Vijay Goel

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युगपुरुष वाजपेयी जी, मेरे लिए सबसे के संग्रह की पहली पुस्तक

कभी-कभी में मेरे दिल में ख्याल आता है कि आप होते तो ऐसा होता………

युगपुरुष वाजपेयी जी, मेरे लिए सबसे अहम थे और हमेशा रहेंगे। उनका हम सभी को छोड़कर चले जाने पर महसूस हो रहा जैसे एक युग का अंत हो गया है। मेरे लए वह पिता तुल्य थे, वह मुझे डांटते थे, तो बाद में समझाते और दोबारा पूरी ताकत से काम पर जुटने के लिए मैं उनके कार्यकाल में पीएमओ में मंत्री था। इस दौरान अक्सर उनके साथ यात्रा पर जाने का अवसर मिलता था। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मेरी हर छोटी बड़ी सभा से लेकर व्यक्तिगत कार्यक्रमों में भी वह अपनी व्यस्तता में से समय निकालकर पहुचते थे। शायद उनसे अपनेपन की वजह ही मैंने अधिकारपूर्वक उनकी कविताओं के संग्रह की पहली पुस्तक प्रकाशित कराई थी। नरसिम्हा राव सरकार के समय उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई थी। वह हमेशा एक बात कहते थे कि उनके जीवन का मूल उद्देश्य है कि भारत को महान देश के रूप में देख सकें। उन्होंने अपनी इसी बात को संसद में उस समय भी कहा था, जब महज एक चोट के कारण सरकार भंग हो गई थी। उस समय में पीएम वाजपेयी जी ने कहा था कि वह खाली हाथ रहकर भी देश के उत्थान और उसे महान बनाने के लिए अंतिम सांस तक प्रयास करते रहेंगे। इसे संयोग कहा जाए या कुछ और कि वह मुकेश और लता द्वारा गाया गीत, कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है और एसडी बर्मन का ओ रे मांझी..को सबसे अधिक पसंद करते थे। और आज जबकि वह हमारे बीच से चले गए हैं तो लगता है,जैसे पसंदीदा  गीतों की तर्ज पर ही सभी को छोड़कर दुनियासे कूच कर गए हैं और अब हम सभी के दिल में भी अब यह बात उभर रही है, ख्याल आता है कि, वह होते तो ऐसा होता…। वह इस बात पर भी बेहद खुश होते थे कि उन्होंने यूएन असंवेली में हिन्दी में भाषण दिया, जबकि उनसे पूर्ववहां भाषण देना भी स्वप्न सरीखा समझा जाता था। वाजपेयी जी कई बार आडवाणी जी की बातों पर नाराजगी भी जताते थे, लेकिन वह उनके सबसे खास दोस्त थे। आडवाणी जी के अलावा भैरव सिंह शेखावत, जसवंत सिंह और डा.मकुंद मोदी भी उनके करीबी मित्र रहे, जिनसे वह भाजपा सरकार के कार्यकाल में कई बार अहम विषयों पर भी चर्चा कर लेते थे। आडवाणी जी की रथ यात्रा से लेकर उप प्रधानमंत्री तक के सफर, में वह हमेशा साथ ही रहे। खाने-पीने और घूमने के वह काफी शौकीन भी थे, वह कहते भी थे कि जीवन के हर पल को पूरी गंभीरता से बिताना चाहिए।दिल्ली की परांठे वाली गली हो या फिर सागर और चुंगवा यहां जाने पर वह खाए बिना नहीं रह सकते थे।खाने में मछली, चाइनीज, खिचड़ी और मालपुआ होने पर वह खुद को रोक नहीं पाते थे। अक्सर छुट्टियां बिताने के लिए उन्हें या तो मनाली सबसे पसंद था या फिर वह अल्मोड़ा, माउंट आबू में अपना अवकाश गुजारना पसंद करते थे। सही कहूं तो वाजपेयी जी की सोच, कविताएं, दूरर्दिशता और राजनीतिक कौशल हमेशा सभी का मार्गदर्शन करेगा। एक तरफ तो अटलजी ने विपक्ष के पार्टी के प्रमुख के रूप में एक आदर्श विपक्ष की भूमिका निभाई वहीं दूसरी ओर उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में देश को निर्णायक नेतृत्व भी उपलब्ध कराया।

नवोदया टाइम्स 17 अगस्त 2018 

मजाक बन रहा माफी मांगना

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

पहले दूसरों को बदनाम करने के लिए झूठे एवं बेबुनियाद आरोप लगाओ, खूब प्रचार पाओ और जब लाखों करोड़ों के मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़े तो फिर एक दिन कह दो कि हम अपना कीमती समय बचाने के लिए माफी मांग रहे हैं। यह सिलसिला इसलिये ठीक नहीं है क्योंकि माफी सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक ऐसा भाव है जो किसी व्यक्ति द्वारा की गई गलती का प्रायश्चित्त करने के अहसास से उभरता है। दिखावे के लिये या फिर अदालती मुसीबत से बचने के लिये माफी मांगना एक तरह से माफी शब्द की गरिमा को कम करना है। एक समय मांगने वाला शर्म से जमीन में गड़ जाता था। माफी मरण समान मानी जाती थी। कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति दूसरे को बेवजह बदनाम करता है और उस पर अनर्गल और आधारहीन आरोप लगाता है। अगर आरोप लगाने वाला जानी मानी शख्सियत होता है तो मीडिया भी उसके आरोपों को खूब महत्व देता है। बहुत होता है तो कभी कभी पीड़ित का पक्ष भी आ जाता है, लेकिन इतने मात्र से वह आरोपों से मुक्त नहीं होता। ऐसे में पीड़ित के पास अपनी बेगुनाही साबित करने का एक ही माध्यम रह जाता है और वह है अदालत की शरण में जाना।

यह साफ है कि यदि मानहानि के मामले अदालतों में न पहुंचें तो कोई माफी मांगने की जहमत ही नहीं उठाए। माफी मांगने और माफी मिल जाने पर कानूनी तौर पर मामला भले ही समाप्त हो जाता हो, लेकिन अदालतों का जो अच्छा खासा समय बरबाद होता है उसकी भरपाई नहीं होती। क्या अदालतों के वक्त की कोई कीमत नहीं? अच्छा हो कि माफ करने वाले इतनी आसानी से माफी न दें। वैसे भी माफी इसी भाव से अधिक दी जाती है चलो पिंड छूटा। यह ठीक वैसे ही है जैसे कभी कोई भिखारी पीछा न छोड़े तो उसे भीख देकर पिंड छुड़ा लिया जाता है। जैसे यह दिल से दिया गया दान नहीं होता वैसे ही मानहानि के मामलों में माफ करने के प्रसंग भी दिल से माफी देने के नहीं कहे जा सकते।

आखिर हमारे नेता भावी पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं? पहले बच्चों या फिर भगवान की कसम खाने वालों पर लोग भरोसा करते थे लेकिनअब भला कसमें खाने वालों पर  कौन भरोसा करेगा? माफी को इतना हल्का बना दिया गया है कि अब माफी मांगनाएक मजाक सा हो गया है। पहले बेबुनियाद आरोप लगाने और फिर बाद में माफी मांगने वालों के प्रति अदालतों को सख्ती दिखानी चाहिए। अदालतें जनता के पैसों से चलती हैं। उन पर मुकदमों का भारी बोझ है। जब देश के लाखों लोग न्याय की आस में अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं तब अदालतों और जनता का वक्त बरबाद करने वाले माफी के मामलों को खत्म करना ठीक नहीं। क्या यदि कल कोचोर और जेबकतरे भी अपनी करनी की माफी मांग लें तो उन्हें बिना सजा दिए या जुर्माना लगाए माफी दी जा सकती है? आखिर अदालतों के कीमती वक्त की बर्बादी का हर्जाना आम जनता क्यों चुकाए?

इन मुकदमों की जगह दूसरे मुकदमों में इतना समय लगाया जाता को कई जरूरतमंदों को न्याय मिलता, लेकिन यहां तो एक आदमी ने दूसरे आदमी को गाली दी। दूसरे ने लाखों-करोड़ों का मुकदमा ठोक दिया तो पहला शख्स कुछ समय तक अपने आरोपों पर अड़ा रहा और फिर कुछ समय बाद बोला कि मैंने गलत या आधारहीन बात कही थी। मैं माफी मांगताहूँ। आखिर यह क्या बात हुई? आमतौर पर उस माफी इसलिये मिल जाती है, क्योंकि माफ करने वाले को भी लगता है किउसकी जीत हुई है इसी के साथ मामला समाप्त हो जाता है। क्या यह उचित नहीं कि अदालतें पहले आरोप और फिर मांफी मांगने वालों पर इसलिए जुर्माना लगाएं, क्योंकि उन्होंने अदालत का समय बर्बाद किया और समय की इस बर्बादी से जनता के पैसे का नुकसान हुआ।

ध्यान रहे कि जब यह देखने को मिला कि जनहित याचिकाओं के नाम पर कुछ लोग अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं और कोर्ट एवं जनता का अमूल्य समय बेकार के बातों में पड़ने से बर्बाद हो रहा है तो निराधार और बिना जन सरोकार वाली याचिकाओं को दाखिल करने वालों पर जुर्माना लगने लगा। जैसे फालतू की जनहित याचिकाएं दाखिल करने वालों पर जुर्माना लगने लगा है वैसे ही उन पर भी लगना चाहिए जो माफी मांगकर अदालतों का समय जाया करते हैं। अदालतों का अर्थ केवल न्यायाधीशों से नहीं है। वे एक व्यापक व्यवस्था का हिस्सा होती हैं और यह व्यवस्था सरकार यानी हमारे-आपके टैक्स के पैसे से संचालित होती है। ऐसे में माफी मांगने के साथ ही मामले को खत्म करना एक तरह से जनता को ठगना है। ध्यान रहे कि मानहानि के कुछ मामलों में दिन-प्रतिदिन सुनवाई होती है क्योंकि उन्हें गंभीर मामला माना जाता है। क्या यह मान लिया जाए कि माफी मांगने के साथ ही ऐसे मामलों की सारी गंभीरता खत्म हो जाती है?

