Vijay Goel

हर कोई करे पृथ्वी को बचाने का काम

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री हैं)

घर-परिवार में किसी बच्चे को जरा सा भी बुखार आ जाए, तो माता-पिता सारे काम छोड़ कर उसे डॉक्टर के पास लेकर दौड़ते हैं। कीमत कुछ भी हो, डॉक्टर की लिखी दवाएं लेते हैं और बताए गए दूसरे उपाय भी करते हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि हम इस तरफ से आंखें मूंदे बैठे हैं कि हमारी धरती और हमारा पर्यावरण धीरे-धीरे मरता जा रहा है। धरती पर जीवन की संभावना ही खत्म होती जाएगी, तो हमारी भौतिक चमक-दमक का क्या होगा ? यह सवाल पता नहीं दुनिया के सभी बाशिंदों को परेशान क्यों नहीं करता ? हर साल पांच जून को पूरी दुनिया में पर्यावरण दिवस मनाया जाता है और इस दिन बहुत से औपचारिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दुनिया भर की सरकारें संकल्प लेती हैं, कार्यक्रम घोषित किए जाते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों को लगता है कि इससे उनका कोई सरोकार नहीं है। सच्चाई यही है कि वैश्विक भूमंडल तब तक सेहतमंद नहीं रह सकता, जब तक  धरती पर रहने वाले सारे मनुष्य अपनी नागरिकीय जिम्मेदारी निभाना शुरू नहीं करते।

दुनिया की सेहत
पर्यावरण और अन्य  गंभीर विषयों पर शोधपरक सामग्री छापने वाली पत्रिका ‘नेचर’  के विशेषांक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि धरती पर इंसानी जीवन खत्म होने की तरफ बढ़ रहा है। ऐसा पहली-दूसरी नहीं, बल्कि छठी बार होने जा रहा है। चेतावनी यह भी दी गई है कि धरती पर रहने वाले स्तनधारियों तथा पानी और हवा में जीवन व्यतीत करने वाले जीवों के अस्तित्व पर संकट इस बार पिछली पांच बार के मुकाबले ज्यादा तेजी से नजदीक आ रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में 50 हज़ार साल पहले, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में 10 से 11 हज़ार साल पहले और यूरोप में तीन हज़ार से 12 हजार साल पहले इंसानी छेड़छाड़, शिकार, दूसरी कुदरती आपदाओं और जलवायु में बदलाव की वजह से बड़े पैमाने पर जीवन विलुप्त हुआ है।

तीन हजार साल पहले तक दुनिया दुनिया में मौजूद स्तनधारी प्रजातियों में से करीब आधी समूल नष्ट हो चुकी हैं। धरती पर पिछले 50 साल के दौरान इंसानों की आबादी में 130 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2060 तक दुनिया की आबादी 10 अरब से ज्यादा होने का अनुमान है। दुनिया की आबादी बढ़ने के साथ ही लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए हर स्तर पर संसाधनों में कमी आ रही है। खेती की जमीन लगातार कम होती जा रही है। जमीन के नीचे मौजूद पानी का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है। जैविक संसाधनों का दोहन बहुत ज्यादा होने लगा है। खाद्यान्न के उत्पादन में असंतुलन आता जा रहा है। इस बारे में वैश्विक स्तर पर संकल्प नहीं किए गए, तो कुदरत से मिलने वाले सभी लाभों में भारी  कमी हो जाएगी।

ऐसा नहीं है कि लोगों ने इस तरफ सोचना और उस पर अमल करना शुरू नहीं किया है, लेकिन जितना काम होना चाहिए, उतना नहीं हो रहा है। इसके लिए हममें से हरेक नागरिक को अपने स्तर पर काम शुरू करना होगा। बहुत छोटे-छोटे काम करके, बहुत छोटे-छोटे फैसले कर हम धरती को बचाने का दायित्व निभा सकते हैं। सप्ताह में एक दिन व्रत रखें, एक दिन क्यारियों को न सींचें, एक दिन कूलरों में पानी न डालें, एक दिन सार्वजनिक वाहनों से ही चलने का संकल्प लें, एक दिन या कुछ घंटे ए.सी. न चलाएं, आसपास कूड़ा-कचरा न खुद जलाएं और न किसी को जलाने दें, ऐसे बहुत से काम हैं, जो आसानी से किए जा सकते हैं और इन्हें करने के लिए आपको किसी की मदद की भी नहीं लेनी होगी।

हमारे समाज में एक और प्रवृत्ति घर करती जा रही है कि हम जरूरत से ज्यादा खाद्य सामग्री बना लेते हैं और अगले दिन उसे कूड़े में फेंक देते हैं। होटलों, रेस्टोरेंटों में भी बड़े पैमाने पर खाने की सामग्री की बर्बादी की जाती है। अभी बहुत सी संस्थाएं इस बेकार हो चुके खाने का इस्तेमाल रोटी बैंक  या अन्य तरीकों से समाज के भूखे लोगों को खिलाने के लिए करने लगी हैं, लेकिन अगर हम घर पर ही स्वयं को संयत कर लें, तो बहुत सा खाना बचाया जा सकता है। खाना ज्यादा नहीं बनेगा, तो हो सकता है कि हम हफ्ते में एक दिन फ्रिज भी बंद रख सकें। ये ऐसे उपाय हैं, जिन्हें अपना कर हम दुनिया की सेहत सुधारने  में योगदान दे सकते हैं। सोचेंगे, तो और भी बहुत से उपाय आपके जेहन में आएंगे।

कहाँ हैं पक्षी
लोगों को लगता है कि पर्यावरण दिवस का संदेश केवल वृक्षारोपण है। वृक्ष तो लगने ही चाहिए, लेकिन और भी  बहुत कुछ करना होगा। सरकारें तो अपने स्तर पर कोशिशें करती ही हैं, लोग भी अगर अपनी जिम्मेदारी समझेंगे, तभी असली मकसद हासिल किया जा सकता है। गौर कीजिए, अपने घर के आसपास, मुंडेर पर, पेड़ों पर आपने किसी पक्षी की आवाज कितने दिनों से नहीं सुनी है ? पहले तो पक्षियों के मुंडेर पर बोलने को लेकर कहावतें भी थीं, लेकिन अब कहावतें छोड़िए, पक्षी ही दिखाई नहीं देते। पित्र पक्ष में कौवों को भोजन कराने का रिवाज है, लेकिन वे आसपास से गायब हो चुके हैं। पुराने घरों में गौरेया घोंसले बना लेती थीं, तो घर वाले उन्हें उड़ाते नहीं थे। छतों पर हरे-हरे तोतों के झुंड नजर आते थे। लेकिन अब यह सब बदलता जा रहा है। अगर हमें अपने इस घर यानी दुनिया को बचाना है, तो बहुत कुछ सोचना और करना होगा। चलिए आज से ही नई शुरूआत करते हैं।

 

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My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.

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