विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
अक्सर मैं सोचता हूं कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हम कैसे-कैसे मुद्दों पर सियासत करने को मजबूर हैं। हम संविधान के हिसाब से देश चला रहे हैं। संविधान निर्माताओं के सामने जो हालात नहीं थे, उनके बनने पर हम संविधान में सवा सौ के क़रीब संशोधन भी कर चुके हैं। फिर भी बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर अगर लोकतंत्र की बहुत सी ऊर्जा दो तिहाई सदी गुज़र जाने के बाद भी ख़र्च हो रही है, तो अफ़सोस की बात है।
असल परेशानी की बात यह है कि ये ऐसे मुद्दे हैं, जो संवैधानिक स्तर पर पेचीदा हरग़िज़ नहीं हैं, बल्कि रोज़मर्रा के हमारे खान-पान, पहनावे, बोल-चाल, तीज-त्यौहार, पूजा-पाठ यानी हमारे सामाजिक बर्ताव से ही जुड़े हैं। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि सभी राजनीतिक पार्टियां संसद के अंदर या बाहर एक बार मिल-बैठकर इनका स्थाई समाधान निकाल लें, एक सीमा-रेखा खींच लें और फिर बार-बार होने वाले बवाल से बच-बचाकर देश के विकास की सियासत करें।
पिछले दिनों महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का मुद्दा छाया रहा। सभी धर्मों के विद्वान इस मसले पर एक साथ बैठकर विचार क्यों नहीं कर सकते? वैसे मेरी राय में तो ये मसला विचार किए जाने लायक भी नहीं है। जब पूरी दुनिया महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रही है, और हमारे देश में भी पढ़े-लिखे समाज का नज़रिया भी यही है, तो फिर दिक्क़त क्या है? महिलाएं मंदिरों या कहूं कि तमाम धर्मों के पूजा स्थलों, इबादतगाहों में क्यों नहीं जा सकतीं? मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ पर भी एक बार देशव्यापी बहस हो जाए और फिर जो मौजूदा समाज के लिए सही है, वह तय कर लिया जाए।
मुस्लिम महिलाओं के काज़ी बनने के मसले पर भी इसी तरह फ़ैसला कर लिया जाए। इसी साल फ़रवरी में राजस्थान में अफ़रोज़ बेग़म और जहांआरा के काज़ी बनने के ऐलान पर मुस्लिम संगठनों ने विरोध जताया था। दोनों महिलाओं ने मुंबई के दारुल उलूम निस्वान से काज़ी बनने का दो साल का प्रशिक्षण बाक़ायदा हासिल किया है, लेकिन कुछ मुस्लिम संगठनों का कहना है कि कोर्स करना तो सही है, लेकिन वे काज़ी की भूमिका नहीं निभा सकतीं। उन्हें निकाह और मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने का हक़ नहीं है। इसी तरह का एक मसला पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सामने आया था।
एक शिया महिला काज़ी ने एक सुन्नी जोड़े का निकाह पढ़ाकर नई मिसाल तो पेश कर दी, लेकिन कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं के गले ये बात नहीं उतरी। महिला काज़ी डॉ. सईदा हमीद ने महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली नाइश हसन का निक़ाह दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने वाले इमरान नईम से कराया था। लेकिन सुन्नी धर्मगुरु इसके ख़िलाफ़ हैं और इसे शरीयत के ख़िलाफ़ क़रार दे रहे हैं।
मेरा मानना है कि इसी तरह के तमाम मसले शिया-सुन्नी धर्मगुरु एक मंच पर बैठकर प्रोग्रेसिव नज़रिए से तय क्यों नहीं कर लेते? पहले हम लंबे समय से चले आ रहे मसलों पर एक राय बना लें और फिर जब नए मसले आएं, तो फिर मिल-बैठ कर एक कोई हल निकाल लिया जाए।