यह भी ध्यान रहे कि पहले अनर्गल आरोप लगाने वाले बाद में माफी मांगकर यह भी दिखाते हैं कि उन्होंने माफी मांगने का साहस दिखाया। सच यह है कि माफी मांगने वाले उस अपराधीकी तरह हैं जो आदतन अपराध करते रहते हैं और रह-रह कर जेल जाते रहते हैं। चूंकि माफी मांगने वालों के बारे में इसकी कोई गारंटी नहीं कि वे भविष्य में फिर किसी पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उसे बदनाम करने का काम नहीं करेंगे इसीलिये माफ करने वालों और साथ ही अदालतों को उन्हें यूं ही नहीं छोड़ देना चाहिए। ऐसे लोगों को मजा चखाया जाना चाहिए। आज जब आरोप लगाकर फिर माफी मांग लेने के मामले सामने आ रहे हैं तब यह याद आता है कि अपने देश में तमाम ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंनेशीश कटवा दिए, लेकिन अपनी बात से डिगे नहीं। आज स्थिति यह है कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्ति यह साबित कर रहे हैं कि उनकी बातों का कोई मूल्य-महत्व नहीं और वे दूसरों पर कीचड़ उछालने और फिर माफी मांगकर भाग जाने में माहिर हैं।

(दैनिक जागरण, 22.05.2018)

इफ्तार क्यों बने राजनीति का अखाड़ा

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

बचपन से मैं एक हैरिटेज प्रेमी रहा हूं। हैरिटेज सिटी होने के कारण चांदनी चौक से मेरा नाता बचपन से जुड़ा रहा। उसके बाद मुझे वहां से दो बार सांसद बनने का मौका मिला। वहां रहते हुए मैंने पुरानी दिल्ली की गंगा-जमुनी तहज़ीब देखी और मुझे हिन्दू तीज-त्योहारों के साथ-साथ मुस्लिम त्योहारों को भी नजदीक से देखने का मौका मिला।

जहां हिन्दुओं में लगभग हर दिन एक त्योहार होता है और पूरे साल होली, दिवाली वे अन्य त्योहार चलते रहते हैं वहीं मुस्लिमों और ईसाईयों में दो-तीन ही बड़े त्यौहार कहे जा सकते हैं। ईसाईयों मेंक्रिसमस, गुड फ्राइडे व ईस्टर और मुसलमानों में साल में दो बार ईद और रमजान का महीना जिसे त्योहार कम उपासना ज्यादा कहा जाना चाहिए। इस्लाम में ईद चांद को देखकर मनाई जाती है और मैंने देखा कि ईद में भी होली, दिवाली की तरह ही बाजार सजे होते हैं और बच्चे नए-नए कपड़े पहनकर इतराते हुए इस त्योहार को मनाते हैं।

मैंने बचपन से ही पढ़ा था कि इस्लाम में रमजान का महीना बहुत महत्वपूर्ण होता है। ऐसा माना जाता है कि इसी महीने में अल्लाह ने पैगम्बर मोहम्मद पर पवित्र कुरान अवतरित की थी। इसलिए इसे खुदा की दया और उदारता का महीना माना जाता है। एक मान्यता यह भी है कि नियमपूर्वक रोजा रखने वाले मुसलमानों पर अल्लाह की मेहरबानी खुशहाली और सम्पन्नता के रूप में बरसती है। उनका बड़े से बड़ा गुनाह खुदा माफ कर देता है। एक पक्का मुसलमान पूरे दिन रोज़ा रखने के बाद इफ्तार खोलने से पहले इबादत करते हुए कहता है कि ‘ऐ अल्लाह! मैंने आपके लिए रोज़ा रखा है, मैं आप में विश्वास रखता हूं और मैं आपकी मदद से अपना रोज़ा खोलता हूं।’ मुस्लिम मत के अनुसार इफ्तार अल्लाह में विश्वास रखने वालों के लिए दो नमाजों के बीच माफी मांगने, आत्मविश्लेषण एवं प्रार्थना करने के लिए होता है।

इसलिए मैं इसको त्योहार न कहकर नवरात्र के व्रतों से भी अधिक कठिन व्रत समझता हूं। रमजान को मैं बहुत त्याग औरतपस्या वाला महीना मानता हूं। पर आजकल कुछ लोगों ने रमजान में रोज़ा (व्रत) रखने कोधार्मिक कार्य की बजाय राजनीतिक प्रहसन बना दिया है। रमजान के महीने में हर दिन जगह-जगह रोज़े के बाद इफ्तार पार्टियां होने लगी हैं। चांदनी चौक से दो बार सांसद रहते हुए मैंने कभी राजनीति के लिये इफ्तार पार्टी नहीं दी, जबकि मेरे ऊपर काफी दबाव था।इसके बावजूदमैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वहां के मुसलमान कभी मुझसे नाराज नहीं हुए और आज भी मुझे सबसे अच्छा सांसद मानते हैंजिसने अपने दोनों कार्यकाल में सभी समुदायों के लिए बराबर और सबसे बढ़िया काम किया। मैंने कभी रोज़ों को इफ्तार पार्टी करके
राजनीति से नहीं जोड़ा। हां, मैं ईद मिलन जरूर करता था और पूरे उल्लास से करता था।

यह साफ है कि रोज़ा इफ्तार पार्टियों का आयोजन करने वाले नेता केवल मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने के लिए ऐसा करते हैं। यदि ये कार्यक्रम विभिन्न समुदायों के बीच आपसी सद्भाव को बढ़ाने की नीयत से आयोजित हों तो अलग बात है,लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं होता। रोचक बात यह है कि राजनीति में इफ्तार पार्टी देने की प्रथा पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते आरंभ हुई, जब वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुख्यालय में इफ्तार पार्टी करते थे और उस वक्त,जब मुस्लिम समुदाय का रोज़ा खोलने का वक्त होता था। 1970 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा और फिर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी औरराजीव गांधीने इफ्तार पार्टियों का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया। ये इफ्तार पार्टियां एक तरह से दिल्ली के सामाजिक कलैण्डर का हिस्सा बन गईं।

अटल जी जब प्रधानमंत्री थे, तब मैं नहीं चाहता था कि यह दिखावा हो। पर लगा कि भाजपा के प्रधानमंत्री आने के बाद यह संदेश न जाए कि किसी समुदाय की उपेक्षा हुई। इतने सालों से राजनीतिक दल ही नहीं, राज्य सरकारेंभी इफ्तार पार्टियां कर रही हैं जिसमें जनता का पैसा खर्च होता है। जनता के मन में हमेशासे यह प्रश्न है कि सरकारें एक समुदाय के धार्मिक पवित्र त्योहार को मनाकर क्या संदेश देना चाहती हैं?

सबसे बड़ी बात मेरे मन में यह रही कि व्रत के महीने में पार्टियां क्यों हो रही हैं और जिन लोगों ने रोज़े नहीं रखे हैं, खास तौर से हिन्दू, वे इसमें शामिल क्यों हो रहे हैं? साथ ही जिन मुस्लिमों ने रोज़े नहीं रखे, वे भी रोज़ा खोलने में क्यों शरीक हैं?हिन्दुओं का इन व्रतों में आना और खाना तो बिल्कुल समझ नहीं आता। इफ़्तार के सिलसिले में धार्मिक निर्देश है कि किसी ऐसे आदमी को इफ़्तार की दावत देंगे, जो आपका जानकार हो, तो आप महसूस करेंगे कि आपके रिश्ते और मज़बूत हो गए हैं। कोशिश करें कि घर के सारे लोग एक साथ मिलकर इफ़्तार करें। इसमें घर पर जोर दिया गया है।

इफ्तार पार्टीबाजी, राजनीतिक गठबंधन को बनाने-तोड़ने या शक्ति प्रदर्शन के लिए नहीं है। यह तो दो प्रार्थनाओं के बीच के समय में आत्म मंथन करने का सुनहरा मौका देता है।इसीलिये जो लोग इफ्तार पार्टियां देकर खुश हो रहे हैं, उसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।आजकल तो इफ्तार पार्टियों में सभी दलों के नेताओं को आमंत्रित करके अपनी ताकत दिखाने की कोशिश होती है। देश में राष्ट्रपति, उप- राष्ट्रपति औरप्रधानमंत्री भी इफ्तार पार्टी करते रहे हैं पर इन बड़े पदों पर बैठे लोगों ने कभी होली और दिवाली मिलन किया हो, ऐसा ध्यान नहीं आता। इफ्तार में गैर मुस्लिम नेता टोपी और साफा पहनकर अपने को धन्य समझते हैं और कई बार दुआओं के लिए इस तरह हाथ फैलाते हैं, जैसे उन्होंने भी नमाज अता की हो। यह कहां जरूरी है कि किसी धर्म के लोगों से मिलने और उनके उत्सव में शामिल हाने के लिए उन जैसा लिबास पहनकर शामिल हुआ जाए?

अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार ने राजनीतिक प्रपंच की इस प्रथा पर लगाम लगाई है और मैं नहीं समझता कि मुस्लिम समाज ने इसे अन्यथा लिया होगा। रोज़ा तो उसी का खुलवाया जाता है, जिसने पूरे दिन रोज़ा रखा हो।जब किसी ने रोज़ा ही नहीं रखा तो उसको इफ्तार पार्टी में बुलाकर रोज़ा खुलवाना उस व्यक्ति व धार्मिक रीति को नीचा दिखाना नहीं तो क्या है? क्योंकि जिसने रोज़ा नहीं रखा, वह भी ऐसा दिखा रहा है, जैसे उसने रोज़ा रखा हो। खास तौर से कुछ मुस्लिम नेतागण।
रमज़ान में रोज़ा एक अहम इबादत है। इफ्तार पार्टियों में आमंत्रित लोगों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है, जिनका रोज़ा रखने से कोई लेना-देना नहीं होता और यदि कोई गरीब या यतीम इन इफ्तार पार्टियों में पहुंच जाए तो उसका स्वागत नहीं, बाहर का रास्ता दिखा देंगे। राजनीतिक पार्टियों द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टियों में सिर पर टोपी लगाकर स्वयं को मुस्लिम समाज का साबित करने की खास भावना बलवती नज़र आती है। इफ्तार का राजनीति से कोई संबंध नहीं है,लेकिन राजनीति का इफ्तार से संबंध गहरा होता जा रहा है। धर्म को लेकर राजनीतिक अवसरवादिता पर यह शेर सटीक बैठता है-

‘सियासत में ज़रूरी है रवादारी समझता है
वो रोज़ा तो नहीं रखता पर इफ्तारी समझता है’
 
हम देख रहे हैं कि कुछ दलों की राजनीति हर तरह की शुचिता से दूर होती जा रही है। ये पार्टियां हिन्दू और मुसलमानों को दो खेमों में बांटने की साजिश भी बहुत से स्तरों पर करने में लगी हैं। हालांकि देश के नागरिक बहुत समझदार हैं, इसलिए वे इनके झांसे में आने वाले नहीं हैं। लेकिन मुस्लिमों को वोट बैंक समझने वाली पार्टियां जब रमज़ान जैसे पाक मौके को भी सियासत का हथियार बनाती हैं तो उनकी सोच पर हंसी आती है। उन्हें समझना चाहिए किपरिवक्त लोकतंत्र में वोट मजहबी पार्टियों से नहीं मिलते,विकास और सिर्फ विकास से मिलते हैं।

(जनसत्ता, 11.05.2018)

न्यायपालिका की गरिमा रखनी होगी

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

केंद्र में बीजेपी सरकार बनने के बाद से ही उसे लेकर आक्रामक रूख अपनाए हुए है। इस वजह से सत्ता पक्ष के साथ अपोजिशन की दूरी बढ़ गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ विपक्षी दलों के स्टैंड से उनकी मंशा का पता चलता है। जस्टिस मिश्रा के खिलाफ लाया गया‘नोटिस ऑफ मोशन फॉर रिमूवल’ यानी जज को हटाने का नोटिसदरअसल अपने अस्तित्व को बचाने को लेकर विपक्ष की जद्दोजहद को दर्शाता है। यह नोटिस देश की पारदर्शी न्याय व्यवस्था पर कांग्रेस और उसके सहयोगियों का ऐसा हमला है, जिसका करारा जवाब जनता देगी। वर्षों केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस की सोच ने न केवल देश के लोगों को निराश किया है  बल्कि विदेश में भी देश की छवि ख़राब की है। बहरहाल,कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशको हटाने का जो नोटिसदिया,उसे राज्य सभा के चैयरमेन और उपराष्ट्रपति एम. वैंकया नायडू ने खारिज कर दिया।

आग में घी
संविधान के अनुच्छेद 124(4)के तहत सुप्रीम कोर्ट के जज को उसके पद से हटाने के लिए लोक सभा के 100 या राज्य सभा के कम से कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर होने जरूरी हैं। यह प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद अंत सदन के कुल सदस्यों के आधे और प्रस्ताव के समय उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्यों द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाना अनिवार्य है। आज एक ओर विपक्ष संविधान की कसमें खा रहा है, उसकी दुहाई दे रहा है, पर उसी संविधान की आड़ में ओछी राजनीति कर रहा है। यदि संविधान में निहित प्रावधानों का दुरूपयोग होने लगे तो फिर हमें कुछ संवैधानिक बदलावों की भी जरूरत महसूस होने लगेगी। 545 सदस्यों की लोक सभा और 245की राज्य में कांग्रेस के दोनों सदनों में 40 से 50 सदस्य हैं, पर महाभियोग के नाम से प्रस्ताव ऐसे दिया जा रहा, जैसे बहुमत कांग्रेस के साथ है। कांग्रेसियों को अच्छी तरह पता है कि चैयरमेन प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लेते, तो दोनों सदनों में बहुमत की कमी के कारण यह टिकने वाला नहीं था।

कांग्रेस कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट और खास तौर से चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के फैसलों से असहमति जताती रही है। जज लोया के केस की एसआईटी जांच की मांग ठुकराए जाने ने आग में घी का काम किया और कांग्रेस ने बिना सोचे-विचारे हताशा-निराशा में चीफ जस्टिस के खिलाफराज्य सभा के सभापति को नोटिस भेज दिया। हालांकि स्वयं कांग्रेस पार्टी इस पर एकमत नहीं है।जनता जानती है कि राम मंदिर मामले की सुनवाई कर रही तीन जजों की पीठ के मुखिया जस्टिस दीपक मिश्रा ही हैं। ऐसे में कांग्रेस का उनके ख़िलाफ़ महाभियोग का नोटिस किस इरादे से लाया गया, यह समझा जा सकता है।संविधान निर्माताओं ने जब संविधान की रचना की, तब उन्होंने ऐसे प्रावधान नहीं किए,जिससे कोई विदेशी मूल का व्यक्ति भारत का सांसद और प्रधानमंत्री न बन सके। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन ऐसा भी आएगा,जब एक पार्टी एक विदेशी मूल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना स्वीकार कर लेगी।

ऐसे ही जब राष्ट्रपति,सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट के जजों को हटाने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया,तो उसका मतलब यह नहीं था कि एक या दो पार्टी के सांसद यह जानते हुए भी कि संख्या बल उनके पक्ष में नहीं है, इस पर नोटिस मूव कर सुर्खियां बटोरें। उसके पीछे भावना यह थी कि यदि कभी ऐसा समय आ जाए, जब शीर्षसंवैधानिक पदों पर आसीन लोग मर्यादा से बाहर जाकर सत्ता का मनमाना दुरूपयोग करने लगें, तब जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए सांसद आम सहमति से या कम से कम दो-तिहाई बहुमत से इन्हें हटा सकें। यह सही है कि राज्य सभा के सभापति को जजेस इनक्वायरी एक्ट, 1968 के सेक्शन 3(1)(b) के तहत नोटिस को स्वीकारने याअस्वीकारने का अधिकार दिया गया है, लेकिन इस संदर्भ में केवल यही नहीं देखा जाना चाहिए कि आरोप बेबुनियाद या निराधार हैं या अक्षमताऔर दुर्व्यवहारके अन्तर्गत आते हैं या नहीं, बल्कि यह भी देखा जाना चाहिए कि सदन में और जनता में इन जजों के लेकर ओपिनियन क्या है। संविधान के अनुसारतो आप सदन में 50 सदस्य की गिनती करवा कर लोक सभा में भी अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं। पर ऐसा अविश्वास प्रस्ताव केवल नाटकीय होगा, जिसमें सबको पता है कि आप सत्तारूढ़ दल की तुलना में संख्या बलमें बहुत ही पीछे हैं।

दुविधा में विपक्ष
राज्यसभा सांसदों के लिए हैंडबुक के प्रावधानों के अनुसार जब तक सभापति किसी नोटिस पर निर्णय नहीं कर लेते हैं, तब तक उसका प्रचार और प्रसार नहीं किया जा सकता है। लेकिन कांग्रेस ने इस मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस करके इसके पीछे की राजनीतिक मंशा साफ कर दी। साथ ही नियमों का उल्लंघन भी किया। नोटिस में कोई तथ्य ऐसा नहीं है, जिससे जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ लगाए गए किसी भी आरोप की पुष्टि होती हो। कांग्रेस ने ऐलान किया है कि वह ‘संविधान बचाओ दिवस’ मनाएंगी और चैयरमेन के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगी। उसी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा, जिसके मुख्य न्यायाधीश पर उसने5गंभीर आरोप लगाए हैं।
न्यायपालिका पर हमला करने वाले विपक्षी दल एक और दुविधा में फंस गए हैं। आगे यदि सुप्रीम कोर्ट का कोई भी निर्णय उनके मन मुताबिक नहीं आया तब उन्हें यही लगता रहेगा कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ उनके आरोप पत्र के कारण ऐसा फैसला आया है। कांग्रेस और उसके कुछ गिने चुने साथी अपनी निराशा को संविधान की आड़ देकर संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर न करें।

(नवभारत टाइम्स, 25.04.2018)

संसद को बंधक बनाने से आखिर फ़ायदा किसका?

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

देश के लिये शर्मनाक है ऐसा संसदीय गतिरोध: अपने चार दशक से ज्यादा के राजनीतिक जीवन में मैंने संसद का इतना अनुत्पादक सत्र कभी नहीं देखा जितना 5 मार्च से 6 अप्रैल, 2018 तक चला बजट सत्र रहा। 22 दिन का यह सत्र विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस के हंगामे के कारण बेकार चला गया। वह भी तब जबकि बजट सत्र संसद का सबसे महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है। मुझे चिंता इस बात की है कि आखिर सारे देश की जनता के प्रति उत्तरदायी संसद सदस्य इस प्रकार संसद को बंधक बनाकर कर क्या हासिल करना चाहते हैं। कांग्रेस के ऐसे अस्वीकार्य और अस्तरीय विरोध से भारत की दुनिया में क्या छवि बनेगी जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में पहचाना जाता है। कांग्रेस के इस रवैये से संसद ही नहीं, सारा देश अपमानित हुआ है। क्या कांग्रेस यह सच स्वीकार करने का साहस करेगी और देश की जनता से माफी मांगेगी?    
 
संसद का वेल अखाड़े में बदला: संसद जनता के पैसे से चलती है और जनता के लिये चलती है। इसका मूल उद्देश्य देश भर से चुने गए जन प्रतिनिधियों के माध्यम से देश के हर गरीब, वंचित, शोषित और हर वर्ग का सर्वांगीण विकास और कल्याण है। यह हर सांसद का मूल दायित्व है। लेकिन कांग्रेस द्वारा भारी हंगामे के कारण बजट सत्र का दूसरा भाग पूरी तरह से बेकार चला गया। इस दौरान 22 कार्यदिवसों में रत्ती भर काम नहीं हुआ। भारतीय संसद के उच्च सदन ने इस तरह का सत्र शायद ही कभी देखा हो जिसमें देश के हर नागरिक और हर क्षेत्र के हित के लिये काम करने का संकल्प लेकर आने वाले सांसद क्षेत्रीय, निजी और स्वार्थपूर्ण राजनीति भरे मुद्दों पर लगातार वेल को अखाड़ा बनाकर संसद ठप्प कर रहे थे।
 
यदि कांग्रेस चाहती तो मुख्य विपक्षी दल के तौर पर सदन चलने में सरकार को सहयोग कर सकती थी जिससे क्षेत्रीय मुद्दों पर संसद ठप करने वाली पार्टियां अलग दिखाई दें। उसने आरोप लगाया कि एआईएडीएमके जैसे दल एनडीए के सहयोगी हैं जबकि उनके सांसदों के हंगामे में पूरा साथ भी कांग्रेस ने ही दिया। इस दौरान राज्य सभा में ही जनहित से जुड़े 9 महत्वपूर्ण बिल धरे के धरे रह गए। इसमें मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अन्याय से बचाने, सड़क दुर्घटना के पीड़ितों के मुआवजे को 10 लाख रुपए तक बढ़ाने, भ्रष्टाचार को सामने लाने वाले व्हिसिल ब्लोअर्स को संरक्षण देने और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने जैसे महत्वपूर्ण बिल थे जो देश की बड़ी आबादी पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाले हैं। इस दौरान कांग्रेस ने सिर्फ पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी(संशोधन) बिल, 2018 पास होने दिया। वह चाहती तो अन्य बिल भी पास हो सकते थे लेकिन वह इसमें भी वोट बैंक की राजनीति करती रही। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार निरोधक(संशोधन) बिल, 2018 को 13 दिन तक कार्यसूची में रहने के बाद भी पास नहीं होने दिया। क्या वह देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी जंग के खिलाफ है?
 
लगातार घट रही है संसद की उत्पादकता: मैं चार बार सांसद रहा हूं और पक्ष व विपक्ष दोनों में रहा हूं। एनडीए सरकार में दूसरी बार मंत्रीपद का दायित्व संभाल रहा हूं। विपक्ष में रहते हुए भी मैंने कभी वेल में जाकर विरोध नहीं किया। मेरे राजनीतिक संस्कार ऐसे हैं। संसदीय कार्य मंत्रालय के प्रभार का यह मेरा दूसरा अवसर है, पर बड़ा अवसर है क्योंकि मुझे मुख्यतः राज्य सभा के कामकाज को मुझे ही देखना था और राज्य सभा में ही हमारी पार्टी का बहुमत नहीं है। मैं प्रधानमंत्री का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी। मेरे संस्कारों में हमेशा से यह रहा कि राजनीति विचारधारा की होती है। आपस में संबंध अच्छे हों तो इससे दूसरी पार्टियों से सहयोग मिलता है। कार्यभार संभालने के बाद शीतकालीन सत्र 15 दिसंबर, 2017 से 5 जनवरी तक चला जिसमें 13 बैठकें हुईं। इस दौरान राज्यसभा की उत्पादकता 56 प्रतिशत और लोकसभा की 92 प्रतिशत रही जो ठीकठाक थी। राज्य सभा में 9 बिल पास हुए और लोक सभा में 13 बिल पास हुए। दोनों सदनों में संयुक्त रूप से 13 बिल पास किए। इसके बाद दो चरण में हुए बजट सत्र का पहला चरण भी अच्छा रहा और सभी दलों में मेरे व्यक्तिगत संबंधों का लाभ मुझे मिला। इसके लिये मैंने सभी दलों के नेताओं से मिलकर उन्हें धन्यवाद दिया। बजट सत्र का पहला चरण भी बहुत अच्छा चला लेकिन बजट सत्र का दूसरा चरण पूरी तरह से बेकार चला गया।   

संसद के बजट सत्र के पहले चरण में लोक सभा में सदन कीं 7 और राज्य सभा में 8 बैठकें हुईं थीं। इस सत्र में लोकसभा की बैठकों की उत्पादकता आशातीत ढंग से 134.61 प्रतिशत रही जबकि राज्य सभा की उत्पादकता आशा के अनुरूप 96.31 प्रतिशत रही। सामान्यतः दोनों सदनों में शाम 6 बजे तक ही काम होता है लेकिन इस दौरान लोक सभा के सांसदों ने 3 दिन देर रात तक काम किया तो राज्य सभा सांसदो ने भी 5 दिन देर रात तक बैठकर राष्ट्रहित के विषयों पर चर्चा और बहस करके कई बिल पास किए। पहले सत्र की उत्पादकता देखकर संसदीय कार्य राज्य मंत्री के तौर पर मुझे बेहद आत्मसंतोष हुआ और मैंने इसके लिये सभी दलों को धन्यवाद भी दिया। लेकिन पहला सत्र दिन के उजियारे जैसा बीतने के बाद दूसरा सत्र विपक्ष के हंगामे के बाद काली रात में बदल गया। दूसरे सत्र में राज्य सभा के कुल 120 में से करीब 117 कार्य घंटे बर्बाद हो गए। इस दौरान लोक सभा की उत्पादकता सिर्फ 4 प्रतिशत और राज्य सभा की 8 प्रतिशत रही।
 
बजट सत्र के दूसरे चरण में 22 दिन जब धुल गए तो सरकार ने विपक्ष और विपक्ष ने सरकार, दोनों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए कि सदन को किसी ने चलने नहीं दिया। जनता के सामने यह बड़ी कठिन समस्या थी कि भरोसा किस पर किया जाए। यह ठीक है कि सरकार का काम है संसद को चलाना लेकिन अगर विपक्ष अड़ ही जाए कि सदन चलने नहीं देंगे, नारे लगाए, प्ले कार्ड दिखाए, धरने पर बैठ जाए तो सरकार भी कैसे संसद चला पाएगी। 5 मार्च को जब सदन शुरू हुआ तो कांग्रेस की तरफ से नियम 267 के अन्तर्गत कार्य स्थगित करने के लिए नोटिस दिया गया। सरकार बैंकिंग क्षेत्र के मुद्दों, कावेरी विवाद और आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा सहित सभी मुद्दों पर चर्चा के लिये तैयार थी लेकिन विपक्ष खुद चर्चा से भागकर हंगामा करता रहा।
लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखकर जनता फैसला कर सकती है कि सदन को कौन-सी पार्टी चलने नहीं दे रही, कौन-सी पार्टी के सदस्य वैल में पहुंचे हुए हैं और कौन नारेबाजी और हंगामा कर रहे हैं। शायद विपक्ष को लगता है कि उनकी बात मीडिया के माध्यम से सदन के बाहर भी रखी जा सकती है लेकिन समाधान तो सदन में चर्चा से ही निकलता है, न्यूज चैनल के स्टूडियो में बैठकर नहीं।

संसद में घटता कार्य, बढ़ता खर्च: आंकड़ों की तुलना करें तो पता चलता है कि 1952 से लेकर 1967 तक प्रत्येक तीन लोकसभाओं की औसतन 600 दिन बैठकें हुई। लेकिन 15वीं लोकसभा(2009 से 2013) तक मात्र 365 दिन बैठक हुई। पहली लोकसभा में सदन के कामकाज के कुल समय में से 49 फीसदी समय विधेयकों पर चर्चा में लगाया गया था। यह आंकड़ा दूसरी लोकसभा में नीचे गिरकर 28 फीसदी पर आ गया और अब 15वीं लोकसभा में मात्र 23 फीसदी समय विधेयकों पर चर्चा में दिया गया। बैठकों और कामकाज के लिहाज से 14वीं और 15वीं लोकसभा का कार्यकाल सबसे कमजोर कहा जा सकता है। पहली और 15वीं लोकसभा के 61 साल के सफर को बानगी के तौर पर लें तो दिखेगा कि न केवल बैठकों की संख्या और काम के घंटों में, बल्कि करीब हर कामकाज में गिरावट आयी है। चाहे वह प्रश्नकाल हो, विधेयकों पर चर्चा हो या फिर गैर सरकारी कामकाज। बैठकों की संख्या घटने के कारण सदन में कई विधेयकों को बिना पर्याप्त चर्चा के पारित कर दिया गया। संसद की एक दिन की कार्यवाही के संचालन में लगभग 1.57 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इस हिसाब से भी संसद को बाधित करना बड़ा अपराध ही कहा जाएगा
 
सदन में चर्चा के सिवा कोई रास्ता नहीं: संसदीय कार्यवाही के नियम 255 और 256 के जानबूझकर सदन के कामकाज में गंभीर और लगातार बाधा डालने वाले सदस्य को एक दिन से लेकर पूरे सत्र के लिये निलंबित किया जा सकता है। ऐसा कई मौकों पर हो भी चुका है।

(पंजाब केसरी, 17.04.2018)

तमाशे में बदलकर रह गई है शादी

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

पिछले दिनों मीडिया घराने से जुड़े एक बड़े उद्योगपति के यहां विवाह समारोह में जाने का मौका मिला। लगा कि यह विवाह शायद कुछ अलग होगा, पर मैंने देखा कि विवाह की वही सब रस्में थीं जो वर्षों से चली आ रही हैं। सार कुछ उतना ही नाटकीय। यह बात मैं रस्मों के लिए नहीं, रस्मों में प्रयोग होने वाली वेशभूषा के लिए कर रहा हूं। जैसे घोड़ी पर बैठना, मुकुट लगा लेना, पगड़ी पहनना, तलवार लटकाना, काजल लगवाना, रंगीन अचकन पहनना और उसके बाद बैंड बाजा लेकर सड़क के बीचों-बीच बाजार से निकलना। इन पर न उनका प्रयोग करने वाले को आश्चर्य होता है, न देखने वाले को।

एक बार मैंने एक मिलन समारोह में कुछ लोगों से कहा कि आप राजस्थानी पगड़ी पहन लीजिए। लोगों को लगा जैसे मैं कोई अजीबोगरीब बात कर रहा हूं। शादी के लिए जो अचकन हम सिलवाते हैं, वह विवाह के एक दिन बाद अलमारी में लटकी की लटकी रह जाती है। फिर किसी दूसरे के विवाह पर भी हम उसे पहनने के लिये तैयार नहीं होते। क्यों न इन अचकनों और पगड़ियों का एक म्यूजियम बनाया दिया जाए, जिसमें लोग अपनी अचकन और पगड़ी रख दें, बाकायदा उस पर शादी की तिथि डालकर ! मैं सोचता था, आधुनिक युग में धीरे-धीरे शादी की नाटकीय रस्में समाप्त हो जाएंगी, लेकिन विवाह पर होने वाली रस्में और बढ़ती ही जा रही हैं। दहेज प्रथा कम हुई है, लेकिन इसके बदले लोगों ने शादी में भव्य इंतजाम या कहें कि दिखावा बढ़ा दिया है।

पहले विवाह समारोह हफ्ता भर होते रहते थे। धीरे-धीरे ये औपचारिक हो गए। अब फिर से लोगों ने डेस्टिनेशन शादी का रूप देकर इनको चार-चार दिन का बना दिया। पिछले दिनों दो मित्रों के यहां विवाह समारोह में गया। वहां मैंने देखा कि एक नई प्रथा और शुरू हो गई है। शादी से पहले ही दोस्त-मित्र होने वाले दूल्हा-दुल्हन को बुलाकर पार्टियां करने लगते हैं। पहले किसी समय में लड़का-लड़की हल्दी लगने के बाद शादी के दिन तक एक-दूसरे से मिल नहीं सकते थे। पर अब शादी से पहले होने वाली ये पार्टियां शादी के खर्चों को और बढ़ा रही हैं। पहले इस तरह की पार्टियां शादी के बाद ही होती थीं।

अभी लोगों की प्रवृत्ति यह हो चली है कि शादी पर कैसे ज्यादा से ज्यादा खर्च कर स्टेटस बनाया जाए। शादी के कार्ड भी अब हैसियत दिखाने का जरिया बन गए हैं। भव्य कार्डों के साथ मेवे, बड़े-बड़े गिफ्ट और वाइन भेजी जाती है, जबकि शादी की मिठाई के नाम पर सिर्फ मिठाई के चंद टुकड़े होते हैं। मजे की बात यह है कि गिफ्ट के डब्बे गिफ्ट से ज्यादा महंगे होते हैं, हालांकि वे किसी काम नहीं आते। विवाहों का हाल यह हो गया है कि बुलाने वाला भी दुखी और जाने वाला और ज्यादा दुखी। पहले लोग अपने घर के पास ही टैण्ट लगाकर विवाह समारोह करते थे। निमंत्रण आस-पड़ोस और रिश्तेदारों को ही भेजते हैं और उनको असुविधा न हो इसलिये घर पर सुंदर लाइट और बाहर टैंट लगा दिये जाते थे। फिर ये टैंट पड़ोस के पार्कों में पहुंच गए। पार्कों से होटल, होटल से बैक्विट हॉल और वहां से फार्म हाउस में आ गए।

अब यह किस्सा डेस्टीनेशन शादी तक पहुंच गया है। लोग अपने बच्चों की शादी   उदयपुर और जयपुर जैसे शाही शानो-शौकत वाले शहरों में जाकर करते हैं। कुछ लोग विदेशों में भी डेस्टीनेशन शादियां कर रहे हैं। शादी की रस्मों को देखें तो उनमें पहले रिश्तेदारों को महत्व दिया जाता था। शादी के समय मिलनी होती है, लड़की के पिता की लड़के के पिता से, चाचा की चाचा से, ताऊ की ताऊ से। अब शादी में उपस्थिति के मायने बदल गए हैं। कई बार लोग पैसे देकर नामी अतिथियों को बुलाते हैं। फिल्म स्टार विवाह समारोह में परफॉरमेंस ही नहीं देते, बल्कि वे ऐसे शामिल होते हैं जैसे दूल्हे या दुल्हन के परिवार वालों से उनका बहुत अच्छा परिचय हो।

लोगों ने रिश्ते करवाने को भी एक व्यवसाय बना लिया है। शादियों में इवेंट मैनेजमेंट की भूमिका बढ़ गई है। पहले ही पूछ लिया जाता है कि कितने करोड़ की शादी होगी। इसमें जो रिश्ता करवाने वाला होता है, उसका वर और वधू पक्ष यानी कि दोनों तरफ से दो-दो प्रतिशत कमीशन होता है। लड़का-लड़की के प्री-वेडिंग शूट्स भी हो जाते हैं जिसमें वे हैरिटेज बैकग्राउंड में प्यार-मोहब्बत करते हुए दिखाए जाते हैं और फिर जिस समय शादी होती है, तब वह फिल्म दिखाते हैं, जिसमें दोनों हीरो-हीरोइन की तरह एक्ट कर रहे होते हैं। मैं लोदी गार्डन सैर के लिये जाता हूं। हर रोज 8 से 10 लड़के-लड़कियां प्री-वेडिंग शूट करते नजर आते हैं।

कुल मिलाकर विवाह जो एक बहुत ही पवित्र रस्म हुआ करती थी, उसको नाटकीय, बेहद खर्चीला और दिखावे वाला बना दिया गया। हालांकि शादी के कुछ रीति-रिवाजों में सकारात्मक बदलाव भी हुआ है। पहले सामान्य शादी का उत्सव भी तीन-चार दिन चलता था। अब ज्यादातर जगहों पर यह घटकर एक दिन रह गया है। इसके अलावा पहले से ज्यादा शादियां दिन में होने लगीं हैं, जिससे लाइटिंग और आतिशबाजी का खर्चा बचता है। सामूहिक विवाह और मंदिरों में शादी के प्रति भी लोगों की रूचि बढ़ी है। इससे भी शादियों के खर्चे में कमी आई है। सरकारें सामूहिक विवाह को बढ़ावा दे रही हैं। गुरुद्वारों की तरफ से भी पहलकदमी हुई है। उन्होंने लोगों से दिन में सादगी के साथ शादी करने को कहा है। आप भी शादी में झूठी शान दिखाने की बजाए इसके कुल बजट का एक हिस्सा समाज कल्याण पर खर्च करें तो आपका नाम होगा और समाज का भला होगा।

(नवभारत टाइम्स, 07.04.2018)
 

भारत के सच्चे रत्न हैं अटल बिहारी वाजपेयी

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्यमंत्री हैं)

अटल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना आकाश को आंखों में समेटने के समान है। उनके बारे में जितना कहा जाए, कम है। उनकी विराट जीवन यात्रा का हर पड़ाव इतिहास की एक करवट है। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे वाजपेयी का राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव शुरु से अनन्य था। इसी के चलते वह राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। उसी के माध्यम से राष्ट्र सेवा में जीवन समर्पित कर दिया ।  इसी कड़ी में  21 अक्टूबर, 1951 में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा स्थापित भारतीय जनसंघ से वह जुड़े। 1957 में भारतीय जनसंघ के चार सांसदों में से एक थे। तब से लेकर देश का प्रधानमंत्री बनने तक अटल जी ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन के असंख्य उतार-चढ़ाव देखे। देश और विदेश में रहने वाले करोड़ों भारतवासियों और भारतवंशियों से मिलकर उन्होंने भारत की आत्मा को गहराई से समझा। यह समझ उनके हर कार्य में दिखाई देती थी। नेहरु-गांधी परिवार के प्रधानमंत्रियों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय इतिहास में उन चुनिंदा नेताओँ में से हैं, जिन्होंने सिर्फ़ अपने नाम, व्यक्तित्व और करिश्मे के दम पर केंद्र में सरकार बनाई। अटल जी का साहित्य जगत भी अपने आप में संपूर्ण था। मानव मन से लेकर समाज के हर मुद्दे पर उनका मौलिक चिंतन तो था ही, उसके प्रति समाधान की दृष्टि भी उनके पास थी।

मेरा सौभाग्य रहा कि बाकी मंत्रालयों की जिम्मेदारी के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री के तौर पर मुझे अटल जी को और भी करीब से देखने का सौभाग्य मिला। वे विषम से विषम परिस्थितियों में भी शांतचित्त और दृढ़ रहते थे। उन्हें हर समय देश की चिंता रहती थी। भारत के सामर्थ्य, शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिये वे हमेशा तत्पर रहते थे लेकिन सिद्धातों से समझौता उन्हें कतई मंजूर नही था। जब 1996 में एनडीए सरकार की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली तो उन्होंने इस पर कोई अफसोस नहीं किया। प्रधानमंत्री बनने का अवसर आम राजनीतिक व्यक्ति को जीवन में बमुश्किल एक बार मिल जाए तो बहुत बड़ी बात है लेकिन अटल जी ने राजनीतिक जोड़तोड़ की बजाए प्रधानमंत्री पद छोड़ना बेहतर समझा।
मुझे 27 मई, 1996 को संसद में दिया उनका ऐतिहासिक भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने भारत की जनता पर भरोसा जताते हुए सिद्धातों से समझौता करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि हम फिर सत्ता में लौटेंगे और वे लौटे भी। फिर से प्रधानमंत्री बनकर लौटे और पूरे पांच साल सरकार चलाकर देश को सुशासन का नया मॉडल दिया।

देश के राजनीतिक इतिहास में यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इससे पहले की सभी गैर कांग्रेसी सरकारें कांग्रेस की बैसाखियों पर थीं और आखिरकार उसके षड़यंत्रों का शिकार होकर असमय गिर गईं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को गिराने की भी भरपूर कोशिशें हुईं। उस समय के हमारे सहयोगी दलों को भरमाया गया, ललचाया गया, लेकिन अटल जी के विनम्र और सबको साथ लेकर चलने के स्वभाव के कारण विपक्ष की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। खुद राजनीतिक पंडित इस बात से हैरान थे कि कैसे कोई गैर-कांग्रेसी सरकार पांच साल चल सकती है।

अटल जी जब भी वे संसद में बोलते थे, पूरा सदन उन्हें एकाग्र होकर सुनने के लिये आतुर रहता था। सब जानते हैं कि खुद पूर्व प्रधानमंत्री उनकी बड़ी प्रशंसक थीं। जब उन्होंने पहली बार संसद में भाषण दिया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि वे एक दिन देश के प्रधानमंत्री अवश्य बनेंगे। मैं विनम्रता से कहना चाहता हूं कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद और फिर भारत रत्न का पुरस्कार मिलना खुद इन पुरस्कारों के सम्मान के बराबर था। अटल जी देश के उन महान नेताओं में से हैं जिनका विपक्ष ने भी सदा सम्मान किया है। संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण से उन्होंने दो बार विश्व पटल पर हिन्दी का परचम लहराया।

आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार अटल जी के बताए सुशासन के रास्ते पर सबको साथ लेकर चल रही है। अटल ने जिस जनसंघ के आधार स्तंभ रहे और जो बाद में भारतीय जनता पार्टी की शक्ल में आई, उसका चुनाव चिह्न दीपक था। अटल जी मेरे तो पितृ पुरुष हैं ही, वे राजनीति, समाज, साहित्य, पत्रकारिता, देश सेवा जैसे विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के लिये भी अनंत प्रकाश देने वाले दीपक हैं। मेरी कामना है कि उनका आशीर्वाद हम सब पर सदा बना रहे। जब भी निराशा मुझे घेरने की कोशिश करती है, अटल जी की कविताएं मुझे नया हौसला देती हैं। उनकी कविता के इस अंश के साथ मैं यह लेख पूर्ण करना चाहता हूं-

बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा।

ईवीएम के खिलाफ बेतुकी लडाई

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं)

गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों के आने के साथ ही ईवीएम में गड़बड़ी वाले बयानों का सिलसिला फिर शुरू हो सकता है क्योंकि दोनों ही जगह बीजेपी के जीतने की प्रबल संभावना है। पिछले कुछ समय से विपक्षी दल अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ रहे हैं और उनके लिया यह एक अच्छा बहाना बन गया है। ईवीएम लगातार निशाने पर है, क्योंकि देश की सभी सरकारें और राजनीतिक पार्टियां हर वक्त चुनावी मोड़ में रहती हैं। पूरा देश चुनाव कराने, वोए डालने में ही लगा है। आए दिन चुनाव का ही माहौल रहता है। वैसे ईवीएम की कथित गड़बड़ी को लेकर चुनाव आयोग ने चुनौती दी, मगर कोई गड़बड़ी साबित करने सामने नहीं आया। अदालतों में चुनौती दी जा चुकी है, लेकिन कोर्टों ने भी ईवीएम की निष्पक्षता पर ही मुहर लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल अगस्त में ईवीएम पर चुनाव आयोग के तर्कों से सहमती जताई है। इसके अलावा मद्रास, कर्नाटक, केरल और बॉम्बे हाई कोर्ट भी ईवीएम के समर्थन में फैसले सुना चुके हैं। फिर भी विपक्षी पार्टियाँ मानने को तैयार नहीं हैं। वे बीजेपी की हर जीत को शक की नज़र से देखती हैं।
 
विरोध के लिए विरोध
क्या कोई पार्टी लगातार चुनाव नहीं जीत सकती ? कांग्रेस तो लम्बे समय तक सत्ता में रही है। क्या माना जाए कि उसने चुनावों में लगातार गड़बड़ की, उन्हें मैनेज किया ? ईवीएम का विरोध करने वाले सिर्फ बीजेपी की जीत देख रहे हैं, वे दिल्ली में ‘आप’ की जीत, बिहार में नीतीश कुमार की जीत और पंजाब में कांग्रेस की वापसी को नहीं देखते। विपक्ष को देखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का मामला है। विपक्ष को विरोध के लिए कुछ नहीं मेल रहा है, तो वोटिंग मशीन ही सही। ईवीएम के ईजाद से पहले चुनाव मतपत्रों से होते थे। क्या तब मतदान में गड़बड़ियों के तरह-तरह के आरोप नहीं लगते थे ?

साल १९७१ में पांचवीं  के लिए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गाँधी की अगुआई में कांग्रेस ने 352 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज की। तब बलराज मधोक और सुब्रमण्यम स्वामी ने आरोप लगाया कि बैलेट पेपर में गड़बड़ी की गयी। उनका आरोप था कि मतपत्र मॉस्को से मंगाए गए थे, जिनमें ठप्पा किसी पर लगे, निशान कांग्रेसी चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी पर ही उभरता था। बाकी निशानों से स्याही उड़ जाती थी। इसी तरह पहले आम चुनाव में यूपी की रामपुर लोकसभा सीट पर चुनाव में गड़बड़ी कराने का आरोप जवाहर लाल नेहरू पर लगा था। हिंदूवादी नेता विशन चंद सेठ की स्मृति में प्रकाशित ग्रंथ ‘हिंदुत्व के पुरोधा’ का विमोचन 18 नवंबर, 2005 को हुआ। उसमें राज्य सूचना विभाग के उप-निदेशक रहे शूंभूनाथ टंडन के लेख का शीर्षक था- ‘भइये विशन चंद ने मौलाना आज़ाद को धूल चटाई थी, भारत के इतिहास की अनजान घटना’।

लेख में बताया गया है कि कांग्रेस उम्मीदवार मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को हिंदूवादी नेता विशन चंद ने हरा दिया था। वे विजय जुलूस की तैयारी में थे कि दोबारा मतगणना की सूचना मिली। लेख के मुताबिक़ मौलाना आज़ाद की हार से नेहरू विचलित थे। उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से उन्हें जिताने के लिए कहा। दोबारा मतगणना हुई और मतपत्रों में घालमेल कर विशन चंद को हरा दिया गया। गड़बड़ी के आरोप बढ़ने पर ईवीएम पर भरोसे के लिए वोटर वैरीफ़िकेशन पेपर ऑडिट ट्राइल यानी वीवीपेट से जोड़ा गया है। इससे वोटर देख सकता है कि उसने जो बटन दबाया, वोट वहीँ गया है। भारतीय वोटिंग मशीनें नेपाल, भूटान, नामीबिया, केन्या को निर्यात की गई हैं। कई और देश इनमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वोटिंग मशीन से चुनाव कराने से 10 हज़ार टन से ज्यादा काग़ज़ की बचत होती है। इतने काग़ज़ की बचत यानी बड़े पैमाने पर वृक्षों का बचाव यानी पर्यावरण में सुधार। 

औरों जैसे क्यों हों?  
आलोचक कहते हैं कि दुनिया के ज़्यादातर देश चुनाव मशीनों से नहीं कराते। भारत समेत केवल 24 देश चुनावों में किसी न किसी रूप में मशीनें इस्तेमाल करते हैं। ये देश हैं- भारत, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, कनाडा, ब्राज़ील, फिनलैंड, एस्टोनिया, फ्रांस, जर्मनी, इटली, आयरलैंड, कज़ाख़स्तान, नीदरलैंड, लिथुआनिया, नॉर्वे, रोमानिया, फ़िलीपीन्स , दक्षिण कोरिया, स्पेन, यूएई, स्विट्ज़रलैंड, ब्रिटेन, स्कॉटलैंड और वेनेजुएला। जर्मनी समेत कुछ देश मशीन प्रणाली से मतपत्रों पर लौट आए हैं। हो सकता है कि सभी जगहों पर प्रणाली सही नहीं हों। अमेरिका में बहुत सी वोटिंग मशीनें इंटरनेट से जुड़ी हैं, जिससे घर बैठे वोटिंग हो सके। ऐसी प्रणाली में गड़बड़ी संभव है। लेकिन भारत में ईवीएम इंटरनेट विहीन है, इसलिए हैकर कुछ नही कर सकते। मशीनी युग में आकर हम ताड़-पत्रों के युग में लौटने की बात करें तो यह हास्यास्पद है। ऐसे तो ईवीएम के विरोधी कल देश की आधुनिक बैंकिंग प्रणाली समेत वैज्ञानिक आविष्कारों के ज़रिए हो रहे सभी विकास कार्यों का विरोध करेंगे। क्या यह सही है? बेहतर होगा कि अपोजिशन पार्टियाँ यथार्थ को स्वीकार करें। ईवीएम पर आरोप लगाने से बेहतर है कि वे जनता के बीच जाएँ और लोगों का विश्वास अर्जित करने की कोशिश करें। उन्हें समझना चाहिए कि जनता में जागरूकता बढ़ रही है। लोगों की हर चीज पर नजर है और वे सब कुछ समझ रहे हैं।

 

सोशल मीडिया के दौर में समाज

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं)

इन दिनों इन्टरनेट आधारित एक ख़तरनाक खेल ‘ब्लू व्हेल’ खासी चर्चा में है। यह खेल खेलने वाले बच्चों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। मैं जब भी ऐसी ख़बरें पढ़ता हूं, मन बहुत व्यथित होता है। मन में सवाल उठता है कि कोई खेल कैसे किसी बच्चे की ज़िंदगी ख़त्म करने का माध्यम बन सकता है? लेकिन डिजिटल दुनिया के खेल ‘ब्लू व्हेल’  के बारे में ऐसा ही है। इस खेल को एक कुंठित व्यक्ति ने डिज़ाइन किया है, जिसके चक्रव्यूह में फंसने वाले बच्चे तरह-तरह के टास्क करते हैं और आख़िरी टास्क होता है जान देने की बहादुरी दिखाने का। हमारे मन में खेल शब्द सुनते ही जोश और उमंग का संचार होता है। हमारे बचपन के खेल कितने निराले होते थे, यह बताने की ज़रूरत बड़ों को नहीं है। हां, आज के बच्चे उन बहुत सारे खेलों के बारे में नहीं जानते हैं, जो तन में स्फूर्ति तो भरते ही थे, साथ ही हमें बौद्धिक रूप से भी मज़बूत बनाते थे। समूहों में खेले जाने वाले खेल नेतृत्व की क्षमता भी बढ़ाते थे और सामुदायिक भावना भी मन में भरते थे। तब हम सोच भी नहीं सकते थे कि शतरंज, कैरम, लूडो या सांप-सीढ़ी जैसे कुछ खेलों को छोड़कर कोई खेल घर के कमरों में बैठकर भी खेला जा सकता है। लेकिन अब घरों से शतरंज और लूडो की बिसातें ही ग़ायब होती जा रही  हैं।

आज बहुत से खेल डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध हैं। कभी भी ख़ाली समय में या यात्रा करते वक़्त बहुत से लोग ये खेल खेलते हुए देखे जा सकते हैं। वे इनमें इतने तल्लीन होते हैं कि आसपास क्या हलचल हो रही है, इसका भी पता उन्हें नहीं चलता। दफ़्तर में खाली वक्त में लोग कंप्यूटर पर खेलों की आभासी दुनिया में खोए होते हैं। मैट्रो, बसों, टैक्सियों में सफ़र के दौरान लोग अपने- अपने स्मार्ट फ़ोनों पर झुके रहते हैं। आसपास भीड़भाड़ के बावजूद हम पूरी तरह तन्हा होते हैं। यही वजह है कि आदमी अपने इर्द-गिर्द को भी भूलकर ख़ुद में ही सिमटता जा रहा है। सामाजिक प्राणी आदमी समाज से कटता जा रहा है। लोगों के अंदर सकारात्मक संवेदनाएं ख़त्म होती जा रही हैं। कोई घायल सड़क पर तड़पता रहता है, आसपास भीड़ भी जुटती है, तो लोग केवल उसकी तस्वीरें या वीडियो बनाते रहते हैं, उसे अस्पताल लेकर जाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। बहुत कम लोग हैं, जो ज़रूरतमंदों की मदद के लिए तुरंत आगे आते हैं। फिलहाल तो इसी तथ्य से उम्मीद बरक़रार है। लोग कभी तो आभासी दुनिया से ऊबकर आसमान को जी भरकर देखेंगे।

वैज्ञानिक तरक़्की अच्छी बात है, पर क्या सामाजिक पतन की क़ीमत पर इसे लक्ष्य की ओर बढ़ने की सीढ़ी क़रार दिया जा सकता है? सोशल मीडिया के इस दौर में सामाजिक कड़ियां बुरी तरह बिखरने लग जाएं, तो चिंता की बात है। दो साल पहले अगस्त के आख़िरी दिन आधी रात को दिल्ली के एक बच्चे ने व्हाट्सअप पर अपनी तस्वीर के साथ संदेश लिखा कि ऐसी दुनिया में नहीं रहना, जहां पैसे की क़ीमत इंसान से ज़्यादा है। रात को वह पंखे से झूल गया। इसके कुछ दिन बाद ही खबर आई कि एक लड़की ने ख़ुदकुशी करने का सबसे नायाब तरीका ढूँढने के लिए करीब सौ वेबसाइट सर्च की। कुछ युवाओं ने ख़ुदकुशी के लाइव वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किए हैं। ऐसी ख़बरें चिंता बढ़ाती हैं। यह कैसा सोशल मीडिया है जो बहुत से ‘फ्रेंड्स’ होते हुए भी व्यक्ति को अकेला करके छोड़ देता है.

ऐसा नहीं है कि प्रौद्योगिकी का नकारात्मक इस्तेमाल ही हो रहा है। यह तर्क किसी भी स्तर पर नहीं दिया जा सकता है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से तो हम दुनिया के साथ क़दमताल ही नहीं कर पाएंगे, लेकिन इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग पूरी दुनिया में हो रहा है। आतंकवाद, तमाम तरह के आर्थिक घोटाले, जासूसी वगैरह में इंटरनेट का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। अकेले हमारे देश में 50 करोड़ से ज़्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। सौ करोड़ से ज़्यादा लोग मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि बचपन से ही लोगों को इसके सकारात्मक इस्तेमाल के बारे में जागरूक किया जाए। आज सरकारी कामकाज आधुनिक तौर-तरीक़ों से किए जाएं, इस ओर काफ़ी ध्यान दिया जा रहा है। निजी क्षेत्र भी सोशल मीडिया और इंटरनेट को तरज़ीह दे रहा है। शिक्षा, रोज़गार, उत्पादन सभी क्षेत्रों में संचार के साधनों की तरक़्क़ी बहुत कारगर साबित हो रही है। ऐसे में जिस गति से व्यक्तिगत और सामुदायिक ‘यूज़र्स’ की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है, उसी गति से कंटैंट मैनेजमेंट की ज़रूरत है। सोशल मीडिया को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने की भी ज़रूरत है। अभिभावकों के लिए भी रिफ्रेशर कोर्स कराने की व्यवस्था की जा सकती है। सरकारी और निजी क्षेत्र की संचार सुविधाएं देने वाली तमाम कंपनियों को इस बारे में सोचना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर हमारे दोस्तों की संख्या लाखों में होने के बावजूद हम रिश्तों की गर्माहट का गुनगुना ऐहसास भूलकर धीरे-धीरे अकेलेपन के सर्द अंधेरों में खो जाएं।

 

पर्यटन पर नए नजरिये की जरूरत

विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय युवा मामले और खेल मंत्री हैं)
 
हाल ही में दिल्ली के मेहरौली के आर्कियोलॉजिकल पार्क जाना हुआ, तो वहां की हालत देखकर अफसोस हुआ। पार्क की मस्जिद के पास अतिक्रमण हो गया है। पर्यटन के लिहाज के महत्वपूर्ण दूसरी जगहों पर भी यही हालत है। वहां खंभों पर जो लिखा है, पढ़ने में नहीं आता। उस जगह का ऐतिहासिक महत्व वहां जाने वाले समझ ही नहीं पाते, तो फायदा क्या है? अगर किसी पर्यटक को किसी जगह का महत्व समझ में आएगा, तभी वह उस स्थान के प्रति संवेदनशील होगा, आदरभाव जागेगा। देश के ऐसे बहुत से ऐतिहासिक स्थान हैं, जो देख-रेख और सही नजरिए के अभाव में नशा करने वालों के अड्डों में बदल गए हैं। अगर उन्हें विकसित किया जाए, तो ऐसी जगहें बड़ी आमदनी और स्थानीय लोगों के लिए गौरवबोध का जरिया साबित हो सकती हैं।

भारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। लेकिन हम दुनिया भर से उतने सैलानियों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, जितने होने चाहिए। देश के कई हिस्सों में आतंकी वारदात होने, महिलाओं के प्रति अपराध और जातीय हिंसा की वजह से भी पर्यटक चाहते हुए भी भारत का रुख नहीं कर पाते। फिर भी भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है, जो हर मौसम में सैलानियों को लुभाती है। हमारे यहां सभी मौसम आते हैं। मनोहारी पर्वतीय स्थल, नदियां हैं, खूबसूरत समुद्री तट हैं। जंगल हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता विदेशी सैलानियों को खींचती है, तो खान-पान की अपार शैलियां हैं। ललित कलाओं के मामले में देश समृद्ध है। पौराणिक परंपराओं और वैज्ञानिक विकास के मामले में हम दुनिया में अग्रणी हैं। गावों की संस्कृति अब भी पूरी तरह विकसित है। भारतीय आयुर्वेदिक संस्कृति दुनिया की सिरमौर है। पूजा-पाठ की विभिन्न समाजों की अलग-अलग पद्धतियां हमें प्रकृति और इंसानों से प्यार करने का संदेश देती हैं।  

हमारी सरकार ने पर्यटन की ओर विशेष ध्यान दिया है। कई कानून बनाकर विकास और परिवहन की सुविधाओं में आने वाले रोड़े दूर किए हैं। हम पर्यटन के प्रति नया नजरिया अपना कर न केवल विदेशी सैलानियों की संख्या बढ़ा सकते हैं, बल्कि अपने नागरिकों को भी देशाटन की अच्छी सुविधाएं दे सकते हैं। इससे न केवल  अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार के मौके भी बढ़ेंगे। प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन को भी बल मिलेगा। सही माइनों में ‘अतिथि देवो भव’ की हमारी मान्यता को ठोस आकार मिल सकेगा।

मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक संपन्नता और समृद्धि को विदेशियों के लिए शोकेस करना चाहिए। पश्चिमी देशों में पारिवारिक मूल्य लड़खड़ा रहे हैं या टूट-फूट रहे हैं, इससे वहां के समाज में कुंठा बढ़ती जा रही है। हालांकि भारत में एकल परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन देश में आज भी संयुक्त परिवार प्रणाली जीवित है। एक ऐसी प्रणाली, जिससे परिवार और समाज सकारात्मक तौर पर एक-दूसरे के सुख-दुख से बंधे रहते हैं। हमें अपनी सामाजिक संतुष्टि की भावना को भी शोकेस करना चाहिए। आज भी हमारे गांवों के लोग बहुत से भौतिक साधनों के बिना पूरी तरह संतुष्ट जीवन बिता रहे हैं। जिस तरह हमने योग को पूरी दुनिया में शोकेस किया है, उसी तरह भारतीय जीवन पद्धति के दूसरे सकारात्मक मूल्यों के जरिए विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया जाना चाहिए। ऐसे गांव चिन्हित हों, जहां हैरिटेज टूरिज्म के साधन हों, संयुक्त परिवार चिन्हित हों, वहां सैलानियों को ले जाया जाए, तो यकीनन हम पर्यटन के प्रति नए नजरिये का विकास करेंगे।

हमें देश के ऐतिहासिक स्थलों को लोगों के लिए उदारता के साथ खोल देना चाहिए। सभी जानते हैं कि कोई चीज तब तक ही कारगर रहती है, जब तक कि उसे इस्तेमाल में लिया जाए। नई कार को अगर एक जगह पर खड़ी कर दें, तो कुछ महीने बाद ही वह बेकार हो जाएगी। इसी तरह किसी इमारत का इस्तेमाल नहीं होने की स्थिति में धीरे-धीरे वह खंडहर में जाएगी। आज देश में ऐसी बहुत सी इमारतें और हवेलियां हैं, जिनमें कोई नहीं रहता, फलस्वरूप वे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई हैं। बहुत सी बावड़ियां हैं, जो मरती जा रही हैं या मर चुकी हैं। ऐसे सभी मॉन्यूमेंट्स में सार्वजनिक गतिविधियां शुरू होनी चाहिए। क्यों नहीं हम बावड़ियों को स्विमिंग पूल में बदल सकते? क्यों नहीं दिल्ली के पुराने किले जैसी देश की सभी जगहों पर अच्छे रेस्तरां का विकास किया जा सकता? इससे सरकारी खजाने में भी बढ़ोतरी होगी और लोगों के मन में भी वहां जाने का आकर्षण बढ़ेगा।

मैं तो चाहता हूं कि दिल्ली के लालकिले में शादियों की इजाजत दी जानी चाहिए। ऐसी एक ईवेंट के धनवान लोग करोड़ों रुपए की फीस भरने को तैयार हो जाएंगे। इस तरह की ईवेंट प्रतिष्ठित कंपनियों के माध्यम से कराई जा सकती हैं। इसके लिए दीवान-ए-खास, दीवान-ए-आम और बारादरियों जैसी संरक्षित जगहों को छोड़कर, मैदानों का इस्तेमाल करने में क्या हर्ज है? खाली मैदान में मुगल-राजपूती या दूसरी शैलियों में शामियाने लगाए जाएं। फर्नीचर पर भी वही छाप हो। दूल्हे हाथी या घोड़े पर बैंड-बाजे और खास तौर पर सजे-धजे बारातियों के साथ लाल किले के प्रवेश द्वार से अंदर जाएं, तो समां देखने लायक होगा। देश में बहुत से धनवान हैं, जो इस तरह के वैन्यू को हाथों-हाथ लेंगे। क्योंकि ऐसी शादियों या दूसरे समारोहों में बड़े और प्रतिष्ठित लोग ही शामिल होंगे, लिहाजा किले की ऐतिहासिकता को कोई नुकसान पहुंचने की आशंका नहीं है। समारोह क्योंकि मैदानों में होंगे, तो इससे ऐतिहासिक जगहों को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। कभी दिल्ली के मेयर खास लोगों का सम्मान लाल किले में करते थे। अब क्यों ऐसा नहीं होता? लाल किले में सांस्कृतिक आयोजन अब क्यों नहीं होते, विदेश से आने वाली हस्तियों को किले का भ्रमण क्यों नहीं कराया जाता, अगर इमारतों की हालत खराब होने की दलील पर ऐसा नहीं होता, तो क्या बिना गतिविधियां चलाए हालत खराब नहीं हो रही है? क्यों नहीं लाल किले के चारों तरफ बनी खाई का विकास कर वहां बोटिंग कराई जाती?

आगरा में ताज महल देखने हर साल लाखों देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं। ऐसे और भी बहुत से पर्यटन स्थल हैं। दिल्ली से आगरा तक रेलवे लाइन के दोनों तरफ पर्यटन को बढ़ावा देने और राजस्व में वृद्धि करने के लिए सजावट की जा सकती है। ऐसे और रेल रूटों पर भी यह व्यवस्था की जा सकती है। होटलों के अलावा सैलानियों को ठहराने के लिए पूरे देश में घरों को चिन्हित किया जा सकता है। हमारी सरकार की कोशिशों का ही नतीजा है कि 2016 में विदेशी पर्यटकों की संख्या 10.7 प्रतिशत बढ़ी और 88.9 लाख सैलानी भारत आए। वर्ष 2015 में 80.3 लाख विदेशी भारत आए थे। पिछले वर्ष पर्यटन से विदेशी मुद्रा 15.1 प्रतिशत बढकर 155656 करोड़ रुपए रही। 2015 में विदेशी सैलानियों की वृद्धि दर में 4.5 का इजाफा हुआ। 2014 में 76.8 लाख विदेशी आए। यूएस डॉलर में पर्यटन से विदेशी मुद्रा आय वर्ष 2014 की तुलना में वर्ष 2015 में 4.1 फीसदी की वृद्धि के साथ 21071 मिलियन यूएस डॉलर रही, जो 2016 में 9.8 फीसदी बढ़कर 23146 मिलियन यूएस डॉलर हो गई। घरेलू पर्यटकों की संख्या भी बढ़ी है। उनकी संख्या 2014 में 1282.8 मिलियन थी, जो 2015 में 11.63 फीसदी बढ़कर 1432 मिलियन रही। देश के जीडीपी में पर्यटन का योगदान 2012-13 में बढ़कर 6.88 प्रतिशत रहा, तो इसी वर्ष रोजगार में योगदान बढ़कर 12.36 प्रतिशत हो गया। आगे के आंकड़ों की अभी गणना चल रही है। अगर हम देश की धरोहरों को खोलेंगे और जनता पर भरोसा करेंगे, तो इन आंकड़ों में अभूतपूर्व वृद्धि निश्चित है। दिल्ली मेट्रो की चमक-दमक लोगों पर भरोसे का ही नतीजा है। 

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My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.

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