विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं)
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों के आने के साथ ही ईवीएम में गड़बड़ी वाले बयानों का सिलसिला फिर शुरू हो सकता है क्योंकि दोनों ही जगह बीजेपी के जीतने की प्रबल संभावना है। पिछले कुछ समय से विपक्षी दल अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ रहे हैं और उनके लिया यह एक अच्छा बहाना बन गया है। ईवीएम लगातार निशाने पर है, क्योंकि देश की सभी सरकारें और राजनीतिक पार्टियां हर वक्त चुनावी मोड़ में रहती हैं। पूरा देश चुनाव कराने, वोए डालने में ही लगा है। आए दिन चुनाव का ही माहौल रहता है। वैसे ईवीएम की कथित गड़बड़ी को लेकर चुनाव आयोग ने चुनौती दी, मगर कोई गड़बड़ी साबित करने सामने नहीं आया। अदालतों में चुनौती दी जा चुकी है, लेकिन कोर्टों ने भी ईवीएम की निष्पक्षता पर ही मुहर लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल अगस्त में ईवीएम पर चुनाव आयोग के तर्कों से सहमती जताई है। इसके अलावा मद्रास, कर्नाटक, केरल और बॉम्बे हाई कोर्ट भी ईवीएम के समर्थन में फैसले सुना चुके हैं। फिर भी विपक्षी पार्टियाँ मानने को तैयार नहीं हैं। वे बीजेपी की हर जीत को शक की नज़र से देखती हैं।
विरोध के लिए विरोध
क्या कोई पार्टी लगातार चुनाव नहीं जीत सकती ? कांग्रेस तो लम्बे समय तक सत्ता में रही है। क्या माना जाए कि उसने चुनावों में लगातार गड़बड़ की, उन्हें मैनेज किया ? ईवीएम का विरोध करने वाले सिर्फ बीजेपी की जीत देख रहे हैं, वे दिल्ली में ‘आप’ की जीत, बिहार में नीतीश कुमार की जीत और पंजाब में कांग्रेस की वापसी को नहीं देखते। विपक्ष को देखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का मामला है। विपक्ष को विरोध के लिए कुछ नहीं मेल रहा है, तो वोटिंग मशीन ही सही। ईवीएम के ईजाद से पहले चुनाव मतपत्रों से होते थे। क्या तब मतदान में गड़बड़ियों के तरह-तरह के आरोप नहीं लगते थे ?
साल १९७१ में पांचवीं के लिए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गाँधी की अगुआई में कांग्रेस ने 352 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज की। तब बलराज मधोक और सुब्रमण्यम स्वामी ने आरोप लगाया कि बैलेट पेपर में गड़बड़ी की गयी। उनका आरोप था कि मतपत्र मॉस्को से मंगाए गए थे, जिनमें ठप्पा किसी पर लगे, निशान कांग्रेसी चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी पर ही उभरता था। बाकी निशानों से स्याही उड़ जाती थी। इसी तरह पहले आम चुनाव में यूपी की रामपुर लोकसभा सीट पर चुनाव में गड़बड़ी कराने का आरोप जवाहर लाल नेहरू पर लगा था। हिंदूवादी नेता विशन चंद सेठ की स्मृति में प्रकाशित ग्रंथ ‘हिंदुत्व के पुरोधा’ का विमोचन 18 नवंबर, 2005 को हुआ। उसमें राज्य सूचना विभाग के उप-निदेशक रहे शूंभूनाथ टंडन के लेख का शीर्षक था- ‘भइये विशन चंद ने मौलाना आज़ाद को धूल चटाई थी, भारत के इतिहास की अनजान घटना’।
लेख में बताया गया है कि कांग्रेस उम्मीदवार मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को हिंदूवादी नेता विशन चंद ने हरा दिया था। वे विजय जुलूस की तैयारी में थे कि दोबारा मतगणना की सूचना मिली। लेख के मुताबिक़ मौलाना आज़ाद की हार से नेहरू विचलित थे। उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से उन्हें जिताने के लिए कहा। दोबारा मतगणना हुई और मतपत्रों में घालमेल कर विशन चंद को हरा दिया गया। गड़बड़ी के आरोप बढ़ने पर ईवीएम पर भरोसे के लिए वोटर वैरीफ़िकेशन पेपर ऑडिट ट्राइल यानी वीवीपेट से जोड़ा गया है। इससे वोटर देख सकता है कि उसने जो बटन दबाया, वोट वहीँ गया है। भारतीय वोटिंग मशीनें नेपाल, भूटान, नामीबिया, केन्या को निर्यात की गई हैं। कई और देश इनमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वोटिंग मशीन से चुनाव कराने से 10 हज़ार टन से ज्यादा काग़ज़ की बचत होती है। इतने काग़ज़ की बचत यानी बड़े पैमाने पर वृक्षों का बचाव यानी पर्यावरण में सुधार।
औरों जैसे क्यों हों?
आलोचक कहते हैं कि दुनिया के ज़्यादातर देश चुनाव मशीनों से नहीं कराते। भारत समेत केवल 24 देश चुनावों में किसी न किसी रूप में मशीनें इस्तेमाल करते हैं। ये देश हैं- भारत, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, कनाडा, ब्राज़ील, फिनलैंड, एस्टोनिया, फ्रांस, जर्मनी, इटली, आयरलैंड, कज़ाख़स्तान, नीदरलैंड, लिथुआनिया, नॉर्वे, रोमानिया, फ़िलीपीन्स , दक्षिण कोरिया, स्पेन, यूएई, स्विट्ज़रलैंड, ब्रिटेन, स्कॉटलैंड और वेनेजुएला। जर्मनी समेत कुछ देश मशीन प्रणाली से मतपत्रों पर लौट आए हैं। हो सकता है कि सभी जगहों पर प्रणाली सही नहीं हों। अमेरिका में बहुत सी वोटिंग मशीनें इंटरनेट से जुड़ी हैं, जिससे घर बैठे वोटिंग हो सके। ऐसी प्रणाली में गड़बड़ी संभव है। लेकिन भारत में ईवीएम इंटरनेट विहीन है, इसलिए हैकर कुछ नही कर सकते। मशीनी युग में आकर हम ताड़-पत्रों के युग में लौटने की बात करें तो यह हास्यास्पद है। ऐसे तो ईवीएम के विरोधी कल देश की आधुनिक बैंकिंग प्रणाली समेत वैज्ञानिक आविष्कारों के ज़रिए हो रहे सभी विकास कार्यों का विरोध करेंगे। क्या यह सही है? बेहतर होगा कि अपोजिशन पार्टियाँ यथार्थ को स्वीकार करें। ईवीएम पर आरोप लगाने से बेहतर है कि वे जनता के बीच जाएँ और लोगों का विश्वास अर्जित करने की कोशिश करें। उन्हें समझना चाहिए कि जनता में जागरूकता बढ़ रही है। लोगों की हर चीज पर नजर है और वे सब कुछ समझ रहे हैं।