इसी तरह, पिछले दिनों गौमांस और बीफ़ को लेकर काफ़ी बवाल देश में एक बार फिर हो चुका है। उस दौरान तमाम पहलुओं पर सरकार, विपक्ष, हिंदू- मुस्लिम-सिख- ईसाई समुदायों के नज़रिये सामने आए थे, लेकिन संविधान और भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा होने के बावजूद सामाजिक स्तर पर कोई एक राय देश के सामने नहीं आई। अब भी ऐसे कई मामले अदालतों में हैं। छह मई को ही बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र में गौमांस और बीफ़ को लेकर अहम फ़ैसला सुनाया है। इसके तहत हाईकोर्ट ने राज्य में गौवंश के वध पर पाबंदी को तो सही ठहराया है, लेकिन राज्य के बाहर से लाए गए बीफ़ के सेवन को ग़ैर-क़ानूनी नहीं माना है। हाईकोर्ट ने तो फ़ैसला सुना दिया है, लेकिन बीफ़ डीलर एसोसिएशन ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बनाया है। महिलाओं के इबादतगाहों में जाने का मसला हो, तीन तलाक़, महिला क़ाज़ी जैसे मसले हों या फिर मांसाहार का मामला या फिर धार्मिक आयोजनों में पशु-बलि का मुद्दा, ये सब हैं तो सामाजिक या धार्मिक मामले, लेकिन इन्हें तय करने के लिए देश की न्यायपालिका पर अक्सर काफ़ी दबाव रहता है। ऐसे में जबकि अदालतों पर बढ़ते बोझ और जजों की कमी का ज़िक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की आंखें डबडबा जाती हों, तब कम से कम इस तरह के मामले अदालतों तक नहीं जाएं, यही मुनासिब होगा।
मगर इसके लिए सामाजिक स्तर पर माहौल बनेगा कैसे, यह बड़ा सवाल है। जिस दिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीफ़ को लेकर फ़ैसला सुनाया है, उसी दिन इत्तेफ़ाक से वॉशिंगटन से एक शोध रिपोर्ट मांसाहार को लेकर जारी हुई है।
प्रसंगवश, इसका ज़िक्र करना ज़रूरी लग रहा है। रिपोर्ट कहती है कि रोज़ाना मांसाहार जिंदगी को कम कर देता है। मायो क्लीनिक के शोधकर्ताओं ने 15 लाख मांसाहारी और शाकाहारी लोगों पर सर्वे किया। जर्नल ऑफ़ द अमेरिकन ऑस्टियोपैथिक एसोसिएशन में प्रकाशित सर्वे के नतीजों के मुताबिक़ 17 साल तक शाकाहारी भोजन लगातार किया जाए, तो व्यक्ति की उम्र में साढ़े तीन साल का इज़ाफ़ा हो जाता है।
बहरहाल, मैं यहां शाकाहार के पक्ष या मांसाहार के ख़िलाफ़ कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। किन्तु यह ज़रूर चाहता हूं कि किसी भी तरह तमाम उन सामाजिक मसलों पर कोई आम राय बननी चाहिए, जो बार-बार सामने आते हैं और कई बार तो हिंसक रूप में। देश में सामाजिक मसलों पर कोर्ट-कचहरियों के मुक़ाबले धर्मगुरुओं की राय का ज़्यादा सम्मान होता रहा है। देश में अगली जनगणना वर्ष 2021 में हो सकती है। जिसके आधार पर 2026 में लोकसभा सीटें बढ़ने की संभावना है।
अगली जनगणना में हर धर्म में महिला अधिकारों, सामाजिक स्तर पर उठने वाली कुछ समस्याओं को लेकर देश के लोगों की राय जुटा सकते हैं। वह राय भले ही हमारे संवैधानिक ढांचे के तहत बाध्यकारी नहीं हो सकती, लेकिन धर्म और समाज के ठेकेदारों पर दबाव तो बना ही सकती है। हमारे संसदीय लोकतंत्र की आंखें तो खोल ही सकती है।