत्न का पुरस्कार मिलना खुद इन पुरस्कारों के सम्मान के बराबर था। अटल जी देश के उन महान नेताओं में से हैं जिनका विपक्ष ने भी सदा सम्मान किया है। संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण से उन्होंने दो बार विश्व पटल पर हिन्दी का परचम लहराया।
आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार अटल जी के बताए सुशासन के रास्ते पर सबको साथ लेकर चल रही है। अटल ने जिस जनसंघ के आधार स्तंभ रहे और जो बाद में भारतीय जनता पार्टी की शक्ल में आई, उसका चुनाव चिह्न दीपक था। अटल जी मेरे तो पितृ पुरुष हैं ही, वे राजनीति, समाज, साहित्य, पत्रकारिता, देश सेवा जैसे विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के लिये भी अनंत प्रकाश देने वाले दीपक हैं। मेरी कामना है कि उनका आशीर्वाद हम सब पर सदा बना रहे। जब भी निराशा मुझे घेरने की कोशिश करती है, अटल जी की कविताएं मुझे नया हौसला देती हैं। उनकी कविता के इस अंश के साथ मैं यह लेख पूर्ण करना चाहता हूं-
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा।