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हर कोई करे पृथ्वी को बचाने का काम
विजय गोयल
(लेखक केंद्रीय युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री हैं)
घर-परिवार में किसी बच्चे को जरा सा भी बुखार आ जाए, तो माता-पिता सारे काम छोड़ कर उसे डॉक्टर के पास लेकर दौड़ते हैं। कीमत कुछ भी हो, डॉक्टर की लिखी दवाएं लेते हैं और बताए गए दूसरे उपाय भी करते हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि हम इस तरफ से आंखें मूंदे बैठे हैं कि हमारी धरती और हमारा पर्यावरण धीरे-धीरे मरता जा रहा है। धरती पर जीवन की संभावना ही खत्म होती जाएगी, तो हमारी भौतिक चमक-दमक का क्या होगा ? यह सवाल पता नहीं दुनिया के सभी बाशिंदों को परेशान क्यों नहीं करता ? हर साल पांच जून को पूरी दुनिया में पर्यावरण दिवस मनाया जाता है और इस दिन बहुत से औपचारिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दुनिया भर की सरकारें संकल्प लेती हैं, कार्यक्रम घोषित किए जाते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों को लगता है कि इससे उनका कोई सरोकार नहीं है। सच्चाई यही है कि वैश्विक भूमंडल तब तक सेहतमंद नहीं रह सकता, जब तक धरती पर रहने वाले सारे मनुष्य अपनी नागरिकीय जिम्मेदारी निभाना शुरू नहीं करते।
दुनिया की सेहत
पर्यावरण और अन्य गंभीर विषयों पर शोधपरक सामग्री छापने वाली पत्रिका ‘नेचर’ के विशेषांक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि धरती पर इंसानी जीवन खत्म होने की तरफ बढ़ रहा है। ऐसा पहली-दूसरी नहीं, बल्कि छठी बार होने जा रहा है। चेतावनी यह भी दी गई है कि धरती पर रहने वाले स्तनधारियों तथा पानी और हवा में जीवन व्यतीत करने वाले जीवों के अस्तित्व पर संकट इस बार पिछली पांच बार के मुकाबले ज्यादा तेजी से नजदीक आ रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में 50 हज़ार साल पहले, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में 10 से 11 हज़ार साल पहले और यूरोप में तीन हज़ार से 12 हजार साल पहले इंसानी छेड़छाड़, शिकार, दूसरी कुदरती आपदाओं और जलवायु में बदलाव की वजह से बड़े पैमाने पर जीवन विलुप्त हुआ है।
तीन हजार साल पहले तक दुनिया दुनिया में मौजूद स्तनधारी प्रजातियों में से करीब आधी समूल नष्ट हो चुकी हैं। धरती पर पिछले 50 साल के दौरान इंसानों की आबादी में 130 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2060 तक दुनिया की आबादी 10 अरब से ज्यादा होने का अनुमान है। दुनिया की आबादी बढ़ने के साथ ही लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए हर स्तर पर संसाधनों में कमी आ रही है। खेती की जमीन लगातार कम होती जा रही है। जमीन के नीचे मौजूद पानी का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है। जैविक संसाधनों का दोहन बहुत ज्यादा होने लगा है। खाद्यान्न के उत्पादन में असंतुलन आता जा रहा है। इस बारे में वैश्विक स्तर पर संकल्प नहीं किए गए, तो कुदरत से मिलने वाले सभी लाभों में भारी कमी हो जाएगी।
ऐसा नहीं है कि लोगों ने इस तरफ सोचना और उस पर अमल करना शुरू नहीं किया है, लेकिन जितना काम होना चाहिए, उतना नहीं हो रहा है। इसके लिए हममें से हरेक नागरिक को अपने स्तर पर काम शुरू करना होगा। बहुत छोटे-छोटे काम करके, बहुत छोटे-छोटे फैसले कर हम धरती को बचाने का दायित्व निभा सकते हैं। सप्ताह में एक दिन व्रत रखें, एक दिन क्यारियों को न सींचें, एक दिन कूलरों में पानी न डालें, एक दिन सार्वजनिक वाहनों से ही चलने का संकल्प लें, एक दिन या कुछ घंटे ए.सी. न चलाएं, आसपास कूड़ा-कचरा न खुद जलाएं और न किसी को जलाने दें, ऐसे बहुत से काम हैं, जो आसानी से किए जा सकते हैं और इन्हें करने के लिए आपको किसी की मदद की भी नहीं लेनी होगी।
हमारे समाज में एक और प्रवृत्ति घर करती जा रही है कि हम जरूरत से ज्यादा खाद्य सामग्री बना लेते हैं और अगले दिन उसे कूड़े में फेंक देते हैं। होटलों, रेस्टोरेंटों में भी बड़े पैमाने पर खाने की सामग्री की बर्बादी की जाती है। अभी बहुत सी संस्थाएं इस बेकार हो चुके खाने का इस्तेमाल रोटी बैंक या अन्य तरीकों से समाज के भूखे लोगों को खिलाने के लिए करने लगी हैं, लेकिन अगर हम घर पर ही स्वयं को संयत कर लें, तो बहुत सा खाना बचाया जा सकता है। खाना ज्यादा नहीं बनेगा, तो हो सकता है कि हम हफ्ते में एक दिन फ्रिज भी बंद रख सकें। ये ऐसे उपाय हैं, जिन्हें अपना कर हम दुनिया की सेहत सुधारने में योगदान दे सकते हैं। सोचेंगे, तो और भी बहुत से उपाय आपके जेहन में आएंगे।
कहाँ हैं पक्षी
लोगों को लगता है कि पर्यावरण दिवस का संदेश केवल वृक्षारोपण है। वृक्ष तो लगने ही चाहिए, लेकिन और भी बहुत कुछ करना होगा। सरकारें तो अपने स्तर पर कोशिशें करती ही हैं, लोग भी अगर अपनी जिम्मेदारी समझेंगे, तभी असली मकसद हासिल किया जा सकता है। गौर कीजिए, अपने घर के आसपास, मुंडेर पर, पेड़ों पर आपने किसी पक्षी की आवाज कितने दिनों से नहीं सुनी है ? पहले तो पक्षियों के मुंडेर पर बोलने को लेकर कहावतें भी थीं, लेकिन अब कहावतें छोड़िए, पक्षी ही दिखाई नहीं देते। पित्र पक्ष में कौवों को भोजन कराने का रिवाज है, लेकिन वे आसपास से गायब हो चुके हैं। पुराने घरों में गौरेया घोंसले बना लेती थीं, तो घर वाले उन्हें उड़ाते नहीं थे। छतों पर हरे-हरे तोतों के झुंड नजर आते थे। लेकिन अब यह सब बदलता जा रहा है। अगर हमें अपने इस घर यानी दुनिया को बचाना है, तो बहुत कुछ सोचना और करना होगा। चलिए आज से ही नई शुरूआत करते हैं।
तू-तू, मैं-मैं कब छोड़ेंगे
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
अक्सर मैं सोचता हूं कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हम कैसे-कैसे मुद्दों पर सियासत करने को मजबूर हैं। हम संविधान के हिसाब से देश चला रहे हैं। संविधान निर्माताओं के सामने जो हालात नहीं थे, उनके बनने पर हम संविधान में सवा सौ के क़रीब संशोधन भी कर चुके हैं। फिर भी बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर अगर लोकतंत्र की बहुत सी ऊर्जा दो तिहाई सदी गुज़र जाने के बाद भी ख़र्च हो रही है, तो अफ़सोस की बात है।
असल परेशानी की बात यह है कि ये ऐसे मुद्दे हैं, जो संवैधानिक स्तर पर पेचीदा हरग़िज़ नहीं हैं, बल्कि रोज़मर्रा के हमारे खान-पान, पहनावे, बोल-चाल, तीज-त्यौहार, पूजा-पाठ यानी हमारे सामाजिक बर्ताव से ही जुड़े हैं। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि सभी राजनीतिक पार्टियां संसद के अंदर या बाहर एक बार मिल-बैठकर इनका स्थाई समाधान निकाल लें, एक सीमा-रेखा खींच लें और फिर बार-बार होने वाले बवाल से बच-बचाकर देश के विकास की सियासत करें।
पिछले दिनों महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का मुद्दा छाया रहा। सभी धर्मों के विद्वान इस मसले पर एक साथ बैठकर विचार क्यों नहीं कर सकते? वैसे मेरी राय में तो ये मसला विचार किए जाने लायक भी नहीं है। जब पूरी दुनिया महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे रही है, और हमारे देश में भी पढ़े-लिखे समाज का नज़रिया भी यही है, तो फिर दिक्क़त क्या है? महिलाएं मंदिरों या कहूं कि तमाम धर्मों के पूजा स्थलों, इबादतगाहों में क्यों नहीं जा सकतीं? मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ पर भी एक बार देशव्यापी बहस हो जाए और फिर जो मौजूदा समाज के लिए सही है, वह तय कर लिया जाए।
मुस्लिम महिलाओं के काज़ी बनने के मसले पर भी इसी तरह फ़ैसला कर लिया जाए। इसी साल फ़रवरी में राजस्थान में अफ़रोज़ बेग़म और जहांआरा के काज़ी बनने के ऐलान पर मुस्लिम संगठनों ने विरोध जताया था। दोनों महिलाओं ने मुंबई के दारुल उलूम निस्वान से काज़ी बनने का दो साल का प्रशिक्षण बाक़ायदा हासिल किया है, लेकिन कुछ मुस्लिम संगठनों का कहना है कि कोर्स करना तो सही है, लेकिन वे काज़ी की भूमिका नहीं निभा सकतीं। उन्हें निकाह और मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने का हक़ नहीं है। इसी तरह का एक मसला पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सामने आया था।
एक शिया महिला काज़ी ने एक सुन्नी जोड़े का निकाह पढ़ाकर नई मिसाल तो पेश कर दी, लेकिन कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं के गले ये बात नहीं उतरी। महिला काज़ी डॉ. सईदा हमीद ने महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली नाइश हसन का निक़ाह दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने वाले इमरान नईम से कराया था। लेकिन सुन्नी धर्मगुरु इसके ख़िलाफ़ हैं और इसे शरीयत के ख़िलाफ़ क़रार दे रहे हैं।
मेरा मानना है कि इसी तरह के तमाम मसले शिया-सुन्नी धर्मगुरु एक मंच पर बैठकर प्रोग्रेसिव नज़रिए से तय क्यों नहीं कर लेते? पहले हम लंबे समय से चले आ रहे मसलों पर एक राय बना लें और फिर जब नए मसले आएं, तो फिर मिल-बैठ कर एक कोई हल निकाल लिया जाए।
इसी तरह, पिछले दिनों गौमांस और बीफ़ को लेकर काफ़ी बवाल देश में एक बार फिर हो चुका है। उस दौरान तमाम पहलुओं पर सरकार, विपक्ष, हिंदू- मुस्लिम-सिख- ईसाई समुदायों के नज़रिये सामने आए थे, लेकिन संविधान और भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा होने के बावजूद सामाजिक स्तर पर कोई एक राय देश के सामने नहीं आई। अब भी ऐसे कई मामले अदालतों में हैं। छह मई को ही बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र में गौमांस और बीफ़ को लेकर अहम फ़ैसला सुनाया है। इसके तहत हाईकोर्ट ने राज्य में गौवंश के वध पर पाबंदी को तो सही ठहराया है, लेकिन राज्य के बाहर से लाए गए बीफ़ के सेवन को ग़ैर-क़ानूनी नहीं माना है। हाईकोर्ट ने तो फ़ैसला सुना दिया है, लेकिन बीफ़ डीलर एसोसिएशन ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बनाया है। महिलाओं के इबादतगाहों में जाने का मसला हो, तीन तलाक़, महिला क़ाज़ी जैसे मसले हों या फिर मांसाहार का मामला या फिर धार्मिक आयोजनों में पशु-बलि का मुद्दा, ये सब हैं तो सामाजिक या धार्मिक मामले, लेकिन इन्हें तय करने के लिए देश की न्यायपालिका पर अक्सर काफ़ी दबाव रहता है। ऐसे में जबकि अदालतों पर बढ़ते बोझ और जजों की कमी का ज़िक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की आंखें डबडबा जाती हों, तब कम से कम इस तरह के मामले अदालतों तक नहीं जाएं, यही मुनासिब होगा।
मगर इसके लिए सामाजिक स्तर पर माहौल बनेगा कैसे, यह बड़ा सवाल है। जिस दिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीफ़ को लेकर फ़ैसला सुनाया है, उसी दिन इत्तेफ़ाक से वॉशिंगटन से एक शोध रिपोर्ट मांसाहार को लेकर जारी हुई है।
प्रसंगवश, इसका ज़िक्र करना ज़रूरी लग रहा है। रिपोर्ट कहती है कि रोज़ाना मांसाहार जिंदगी को कम कर देता है। मायो क्लीनिक के शोधकर्ताओं ने 15 लाख मांसाहारी और शाकाहारी लोगों पर सर्वे किया। जर्नल ऑफ़ द अमेरिकन ऑस्टियोपैथिक एसोसिएशन में प्रकाशित सर्वे के नतीजों के मुताबिक़ 17 साल तक शाकाहारी भोजन लगातार किया जाए, तो व्यक्ति की उम्र में साढ़े तीन साल का इज़ाफ़ा हो जाता है।
बहरहाल, मैं यहां शाकाहार के पक्ष या मांसाहार के ख़िलाफ़ कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। किन्तु यह ज़रूर चाहता हूं कि किसी भी तरह तमाम उन सामाजिक मसलों पर कोई आम राय बननी चाहिए, जो बार-बार सामने आते हैं और कई बार तो हिंसक रूप में। देश में सामाजिक मसलों पर कोर्ट-कचहरियों के मुक़ाबले धर्मगुरुओं की राय का ज़्यादा सम्मान होता रहा है। देश में अगली जनगणना वर्ष 2021 में हो सकती है। जिसके आधार पर 2026 में लोकसभा सीटें बढ़ने की संभावना है।
अगली जनगणना में हर धर्म में महिला अधिकारों, सामाजिक स्तर पर उठने वाली कुछ समस्याओं को लेकर देश के लोगों की राय जुटा सकते हैं। वह राय भले ही हमारे संवैधानिक ढांचे के तहत बाध्यकारी नहीं हो सकती, लेकिन धर्म और समाज के ठेकेदारों पर दबाव तो बना ही सकती है। हमारे संसदीय लोकतंत्र की आंखें तो खोल ही सकती है।
खुल ही गई पोल
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
देश की राजधानी दिल्ली में ऑड-ईवन नंबरों की गाड़ियां अलग-अलग तारीख़ों पर चलाने की योजना थोप कर दिल्ली सरकार ने केवल और केवल झूठी तारीफ़ें बटोरने का ही काम किया है, इसकी पोल आख़िरकार खुल ही गई है।
मैं शुरू से ही इसका विरोध कर रहा हूं, लेकिन अब दिल्ली सरकार की पोल खोली है, सड़क परिवहन और हाईवे मंत्रालय के एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट यानी टेरी ने। क्या दिल्ली सरकार टेरी के आंकड़ों को झुठला पाएगी? और अब तो दिल्ली सरकार को यह भी बताना होगा कि अपनी योजना को कामयाब बताते वक़्त उसने जो आंकड़ेबाज़ी की, वह झूठ का पुलिंदा क्यों नहीं था? क्या कोई सरकार अपने लोगों से इस तरह झूठ बोलकर अपनी पीठ थपथपा सकती है? दिल्ली के लोगों को आप की सरकार से इस बारे में खुलकर सवाल पूछने चाहिए। 10 मई को जारी किए गए टेरी के आंकड़ों के मुताबिक़ ऑड-ईवन फ़ेज़ दो, यानी 30 अप्रैल तक घोषित की गई योजना के नतीजे फ़ेज़ एक यानी जनवरी में लागू की गई योजना के नतीजों से बेहतर नहीं हैं।
मैं पहले भी बता चुका हूं कि जनवरी की स्कीम से लोगों को इसलिए ज़्यादा दिक्क़त नहीं हुई थी, क्योंकि उस महीने में छुट्टियां ज्यादा थीं। जनवरी में घरों से बाहर लोग कम ही निकले। टेरी की रिपोर्ट ने अब इस बात पर मुहर लगा दी है। अप्रैल के ऑड-ईवन में दिल्ली में कारों की संख्या में केवल 17 फ़ीसदी की कमी आई, जबकि जनवरी में दिल्ली में लागू किए गए ऑड-ईवन के दौरान राजधानी की सड़कों पर 21 फ़ीसदी कारें कम चलाई गईं थीं। टेरी के मुताबिक़ फ़ेज़ एक में पीएम 2.5 के स्तर में सात प्रतिशत की कमी आई थी, जबकि फ़ेज़ दो में महज़ चार फ़ीसदी की ही कमी आई। टेरी का कहना है कि ऐसी योजना तभी चलाई जानी चाहिए, जब दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर बेहद बढ़ा हुआ हो। यानी इसे इमरजेंसी के तौर पर ही लागू किया जाना चाहिए। पूरे साल इस योजना को लागू रखने से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। टेरी का यह सुझाव भी सही है कि वाहनों के चलाए जाने पर पाबंदी से बेहद ज़रूरी ये है कि प्रदूषण के स्रोत नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फ़र डाई ऑक्साइड और अमोनिया के स्रोतों पर कड़ाई से अंकुश लगाया जाए।
हो सकता है कि हर मामले की तरह दिल्ली सरकार टेरी की रिपोर्ट को भी उसे बदनाम करने की साज़िश करार देकर ख़ारिज कर दे। लेकिन उसके मुताबिक़ अगर फ़ेज़ दो का ऑड-ईवन अच्छे नतीजे वाला था, तो फिर इस पर एक साल के लिए उसने रोक क्यों लगा दी है? अब सरकार कह रही है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पूरी तरह दुरुस्त करके ही इस योजना को फिर लागू किया जाएगा। यह भी अच्छी बात है, लेकिन अगर यह योजना ही अंतिम कारगर उपाय है, तो पब्लिक के लिए तो जब ये योजना लागू होगी, तब की तब देखा जाएगा, लेकिन दिल्ली सरकार के लोग इसे ख़ुद पर हमेशा के लिए क्यों लागू नहीं कर रहे हैं? ख़ुद तो वे इसका पालन बाक़ी के कार्यकाल तक कर ही सकते हैं।
इससे मिसाल तो क़ायम हो ही सकती है। पूरी दिल्ली में दिल्ली सरकार और उसके लिए काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों के लाखों वाहन तो रोज़ दौड़ते ही हैं। दम है तो सरकार के मंत्री, अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए दिल्ली सरकार इस योजना को अनिवार्य करके दिखाए। मिसाल क़ायम करने के लिए अगर सरकार ऐसा करेगी, तो पब्लिक तो बाद में ख़ुद ही मान जाएगी।
मेरा दावा है कि अगर हम दिल्ली में असरदार ट्रांसपोर्ट सिस्टम का विकास कर लें, तो सड़कों पर वाहनों की संख्या अपने आप कम हो जाएगी। दिल्ली की सड़कों पर सुबह-शाम और कई बार तो दिन भर जाम लगने से भी वायु प्रदूषण की समस्या बढ़ती है। रोज़ करोड़ों रुपए का ईंधन बर्बाद होता है, सो अलग। हज़ारों लोग कई-कई घंटों तक सड़कों पर जाम खुलने का इंतज़ार करने के लिए अभिशप्त हैं। अगर काम के घंटों के नुकसान के तौर पर इसकी गणना की जाए, तो चौंकाने वाले नतीजे आएंगे। दिल्ली जाम मुक्त हो जाए, तो श्रम के घंटों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो सकती है। सरकार को इन गंभीर मसलों की तरफ़ ईमानदारी से सोचना चाहिए, न कि सुर्ख़ियां बटोरने के लिए कुछ भी आनन-फ़ानन में लागू कर देना चाहिए।
दिल्ली में कार ख़रीदने का क्रेज़ बहुत ज़्यादा है। इसे कम करना थोड़ा मुश्किल काम है, लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाकर सड़कों का लोड तो कम किया ही जा सकता है। ऐसा नहीं है कि मैं वायु प्रदूषण के मामले में केवल दिल्ली सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर रहा हूं। क्योंकि बात मेरे, मेरे परिवार और मेरी दिल्ली के सभी लोगों की सेहत से जुड़ी है, लिहाज़ा अगर केंद्र सरकार भी इसमें कोताही बरतती है, तो उसे भी चौकन्ना होना होगा। विज्ञान प्रोद्योगिकी, पर्यावरण और वन संबंधी स्थाई संसदीय समिति की मई महीने में ही रखी गई रिपोर्ट गंभीर सवाल उठा रही है।
समिति के मुताबिक़ प्रदूषण से निपटने के मामले में पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का काम उम्मीद के मुताबिक़ नहीं है। दिसंबर, 2015 तक पर्यावरण मंत्रालय अपने बजट का केवल 35 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर पाया था। इससे पता चलता है कि वह भी कितना गंभीर है और उसके पास योजनाओं की कमी है। इस स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है। दिल्ली सरकार को मेरी सलाह है कि वह केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ मुंह-ज़ुबानी ज़हर उगलना बंद करे और मिल-जुल कर दिल्ली के लोगों की भलाई के लिए काम करे। ख़ाली गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। दिल्ली के लोग सयाने हैं। वे जानते हैं कि काठ की हांड़ी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ सकती। सब्ज़बाग दिखाकर उन्हें बार-बार बरगलाया नहीं जा सकता।
पानी राखिए, सियासत फेंकिये
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सांसद हैं)
हम कभी सोच सकते थे कि पानी को लेकर देश में संकट इस क़दर गहरा सकता है कि ट्रेन से पानी एक से दूसरी जगह भेजने को मजबूर होना पड़ेगा? पानी हमारी ज़िंदगी के लिए उतना ही ज़रूरी है, जितनी कि हवा और खाना। हवा को लेकर देश की राजधानी में जिस तरह सियासत की जा रही है, वह भी चिंता की बात है। लेकिन अगर आम लोग प्यास से दम तोड़ने की कगार पर पहुंच रहे हों और कोई आपको पानी देने की पेशकश कर रहा हो, तब क्या दिक्क़त हो सकती है? परेशानी यह सोचकर होती है कि आज जिंदगी के लिए सबसे ज़रूरी क़ुदरती चीज़ों को लेकर भी पार्टियां सियासत करने में जुटी हैं। इससे तो लगता है कि लोकतंत्र का ‘लोक’ अब सियासत के केंद्रबिंदु में रह ही नहीं गया है।
हर मुद्दे को भुनाने में लगी दिल्ली की आत्मकेंद्रित सरकार ने इसमें भी सियासत तलाश ही ली। आप सरकार ने पेशकश की कि अगर केंद्र चाहे, तो वह भी पानी की रेलगाड़ी लातूर भेज सकती है। आप सरकार ने यह नहीं देखा कि दिल्ली के कई-कई इलाक़ों में लोग एक-एक बूंद पानी को तरस रहे हैं। पानी को लेकर केंद्र की पेशकश पर उत्तर प्रदेश सरकार पैंतरे दिखा रही है। पहले से ही सूखे, ग़रीबी और ख़ुदकुशियों को लेकर सियासत के शिकार रहे यूपी के बुंदेलखंड के लोगों के साथ अब पानी की सियासत शुरू कर दी गई है। केंद्र लोगों की प्यास बुझाना चाहता है, लेकिन सत्ता के दांव-पेंचों को लगता है कि इसमें तो उनकी किरकिरी होती नज़र आ रही है, लिहाज़ा केंद्र की वॉटर ट्रेन रास्ते में रोक दी जाती है।
यह तो वैसा ही दुराग्रह हुआ, जैसा कि पुराने ज़माने की कई भ्रष्ट कहानियों में मिलता है। मसलन, एक ब्राह्मण ने शूद्र के हाथों से पानी नहीं पिया और अंतत: अपनी जान दे दी। ब्राह्मणत्व की मशाल हाथ में लेकर समाज के भोले-भाले लोगों को भरमाने के पाखंड को बढ़ावा देने वालों ने ऐसी कहानियां गढ़ी थीं। लेकिन अब चिंता की बात यह है कि ऐसी कई कहानियां सच होती दिख जाती हैं। राजस्थान के दूरदराज़ इलाक़ों में पानी के बहुत से कुंडों पर ताले लगाए जाने और वहां बंदूकों के साथ पहरा देने की ख़बरें आजकल आम हो गई हैं। ऐसी ख़बरें भी हर गर्मी के मौसम में मिल ही जाती हैं कि सवर्णों के पानी के स्रोत पर दलितों को फ़टकने तक नहीं दिया जाता। मजबूरन कोई पहुंच भी जाए, तो उसके साथ बेहद बुरा बर्ताव किया जाता है। कई बार हत्याकांड तक अंजाम दे दिए जाते हैं।
यूपी सरकार कह रही है कि उसे पानी से भरे नहीं, बल्कि ख़ाली वैगन चाहिए, जिससे कि बुंदेलखंड के पानी वाले इलाक़ों से उन्हें भरकर ज़रूरत की जगहों पर भेजा जा सके। सरकार का यह भी कहना है कि उसके पास केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए पानी को रखने का इंतज़ाम नहीं है। कितनी हास्यास्पद बात है। चिंता की बात यही है कि पानी को लेकर इस तकरार या कहूं कि सियासी अहम की लड़ाई में प्यास से दम तोड़ रहे आदमी के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा जा रहा है। अगर हम समाज की सांस्कृतिक परंपराओं का ध्यान करें, तो भी उत्तर प्रदेश सरकार को अपनी ढपली-अपना राग अलापने की बजाए केंद्र सरकार की दरियादिली की तारीफ़ ही करनी चाहिए। हमने तो बचपन से यही सीखा है कि अगर किसी को कोई बर्तन भेजना है, तो उसे ख़ाली नहीं भेजना चाहिए। बचपन में अगर मैं किसी दोस्त का टिफ़िन घर ले आता था, तो मां उसे वापस भेजते समय उसमें मिठाई, फल या खाने-पीने की कोई दूसरी चीज़ भरकर ही लौटाती थी। मैं पूछता कि ऐसा क्यों कर रही हो, तो कहती कि बेटा हमने अपने बुज़ुर्गों से यही सीखा है।
उत्तर प्रदेश ने केंद्र से दस हज़ार ख़ाली टैंकरों की मांग की है। अगर केंद्र ने पहल पानी भरे टैंकर भेजकर की है, तो सियासत की बजाए पानी ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने का काम जल्द से जल्द किया जाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि पानी सभी को उपलब्ध रहे, इसकी ज़िम्मेदारी राज्यों की है।
यूपी सरकार ने साल 1998 में नोटिफ़िकेशन जारी किया था कि ज़मीन के नीचे बोरिंग का काम सेंट्रल ग्राउंड वाटर अथॉरिटी की इजाज़त के बिना नहीं किया जा सकेगा। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग़ाज़ियाबाद में ही साल 2015 तक किसी ने भी बोरिंग के लिए कोई आवेदन नहीं दिया था। यह जानकारी ज़िला प्रशासन ने एक आरटीआई के जवाब में दी। जबकि हक़ीक़त यह है कि इस दौरान हज़ारों सोसायटियों में ज़मीन के अंदर का पानी इस्तेमाल करने के लिए धड़ल्ले से बोरिंग कराई गई है। जब ये हालत दिल्ली से सटे एनसीआर की है, जहां हज़ारों की संख्या में बिल्डर प्रोजेक्ट बन रहे हैं, तो फिर बुंदेलखंड जैसे दूरदराज़ इलाक़ों में क्या हो रहा होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। हां, यह बात ज़रूर है कि वहां एनसीआर के मुक़ाबले निर्माण कार्य नहीं के बराबर हो रहे हैं। फिर भी जिनके पास पैसा है, वे तो बोरिंग करा ही रहे हैं। असल मरना तो ग़रीब का है और उसी ग़रीब तक पानी पहुंचने की राह में अहम की सियासत आड़े आ रही है।
ऐसे वक़्त में जब पूरी दुनिया पानी को लेकर परेशान है। कहीं ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है और मॉलदीव जैसे देश के डूब जाने का ख़तरा मंडरा रहा है, तो कहीं पीने तक को एक बूंद पानी नहीं है, तब इस मसले पर राजनीति न की जाए, बल्कि केंद्र और राज्य मिलकर समस्या के समाधान की तरफ़ आगे बढ़ें, यही सही रहेगा। पानी मिल रहा है, तो ले लें। इनकार न करें। रहीम दास कह ही गए हैं-
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून,
पानी गए न ऊबरे, मोती- मानुस- चून।“
कहीं ऐसा न हो कि लोगों की प्यास भी न बुझ पाए और पानी में जाकर मोती,
मानुस यानी मनुष्य और चून यानी आटे की तरह सियासत भी उबर न पाए।
दिल्ली में जनप्रिय मोदी सरकार
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
देश की राजधानी दिल्ली में कौन पॉपुलर है? आप सरकार या फिर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार? रसोई गैस सब्सिडी वापस करने वालों की संख्या का आंकड़ा देखेंगे, तो आपको इस सवाल का जवाब बड़ी आसानी से मिल जाएगा।
पिछले साल जनवरी में पेट्रोलियम मंत्रालय ने अपनी मर्ज़ी से गैस सब्सिडी छोड़ने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान का नतीजा हमें बताता है कि अगर देश हित की बात, ग़रीबों तक आम सहूलियतें पहुंचाने की बात ईमानदारी के साथ की जाए, तो देश के सुविधा सम्पन्न लोग उसे ध्यान से सुनते हैं और यक़ीनन अमल भी करते हैं। एक और बात बशर्ते कहने वाला कौन है, ये भी काफी मायने रखता है। जहां तक रसोई गैस पर सब्सिडी छोड़ने के अभियान की सफलता की बात है, तो अभी तक एक करोड़ 13 लाख लोगों ने ऐसा कर देश के प्रति अपनी भावनाएं जताई हैं। मैं मानता हूं कि यह भी देश प्रेम की भावना को अभिव्यक्त करने जैसा ही है। भले ही यह भावना अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त की गई है, लेकिन देश के अपेक्षाकृत संपन्न लोगों का यह फ़ैसला गर्व से सिर ऊंचा करने वाला है।
आबादी के हिसाब से देखें, तो दिल्ली वालों ने गैस सब्सिडी छोड़ने की योजना को लेकर सबसे ज़्यादा उत्साह दिखाया है। राज्यों के हिसाब से देखें, तो अभी तक महाराष्ट्र सबसे अव्वल है और वहां 16 लाख, 44 हज़ार लोगों ने अपनी मर्ज़ी से गैस सब्सिडी छोड़ी है। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है। वहां क़रीब 13 लाख लोग अपनी मर्ज़ी से सब्सिडी छोड़ चुके हैं। तीसरे नंबर पर दिल्ली आती है, जहां सात लाख, 26 हज़ार लोगों ने मोदी सरकार की अपील मानते हुए गैस सब्सिडी से किनारा किया है।
यह जानना भी दिलचस्प होगा कि ऐसा नहीं है कि धन्ना सेठों ने ही ऐसा किया है। जिन लोगों ने अपनी मर्ज़ी से सब्सिडी छोड़ने का फ़ैसला किया है, उनमें केवल तीन फ़ीसदी लोग ही सालाना दस लाख रुपए से ज़्यादा की कमाई करते हैं। इससे साफ़ है कि मिडिल क्लास ने मोदी सरकार के इस अभियान को सिर-माथे पर लिया है। रसोई गैस सब्सिडी छोड़े जाने से केंद्र सरकार को पांच हज़ार करोड़ रुपए की बचत हुई है। ये रक़म ग़रीबों के घरों तक रसोई गैस कनेक्शन देने पर ख़र्च की जाएगी। पिछले साल सरकार ने अपना वादा निभाते हुए ग़रीबों को 60 लाख गैस कनेक्शन दिए थे। नई स्कीम में पांच करोड़ कनेक्शन के लिए आठ हज़ार करोड़ रुपए का ख़र्च तय किया गया है। इसके तहत पहले साल में डेढ़ करोड़ ग़रीबों को रसोई गैस कनेक्शन दिए जाएंगे।
मेरे लिए यह भी बेहद ख़ुशी की बात है कि मोदी सरकार ने लोगों से कहा था कि आप केवल एक साल के लिए रसोई गैस सब्सिडी छोड़ दें। साल भर बाद अगर चाहें, तो दोबारा सब्सिडी के लिए आवेदन कर सकते हैं। लेकिन अच्छी बात यह हुई है कि एक साल बीत जाने के बावजूद गैस सब्सिडी छोड़ने वाले एक भी शख़्स ने दोबारा यह सुविधा हासिल करने की अर्ज़ी नहीं दी है। इसे कहते हैं किसी की बात माना जाना। ये भारत के सामाजिक जीवन में लोगों का दुर्लभ बदलाव है, अच्छी बात यह भी है कि सब्सिडी छोड़ने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक मई को ग़रीबों को मुफ़्त एलपीजी कनेक्शन बांटने की योजना शुरू करेंगे।
अब आप ही बताइए कि दिल्ली सरकार इस आंकड़े को कैसे झुठलाएगी। आप सरकार को चाहिए कि वह अपने मुंह मिट्ठू मियां बनने की साज़िशें रचने से बाज़ आए और मोदी सरकार की लोकप्रियता की बात मान ले। दिल्ली सरकार ने दिल्ली के लोगों की चाहत बताकर जिस तरह वाहन चलाने की ऑड-ईवन स्कीम दोबारा लॉन्च की है, वह झूठा प्रचार है। आप सरकार ने अभी तक यह आंकड़ा सही तरीक़े से जारी नहीं किया है कि दिल्ली के कितने लोग उनकी इस योजना को दोबारा और आगे भी लागू किए जाने के पक्ष में हैं? दिखावे की राजनीति करते हुए दिल्ली सरकार ने दिल्ली के लोगों के टैक्स की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपए अपना चेहरा चमकाने के लिए बड़े-बड़े विज्ञापनों पर उड़ा दिए।
दावा किया जा रहा है कि दिल्ली के लोग ऑड-ईवन से बेहद ख़ुश हैं। लेकिन असल में हक़ीक़त कुछ और ही है। जिस पर बहुत सारे लोगों का ध्यान नहीं गया. एक छोटी गाड़ी रखने वाले दिल्ली के ज़्यादातर लोग ऑड-ईवन योजना से बुरी तरह त्रस्त हैं। ग़ौर कीजिए कि ये वही लोग हैं, जिन्होंने रसोई गैस सब्सिडी छोड़ने का देश से प्यार करने वाला फ़ैसला किया है।
साफ़ है कि दिल्ली सरकार मोदी सरकार से प्यार करने वाले दिल्ली वालों को हर तरह से परेशान करना चाहती है। अभी तो वह जो चाहे कर ले, लेकिन चुनाव में हक़ीक़त उसके सामने आ जाएगी। डंडा चलाकर, दो हज़ार रुपए जुर्माने का डर दिखाकर आप लोगों को दबा देंगे और फिर दावा करेंगे कि लोग आपके साथ हैं। फिर यही बात आप अपनी बड़ी-बड़ी तस्वीरों वाले विज्ञापनों में कह कर अपनी पीठ थपथपाएंगे, तो क्या आप दिल्ली के लोगों को मूर्ख समझ रहे हैं?
मोदी सरकार ने तो ऐसा कोई डर गैस सब्सिडी छोड़ने के लिए लोगों के मन में नहीं बिठाया। ऐसा कुछ नहीं किया गया, जिससे दस लाख रुपए से ज़्यादा सालाना आमदनी वाला तबक़ा एक बार सोचे कि अगर सब्सिडी मर्ज़ी से छोड़ने के अभियान में शामिल नहीं हुए, तो सरकार इनकम टैक्स का जाल बिछाकर या किसी और तरीक़े से ख़ांमख़ां तंग करेगी। लोगों को लगा कि ऐसा करना सबके हित में है, तो उन्होंने किया। क्यों नहीं केजरीवाल सरकार ऑड-ईवन की योजना को लोगों की मर्ज़ी पर छोड़ रही है? लोगों को अगर लगेगा कि इससे वास्तव में प्रदूषण कम होगा और उनकी सेहत पर असर पड़ेगा, तो वे ज़रूर इस पर अमल करेंगे। यह बात लोगों ने गैस सब्सिडी छोड़कर साबित कर दी है।
परेशानियाँ और फिजूलखर्ची ज्यादा
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
कोई योजना अगर पब्लिक के लिए अच्छी है, तो उसे एक बार ताल ठोककर लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए? ऐसा तो हरगिज़ नहीं हो सकता कि योजना तो आम लोगों के बेहतर भविष्य के लिए ठीकठाक है, लेकिन उसे लागू आंशिक तौर पर ही किया जाएगा और जब भी उस योजना को लागू किया जाएगा, तो हर बार अपनी तारीफ़ों के पुल बांधे जाएंगे। पूरी दिल्ली में अपनी पीठ ठोकने वाले होर्डिंग लगवाए जाएंगे। डीटीसी की सारी बसों पर भी स्टिकर-पोस्टर लगवा दिए जाएंगे।
अख़बारों, रेडियो और टीवी चैनलों पर भी जमकर ढिंढोरा पीटा जाएगा। यह सब करने के लिए पैसा किसकी जेब से जाएगा? ज़ाहिर है कि आम आदमी की जेब से ही जाएगा। सोमवार, 18 अप्रैल को बाक़ायदा चालान कटवा कर मैंने दिल्ली में ऑड-इवन नंबरों के आधार पर वाहन चलाने की स्कीम के पीछे दिल्ली सरकार की मंशा का ही विरोध किया है। मेरा विरोध योजना से नहीं है। इससे अगर दिल्ली में वायु प्रदूषण कम होगा, तो इससे मेरा और मेरे परिवार का भी भला होगा। लेकिन वायु प्रदूषण कम करने में ऑड-इवन योजना कितनी कारगर होगी, यह साबित होना अभी बाक़ी है। मैं तो शुरू से ही इस बात का विरोध कर रहा हूं कि किसी भी सरकार को जनता से मिले टैक्स के गलत इस्तेमाल का हक़ नहीं है। जनता के पैसे को अपनी इमेज चमकाने का ज़रिया बनाया जाना सही नहीं है।
दिल्ली को भ्रष्टाचार का अड्डा बताकर दिल्ली पुलिस पर निशाना लगाने का इरादा हो या शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति को धन्यवाद देने के लिए चप्पे-चप्पे पर बधाई संदेश छपवाने का मसला हो या फिर ऑड और इवन योजना के बड़े पैमाने पर प्रचार का मामला हो, दिल्ली सरकार हर बार दिल्ली के बाशिंदों के सेंटीमेंट से खेलकर अपना चेहरा चमकता हुआ दिखाती है। धन्यवाद दिल्ली वालों को दिया जाता है, लेकिन मंशा होती है अपनी इमेज बिल्डिंग की। अरे भाई, आप पार्टी फंड से इस तरह के विज्ञापन छपवाइए-चलवाइए, तो किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होगा। लेकिन अगर आप इस तरह दिल्ली वालों का पैसा अपने ऊपर ख़र्च करेंगे, तो सवाल पूछना तो लाज़िमी है ही।
दिल्ली सरकार हर महीने ऑड- इवन योजना 15 दिनों के लिए लागू करने का इरादा रखती है, तो फिर क्या विज्ञापनों पर जनता के करोड़ों रुपए हर महीने इसी तरह लुटाए जाएंगे? सरकार ढोल पीट-पीट कर कह रही है कि दिल्ली की जनता योजना को बेहद पसंद कर रही है। अगर ऐसा है, तो दिल्ली सरकार ने जुर्माने की रक़म दो हज़ार रुपए क्यों रखी है? क्या यह डरा-धमका कर अपनी योजना जनता पर थोपने का काम नहीं है? अगर दिल्ली सरकार में हिम्मत है और उसे दिल्ली वालों पर वाकई भरोसा है, तो जुर्माना वसूलने की बजाए, नैतिकता को ही आधार बनाया जाना चाहिए। दिल्ली सरकार एक बार ऐसा करके भी देख ले। सारा गुमान धरा रह जाएगा।
मेरा कहना है कि जो पैसा सरकार इस तरह की योजनाओं पर अपना चेहरा चमकाने के लिए ख़र्च कर रही है, वह पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर क्यों ख़र्च नहीं किया जाना चाहिए? अगर हमारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम दुरुस्त होगा, और बेहतर होगा, तो लोगों को महीने में 15 दिन नहीं, बल्कि हर दिन ऑड- इवन से भी कोई परेशानी नहीं होगी। दिल्ली की पिछली सरकार ने डीटीसी के मामले में जो आंकड़े पेश किए हैं, क्या दिल्ली की मौजूदा सरकार के पास उनका कोई जवाब है? क्या विज्ञापनों पर लुटाए गए करोड़ों रुपए से डीटीसी की हालत में सुधार लाने के लिए काम नहीं किया जाना चाहिए? साल 2012-13 में डीटीसी के बेड़े में 5445 बसें थीं। जनवरी, 2016 यानी आप सरकार के दौरान डीटीसी के पास बसों की संख्या 4421 ही रह गई। इसी दौरान डीटीसी में सफ़र करने वालों की संख्या में भी रोज़ाना औसत 3.68 लाख सवारियों में कमी आई। ज़ाहिर है कि बसें कम होंगी, तो सवारियों की संख्या घटेगी ही। आपके लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इसी दौरान डीटीसी की रोज़ाना आमदनी में भी 71 लाख रुपए कम हो गए। तो एक तो डीटीसी की कमाई घट गई, दूसरे ऑड- इवन के लिए लोगों को कथित तौर पर जागरूक करने के लिए करोड़ों रुपए जनवरी, 2016 में लुटाए गए और अब फिर लुटाए जा रहे हैं। साफ़ है कि दिल्ली की आप सरकार की मंशा लोगों की भलाई नहीं, बल्कि अपना प्रचार करना भर है। यह वास्तव में चिंता की बात है कि वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, ध्वनि प्रदूषण और जल प्रदूषण भी बेहताशा बढ़ रहे हैं। ऐसे में लोगों को संयम से काम लेना चाहिए। ईंधन की बर्बादी भी पूलिंग की मानसिकता विकसित कर रोकी जा सकती है। लोगों में समाज के प्रति जवाबदेही की भावना विकसित अब होनी ही चाहिए, लेकिन कोई डंडे के बल पर ऐसा कराने की कोशिश कर रहा हो, तो आप उसे दिखावे की राजनीति ही कह सकते हैं। मुंबई के बाद दिल्ली के लोग देश में सबसे ज़्यादा टैक्स भरते हैं। मुंबई में 2013-14 में लोगों ने 2,39,494 करोड़ रुपए का टैक्स जमा किया। इस साल यह बढ़कर तीन लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है। इसी तरह दूसरे नंबर पर रही दिल्ली के बाशिंदों ने 2013-14 के दौरान 88,140 करोड़ रुपए का टैक्स चुकाया, जो इस साल बढ़कर एक लाख, एक हज़ार करोड़ रुपए होने का अनुमान है। लेकिन लोगों के टैक्स की गाढ़ी कमाई इस तरह किसी सरकार की इमेज बिल्डिंग पर ख़र्च नहीं की जा सकती। दिल्ली के कई इलाक़ों में पीने के पानी की बड़ी किल्लत है। सरकार विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए बर्बाद करने की बजाए, लाखों लोगों की रोज़मर्रा की समस्याएं निपटाने के लिए भी कर सकती है। मैंने तो चालान कटवा कर अपना सांकेतिक विरोध दर्ज करा दिया है। अब दिल्ली के लोगों की बारी है।
भारत माता की जय पर विवाद क्यों ?
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
यह ख़बर पढ़-सुन कर बहुत अच्छा लगा कि सऊदी अरब के रियाद शहर में मुस्लिम महिलाओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए।
इससे पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में कहा था कि ‘भारत माता की जय’ का नारा पूरी दुनिया में गूंजना चाहिए। वे भारत माता की जय का नारा किसी पर थोपना नहीं चाहते, बल्कि ऐसा भारत बनाना चाहते हैं कि लोग ख़ुद ही यह नारा लगाएं। अब सऊदी अरब में मुस्लिम महिलाओं ने यह नारा लगाकर साबित कर दिया है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चमक रहा है।
भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां सबसे पुरानी हिंदू परंपरा आज भी जीवित है। यह हिंदू परंपरा की महानता ही है कि हमने जीवन देने वाले तत्वों और जीवन को बनाए रखने वाले घटकों को ईश्वर का नाम दिया। हिंदुओं ने ऐसा इसलिए किया, ताकि क़ुदरत के प्रति आदर बना रहे। हमने नदियों को पूजा, पेड़-पौधों को पूजा, हवा को पूजा, आकाश को पूजा, धरती को पूजा, सूरज को पूजा, तो इसके पीछे कोई दकियानूसी सोच नहीं थी, बल्कि वैज्ञानिक सोच रही है।
हिंदू जीवन जीने की पद्धति है, जिसे बाद में संकीर्णतावादी लोगों ने जातियों या समूहों तक सीमित कर बाहर से आए हमलावरों, लुटेरों की नज़रों की किरकिरी बनाकर रख दिया। अब तो देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि ख़ुद को खुलेआम हिंदू कहने में लोग दस बार सोचते हैं। उन्हें लगने लगा है कि अगर उन्होंने ख़ुद को सार्वजनिक तौर पर हिंदू कहा, तो कथित सेकुलर उन्हें दकियानूस समझ लेंगे। सरकारें भी इस सोच से अछूती नहीं हैं। सालों पहले रेल के सफ़र में सवेरे-सवेरे भजन बजाए जाते थे। लेकिन कुछ लोगों ने हिंदू-मुस्लिम की दलील देकर इन भजनों को बंद करा दिया, फिल्मी गानों की धुनें चल रही हैं। अब आप ही बताइए कि ये धुनें देश का कल्याण करेंगी या फिर किसी महापुरुष के जीवन के आदर्शों का भजन के रूप में सात्विक बखान?
कथित धर्म निरपेक्षता का छद्म विचार इस क़दर कैसे हावी हो गया? यह दुर्भाग्य की बात है। समाजशास्त्रियों को इसके कारण तलाशने चाहिए। मुझे तो लगता है कि दुनिया के क़रीब आने पर भौतिक चकाचौंध की चमक और हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का सही तरीक़े से लागू नहीं होना ही इसकी मुख्य वजह है। लोकतंत्र की आख़िरी इकाई आप किसे कहेंगे?
अगर व्यक्ति को कहेंगे, तो फिर परिवार नामक व्यवस्था का क्या होगा? अब मेरी पीढ़ी और मेरे बुज़ुर्गों के लिए यह सवाल बहुत अहम है कि हमने लोकतंत्र को लागू करते समय भारतीय समाज की आख़िरी इकाई परिवार को क्यों नहीं माना? ऐसा कैसे हो सकता है कि एक घर या तय भौगोलिक सीमा में रहने वाले कुछ ख़ून के रिश्ते वाले लोग वहां तो एक अनुशासन में रहेंगे, लेकिन जब बाहर निकलेंगे, तो समाज के प्रति अनुशासन की कोई निजी परिभाषा तय करेंगे?
भारतीय समाज में पारिवारिक व्यवस्था और देश की राजनैतिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का यही अंतर्विरोध ख़त्म किया जाना चाहिए। लेकिन यह कैसे होगा? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस अगर इस ओर काम कर रहा है, तो इसका स्वागत होना चाहिए। मैं तो मानता हूं कि आरएसएस की सामाजिक सोच में जो सांस्कृतिक समरसता रची-बसी है, उसका विरोध करने वाले देश का भला नहीं चाहते। आज़ादी के बाद से ही कुछ परिवार या व्यक्ति देश की सेवा के नाम पर निजी अस्मिता को ही महत्व दे रहे हैं।
यही वजह है कि आरएसएस जैसा सच्चे अर्थों में देशभक्त संगठन उनकी आंखों की किरकिरी है। सच्चाई यही है कि आज़ादी की लड़ाई या उसके बाद या फिर हाल के दिनों में आरएसएस पर जितने भी आरोप लगे, निराधार ही साबित हुए हैं।
अब तो यह फ़ैशन सा हो गया है कि देश के महान मूल्यों का मज़ाक उड़ाइए और ख़ुद को प्रोग्रेसिव कहिए। इतिहास गवाह है कि बादशाह औरंगज़ेब समेत कई शासकों ने गौहत्या पर उस समय भी कभी न कभी पाबंदी लगाई थी।
लेकिन अब अगर ऐसा किया जा रहा है तो उसका विरोध किया जा रहा है। गाय को अलग रखें, तो हिंदुओं ने तो सामाजिक जीवन में बहुत उपयोगी पशु-पक्षियों को देवी-देवताओं से जोड़ा था, क्योंकि लोगों की धर्म में आस्था है[ इस कारण से वे उन सबका सम्मान करने को तैयार हैं, जिनका कहीं न कहीं धर्म में उल्लेख आ गया है। शायद इसलिए ही कि उनका मान-सम्मान बना रहे। बंदर, बैल, भैंसा, शेर, चूहा, हाथी, मोर, हंस और बहुत सारे पशु-पक्षियों को देवताओं के साथ जोड़ा गया। अब कहने वाले उन पशु-पक्षियों को भी हिंदू करार दे सकते हैं।
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी अगर कह रहे हैं कि वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे, तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है। लेकिन अगर उनका इरादा वाक़ई दुष्टतापूर्ण नहीं होता, तो उन्हें कहना चाहिए था कि उन्हें भारत माता की जय के नारे से ऐतराज़ नहीं है, लेकिन यह नारा ही किसी की देशभक्ति का पैमाना नहीं हो सकता। तब बात समझ में आ सकती थी। यह तो ऐसी ही बात है कि हिंदू गंगा को भी मां का दर्जा देते हैं, इसलिए हम गंगा मइया नहीं बोलेंगे। गंगा हिंदुओं की पवित्र नदी है, इसलिए हम मुस्लिमों के नेता होने के नाते गंगा सफाई अभियान में शामिल नहीं होंगे, लेकिन पीने के लिए गंगाजल पर बराबर का हक़ जताएंगे, क्योंकि भारतीय नागरिक होने के नाते यह हमारा अधिकार है। तो यह दोहरा रवैया नहीं चल सकता। ऐसे लोगों से मेरी अपील है कि वोट बैंक के लालच में देश की संस्कृति के साथ खिलवाड़ नहीं करें, क्योंकि ये किसी विशेष धर्म की बात नहीं, बल्कि इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब है।
मेरा आज भी चांदनी चौक समेत देश के कई हिस्सों में रह रहे मुस्लिम समाज के लोगों से क़रीबी रिश्ता है और मैंने देखा है कि दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे के त्योहारों में खुलकर भाग लेते रहे हैं। ईद के त्योहार पर मैं हमेशा मुस्लिम भाइयों सजा बधाई देने जाता हूँ। मैंने ईद हमेशा मनाई है, लेकिन दिखावे के लिए रमज़ान में रोज़ा-इफ़्तार कभी नहीं रखे। हां, हिंदू हूं, तो हिंदू त्यौहारों के दौरान व्रत ज़रूर रखे। अब क्या आप मुझे सांप्रदायिक कहेंगे? मुस्लिम भाई-बहन इस वजह से मुझसे मिलने में कभी भी कतराए नहीं। चांदनी चौक में आज भी चले जाइये, वहां स्कूलों में गीता का पाठ होता है और हिन्दू-मुस्लिम सब बच्चे मिलकर उसको गाते हैं ।
रामलीलाओं के माहौल में आप देश भर में सर्वे करा लीजिए। मुख्य किरदार निभाने वाले कई मुस्लिम कलाकार मिल जाएंगे। ऐसा भी नहीं मिलेगा कि उनके परिवार इस बात के ख़िलाफ़ हों। हिन्दुओं की अमरनाथ की यात्रा ने जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों को भारी रोजगार दे रखा है, यहाँ तक कि वहां प्रसाद भी स्थानीय मुस्लिम किसी दुसरे को बेचने नहीं देते । माता वैष्णो देवी में हिन्दू तीर्थयात्रियों के सामान और बच्चों को ऊपर भवन तक चढ़ाने वाले पिट्ठू माँ के मंदिर तक चले जाते हैं ।
मुस्लिम समाज की पढ़ाई-लिखाई, रोज़गार और दूसरे बुनियादी मसलों की वकालत के बजाए वोट बैंक की राजनीति की जा रही है। वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में ज़्यादातर मुस्लिम नेताओं ने ग़लत माहौल बना दिया है। मुस्लिम नेता ही नहीं, मुस्लिम वोटों के सहारे राजनीति चमकाने वाले बहुत से हिंदू नेता और पार्टियां भी इस जमात में शामिल हैं।
पहले केवल कांग्रेस यह बंदरबांट करती रहती थी। लेकिन अब इस मुक़ाबले में कई पार्टियां हैं। कांग्रेस अपने अच्छे जनाधार वाले प्रदेशों में बहुत पीछे रह गई है, इसलिए बौखला गई है।
यही वजह है कि हिंदू मान्यताओं के ख़िलाफ़ किसी भी स्तर तक जाकर ध्रुवीकरण करना ही उसका लक्ष्य होता है। अब इससे चाहे कांग्रेस को फ़ायदा हो या बीजेपी को या फिर किसी तीसरे पक्ष को, आख़िरी तौर पर इससे देश का नुकसान होता है, मैं तो ऐसा ही मानता हूं।
भारत माता की जय को किसी को भी विवाद नहीं बनाना चाहिए । ये धरती सबकी माँ है, इसलिए तो ‘भारत माता’ और ‘मादरे वतन’ ये शब्द हैं।
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गणतन्त्र दिवस पर राम-कृष्ण की झांकी क्यों नहीं?
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
देश के विरोध और देश प्रेम को लेकर ज़रूरी बहस चल रही है। बहस का एक मुद्दा यह है कि देश प्रेम को व्यक्त करने के लिए क्या किया जाए? ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भारत माता की जय नहीं कहने का ऐलान कर बहस को नया मोड़ दे दिया है। उनके समर्थन में हैदराबाद से एक फ़तवा आया, तो राज्यसभा सांसद जावेद अख़्तर ने अपने कार्यकाल के आख़िरी दिन उच्च सदन में तीन बार भारत माता की जय का नारा लगाकर ओवैसी को करारा जवाब दे दिया।
मौजूदा दौर में जिस तरह ‘सेकुलर’ और ‘सांप्रदायिक’ शब्दों की व्याख्या की जाने लगी है, वह परेशान करने वाली बात है। परेशान करने वाली बात यह भी है कि लोकतांत्रिक देश में बहुसंख्य आबादी की भावनाओं का आदर करने में सरकारें भी अक्सर हिचकती रहती हैं। देश की 83 परसेंट आबादी हिंदू है, लेकिन देश में हर उस मांग को तवज्जो दी जाती है, जो 17 परसेंट लोग करते हैं। आख़िर क्या यह लोकतंत्र की मूल भावना के ख़िलाफ़ नहीं है? जो 83 फ़ीसदी आबादी हिंदू है, उसमें भी जो अल्पसंख्यक वर्ग है, उसको ही तवज्जो दिए जाने का मलतब साफ़ समझ में नहीं आता। दबे-कुचले वर्गों की बात सुनी जाए, उन पर ज़्यादा ध्यान दिया जाए, यह तो सही है। लेकिन केवल उनकी ही सुनी जाए, तब तो यह लोकतांत्रिक ज्यादती ही कही जाएगी।
पिछली 26 जनवरी की परेड में मैंने राजधानी के राजपथ पर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की भव्य प्रतिमा देखी, तो मन में गर्व हुआ। मुझे महापुरुषों की प्रतिमाएं देखकर, उनकी किताबें और संदेश पढ़कर हमेशा ही प्रेरणा मिलती है। लेकिन मेरे मन में एक सवाल उस वक़्त ज़रूर कौंधा। उसका ज़िक्र भी मैंने अपने कई मित्रों से किया। सवाल यह था कि सही है कि हम आज़ादी की लड़ाई और देश को आगे बनाने-संवारने वाले महापुरुषों का इस तरह सम्मान करें, लेकिन बहुसंख्य आबादी जिन्हें अपनी प्रेरणा और आस्था का स्रोत मानती है, उनकी अनदेखी हम क्यों करते रहते हैं? भारत या कहें कि हिंदोस्तान को 84 करोड़ देवी-देवताओं का देश माना जाता है। बाक़ियों को छोड़कर केवल भगवान राम और कृष्ण को ही लें, तो क्या हम गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड में उनकी प्रतिमाओं के ज़रिए कोई संदेश देश-दुनिया को नहीं दे सकते? पता नहीं क्यों देश के 83 परसेंट आदमियों की भावनाओं का ही गला घोंटा जा रहा है?
मैं जब पाकिस्तान गया, तो बहुत से पाकिस्तानी नागरिकों से बातचीत का मौक़ा मिला। मुझे यह देख-सुनकर हैरत हुई कि वहां कोई भी आम आदमी भारत या इंडिया शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता। सभी हिंदोस्तान (या हिंदुस्तान) कहते हैं। हिंदोस्तान यानी वो जगह, जहां हिंदू रहते हैं। इसकी व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं दिल्ली के चांदनी चौक का बाशिंदा हूं। वहां की मुस्लिम आबादी भी ज़्यादातर हिंदोस्तान शब्द का ही इस्तेमाल करती है। आज कोई किसी मंच से हिंदोस्तान शब्द बोले, तो कुछ ख़ास भाई-बहन लोग उसे सांप्रदायिक करार देने में कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे।
लेकिन अख़बार का नाम ‘द हिंदू’ हिं हो तो कोई बात नहीं, हिंदू कॉलेज के नाम पर किसी को कोई ऐतराज़ नहीं है। इसी तरह हिंदोस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल और एचसीएल यानी हिंदोस्तान कंप्यूटर्स लिमिटेड या कहें कि हिंदोस्तान नाम के साथ शुरू होने वाली तमाम सरकारी और ग़ैर-सरकारी कंपनियां और संस्थान क्या सांप्रदायिक विचारधारा की ओर इशारा करते हैं? इन नामों में किसी को सांप्रदायिकता की बू नहीं आएगी। फिर ऐसा क्या हो गया है कि अगर कोई सियासी व्यक्ति या सियासी विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति हिंदू, हिंदी, हिंदोस्तान की बात करता है, तो उसे सेकुलर मानने से इनकार कर दिया जाता है? मेरी नज़र में यह सबसे बड़ा पोंगापंथ है। दिखावा है। झूठ का चश्मा लगाकर सच्चाई को भी झुठला देने का सुविधाभोगी कमाल है।
आप विदेश जाएं, तो पाएंगे कि अगर कोई भारत, यहां तक कि पाकिस्तान का मूल निवासी है, तो उसे वहां हिंदू ही कहते हैं। भारतीय या पाकिस्तानी नहीं। लेकिन बड़ी विडंबना है कि हमारे देश में विकसित हो चुकी वोट बैंक की स्वार्थी राजनीति ने हिंदू शब्द तक को सांप्रदायिक यानी कम्युनल बना दिया है। इसी तरह भगवा रंग तो सांप्रदायिक हो गया है, लेकिन हरा और लाल रंग सांप्रदायिक नहीं, प्रोग्रेसिव और सेकुलर हो गए हैं। मैं मानता हूं कि किसी भी क़िस्म का कट्टरपंथ आख़िरी तौर पर सही नहीं ठहराया जा सकता, चाहे वह भगवा रंग में रंगा हो या लाल या हरे रंग में या किसी भी रंग में।
ऐसे में सवाल यह है कि देश की ज़्यादातर आबादी की आस्था के स्वरूप राम और कृष्ण को क्या किसी भी स्तर पर सांप्रदायिक करार दिया जा सकता है? अगर नहीं, तो फिर गणतंत्र दिवस की परेड में उनकी झांकियां क्यों नहीं शामिल की जा सकतीं? ऐसा करने में किस बात का डर है। क्या इससे देश के संविधान की मूल भावना का उल्लघंन हो सकता है? मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई संवैधानिक व्यवधान पैदा हो सकता है। दूसरा सवाल यह है कि भगवा वेष, गले में रुद्राक्ष की माला, हाथ में कलावा जैसे हिंदू प्रतीकों के ही सिलसिले में सांप्रदायिकता की बात क्यों की जाती है? मुस्लिम पहनावे, टोपी के सिलसिले में बिल्कुल नहीं। नब्बे के दशक में हमारे नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने छद्म-धर्मनिरपेक्षता शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया था, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उनकी वह सोच राजनीतिक स्तर पर उतना अटेंशन नहीं पा सकी, जितना उसे मिलना चाहिए था। दिक़्क़त यह है कि हमारी राजनीति उदारता के नाम पर बुरी तरह भटक गई है। इस क़दर भटक गई है कि सही को सही कहने में भी उसे शर्म आती है।
अगर देश के प्राचीन मंदिरों या कहूं कि हिंदुओं के इतिहास और आस्था से जुड़े प्रतीकों में भरोसा रखना सांप्रदायिकता है, तो फिर सरकारी स्तर पर उनकी संरक्षा क्यों की जाती है? इसके लिए बाक़ायदा पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग बनाया गया है, जिसे करोड़ों रुपए का बजट दिया जाता है। पुरातत्व संरक्षण विभाग यानी आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया यानी एएसआई देश की तमाम धरोहरों का संरक्षण करता है। फिर वे हिंदुओं से जुड़े हों या फिर मुस्लिमों या फिर किसी और धर्म या संप्रदाय से। अगर ऐसा किया जाना संवैधानिक रूप से सही है, तो फिर व्यावहारिक तौर पर ऐसा माहौल क्या बना दिया गया है कि हिंदुओं के पक्ष में बात करने वाले सभी लोगों पर सांप्रदायिक होने का टैग लगा दिया जाता है।
दरअस्ल, मनोवैज्ञानिक तौर पर सच्चाई यह है कि ज़्यादा संख्या वाला कोई भी उदार समूह कम संख्या वाले किसी समूह की देखभाल पर तवज्जो इसलिए देता है ताकि वह ख़ुद को कमज़ोर नहीं समझे।
इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि ज़्यादा संख्या वाला समूह किसी भी स्तर पर कमज़ोर है, कायर है या धर्मभीरु है या कहें कि सांप्रदायिक है। ‘सांप्रदायिक’ शब्द ‘संप्रदाय’ शब्द में ‘इक’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। जैसे ‘इतिहास’ से ’ऐतिहासिक’ या फिर ‘राजनीति’ से ’राजनैतिक’ शब्द बनता है। ‘इक’ प्रत्यय लगाने के बाद शब्द के अर्थ में ‘से संबंधित’ जुड़ जाता है। जैसे राजनैतिक का मतलब हुआ राजनीति से संबंधित। उसी तरह सांप्रदायिक का अर्थ हुआ संप्रदाय से संबंधित। ज़रा ध्यान से सोचिए कि हिंदुओं के मामले में तो सांप्रदायिक शब्द नकारात्मक लिया जाता है। लेकिन मुस्लिम या कोई दूसरा समुदाय या संप्रदाय अगर अपने हितों की बात करें, तो उसे सांप्रदायिक कहने का फैशन नहीं है। यह तो भाषा विज्ञान के साथ बड़ा मज़ाक हुआ।
मेरी हर संप्रदाय के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समाज शास्त्रियों से अपील है कि इस मामले में ज़रा ग़ौर करें और सांप्रदायिक और सेकुलर शब्दों के फैशनेबल इस्तेमाल से बचें। अपने हितों की बात करना किसी भी देश, समाज में बुरी बात नहीं है। हां, कट्टर होना हर देश, हर समाज के लिए बुरी बात है।
अगर मैं अपने घर में पूजा कर रहा हूं और मुझे पड़ोस में होने वाली नमाज़ या किसी और पूजा पद्धति से होने वाले कर्मकांड से कोई परहेज़ नहीं है, तो फिर क्या परेशानी है? मेरी पूजा पर सांप्रदायिक होने का कथित सेकुलर तिलक मत लगाइए कृपया।
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कैसी छवि बना रहे सांसद
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
हाल ही में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में सांसदों के अराजक व्यवहार पर सटीक टिप्पणियां की हैं। उनका कहना सही लगता है कि विपक्षी सांसदों का मक़सद होता है महज़ मीडिया की सुर्खियां बनना। उन्हें देश के हितों से कोई लेना-देना नहीं है। मोदी ने कहा कि पिछले कुछ दिनों से संसद में जो कुछ हो रहा है, उससे देश निराश है। संसद चलाकर ही सरकार विपक्ष के सवालों के जवाब सही ढंग से दे सकती है। पीएम ने इस पर भी चिंता जताई कि हंगामे के माहौल में नए सांसदों को अपनी बात रखने का मौक़ा ही नहीं मिलता। यह सुझाव अच्छा है कि नए सांसदों को मौक़ा देने के लिए हफ्ते में कोई एक दिन तय किया जाना चाहिए। एक दिन महिला सांसदों को भी दिया जाना चाहिए। वैसे तो यह बात प्रधानमंत्री ने कही हो, लेकिन कोई बच्चा भी समझ सकता है वेल में जाकर नारेबाज़ी और हंगामा कर सदन की कार्यवाही रोकने से कैसे विरोध जताया जा सकता है। अच्छी बात तो तब कही जाएगी, जब आप अपने सवाल साफ़-साफ़ रखें और सरकार साफ़-साफ़ जवाब दे पाए। लोकसभा में प्रधानमंत्री का सार भरा भाषण सुनकर मेरे मन में सांसद के तौर पर पहले दिन से लेकर अभी तक के सफर की झलकियां कौंध गईं।
सार्वजनिक जीवन में उतरने के बाद जब मैं पहली बार लोकसभा सांसद चुना गया, तो मन में बहुत जोश था। मैंने सोचा कि अब देश को मज़बूत करने के अपने सपने को पूरा करने का वक़्त आ गया है। मुझे आज भी सदस्य के तौर पर संसद में अपना पहला दिन अच्छी तरह याद है। क्या उमंग थी, कितना हौसला था कि बयान नहीं कर सकता। तीन बार लोकसभा सदस्य रहने के बाद आज में उच्च सदन राज्यसभा का सदस्य हूं।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अब विपक्षी पार्टियों और कुछ सांसदों ने संसद की दुर्गति कर रखी है। दोनों सदनों में निजी एजेंडों को लेकर अनुत्पादक हंगामा कर कार्यवाही ठप करा देना आम बात है। संसद में शोर-शराबा, वेल में जाकर नारेबाज़ी करना, एक-दूसरे पर निजी कटाक्ष करना यहां तक कि कई बार हाथापाई पर उतारू हो जाना आज संसद की आम तस्वीर है। मैं रोज़ाना सैकड़ों लोगों से मिलता हूं। ज़्यादातर मुझसे पूछते हैं कि सियासी पार्टियों और सांसदों का बर्ताव इतना अराजक क्यों हो गया है? अब मैं उन्हें क्या बताऊं ? मैं भी अब मानने लगा हूं कि पार्टियों के निहित स्वार्थों ने संसद को मज़ाक बनाकर रख दिया है।
अभी बजट सत्र चल रहा है। विपक्ष के रवैये को देखते हुए लगता नहीं है कि उसकी मंशा देश के विकास की योजनाएं बनने देने की है। ऐसा लग रहा है कि देश भर से चुनकर आए कांग्रेस के केवल 44 सांसदों ने पूरे संसदीय लोकतंत्र को बंधक बना लिया है।
क्योंकि लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही आजकल टीवी पर लाइव दिखाई जाती है, लिहाज़ा देश का आम आदमी भी वह सब कुछ देखता है, जो संसद में रोज़ हो रहा है। आख़िर हम सांसद लोगों के सामने अपनी क्या छवि पेश कर रहे हैं? ज़रा सोचिए कि देश के लोगों के मन में हमारी क्या छवि बनती जा रही है?
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि संसद अब महज़ एक स्कोरिंग क्लब बन कर रह गई है। बहुतों को पता होगा कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपए ख़र्च हो जाते हैं। इस तरह एक दिन की सामान्य कार्यवाही पर औसतन छह करोड़ रुपए का ख़र्च आता है। जिस दिन कार्यवाही लंबी चलती है, उस दिन ख़र्च और बढ़ जाता है। ज़रा सोचिए कि यह पैसा आता कहां से है। ज़ाहिर है कि देश के आम लोगों की जेब से ही आता है। लोकतंत्र में इससे बड़ा और क्या मज़ाक होगा कि संसद की कार्यवाही लगातार ठप रहे या फिर दिन भर रह-रह कर हंगामा होता रहे, फिर भी एक दिन में छह करोड़ रुपए ख़र्च हो जाएं। ज़रा सोचिए कि छह करोड़ रुपए से क्या-क्या हो सकता है? हज़ारों गांवों की क़िस्मत संसद की एक दिन की कार्यवाही पर होने वाले ख़र्च से बदल सकती है। लाखों ग़रीब लड़कियों की शादी हो सकती है। लघु और कुटीर उद्योगों से हज़ारों नौजवानों की क़िस्मत संवर सकती है। लेकिन हम सांसद यह सब नहीं सोचते। विकास की योजनाएं भले न बनें, हमारे व्यक्तिगत हित ज़रूर सधने चाहिए। क्या हम सांसद देश से ऊपर हो गए हैं?
सारे सांसद हंगामेबाज़ हों, ऐसी बात नहीं हैं। जो कामकाज को लेकर गंभीर हैं, वे कुछ नहीं कर पाते। मैंने पहले भी ज़िक्र किया है कि किस तरह संसद की कार्यवाही देखने के बाद एक स्कूल में बच्चों ने बाल संसद लगाई, तो उसमें हंगामा मारपीट तक पहुंच गया। इस वाक़ये से मैं चौंका नहीं, सोच में पड़ गया। हम बड़े जो सिखाएंगे, बच्चे वही करेंगे। पिछले साल मॉनसून सत्र के आंकड़े स्थिति साफ़ कर देते हैं। सत्र में राज्यसभा की प्रोडक्टिविटी महज़ नौ प्रतिशत रही। पिछले 15 साल में यह दूसरा मौक़ा था, जब सबसे कम कामकाज हुआ। इससे पहले 2010 के शीत सत्र में सबसे कम काम हुआ था। पिछले मॉनसून सत्र में दोनों सदनों में पहले दो हफ्ते कोई काम नहीं हुआ। इसके उलट पिछले साल के बजट सत्र में राज्यसभा में उम्मीद से ज़्यादा कामकाज हुआ और प्रोडक्टिविटी 101 प्रतिशत रही। सवाल है कि सांसद हर बार ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाते? मॉनसून सत्र के प्रश्नकाल में केवल दो फ़ीसदी सवालों के मौखिक जवाब दिए जा सके। लोकसभा में यह आंकड़ा थोड़ा ज़्यादा 13 फीसदी रहा। इस दौरान दोनों सदनों में सांसदों की मौजूदगी अच्छी-ख़ासी रही। तो क्या सांसद केवल हंगामा करने के लिए ही पहुंचते हैं?
मैं राज्यसभा का सदस्य हूं, लेकिन कहना चाहता हूं कि उच्च सदन ने लोकसभा को पंगु बना कर रख दिया है। हक़ीक़त यह है कि लोकतंत्र का लोक यानी देश की जनता लोकसभा का चुनाव सीधे तौर पर करती है। ऐसे में अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदन को लोक के सदन यानी लोकसभा की गरिमा का सम्मान करना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि लोकसभा में हुए हर काम में अड़ंगा डाल दिया जाए।
मैं वक़्त-वक़्त पर संसद की कार्यवाही की गुणवत्ता बढ़ाने के सुझाव देता रहा हूं। कुछ सुझावों पर अमल भी किया गया है। लेकिन अब वक़्त आ गया है, जब बहुत से नियम-क़ायदों में संशोधन किया जाए। मेरा सुझाव है कि लोकसभा में तय दिनों में सभी सांसदों को तीन-तीन मिनट ही सही, अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में बोलने दिया जाए। बार-बार हंगामा करने वाले सांसदों को चिन्हित किया जाए और उनकी सूची प्रचारित कराई जाए। ऐसे नियम बनाए जाएं कि वेल में आने या पर्चा लहराने या दूसरा किसी भी क़िस्म का हंगामा करने वाले सांसद के ख़िलाफ़ ख़ुद-ब-ख़ुद कोई तय कार्यवाही हो जाए। मेरा बेटा कहता है कि कुछ सांसद वॉकआउट करने के बाद दोबारा सदन में क्यों आ जाते हैं? अब मैं उसे क्या जवाब दूं? क्या कहूं कि मेरी बिरादरी के लोग केवल दिखावा करने के लिए ऐसा करते हैं, उन्हें देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है।
मैं ख़ुद भी लोकसभा का तीन बार सदस्य रहा हूं और अब बहुत से लोकसभा सांसद मेरे मित्र हैं, जो बहुत कुछ करने का इरादा लेकर संसद पहुंचे हैं, लेकिन असहाय हैं। मैं उनकी पीड़ा समझता हूं। संसद में कुछ कर नहीं पा रहे हैं और उधर लोकसभा क्षेत्र की जनता भी उन्हें ताने मारती है, क्योंकि वे उनकी समस्याएं इसलिए सुलझा ही नहीं पा रहे हैं, क्योंकि संसद में केवल हंगामा हो रहा है। मैं अपने सांसद भाइयों से अपील करता हूं कि वे संसद को अखाड़ा बनने से रोकें।
अड़ियल पार्टी नेतृत्व को भी अपनी बात समझाएं, उनके हर ग़लत-सही आदेश का आंख मूंदकर पालन न करें। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर की गरिमा बचाए रखना हमारा ही काम है।
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देश के बचपन को बचाइए
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
पिछले दिनों दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप कांड में नाबालिग अपराधी की भूमिका को लेकर काफ़ी चर्चा हुई। ख़ासकर गंभीर अपराधों के मामले में नाबालिगों को मिंलने वाली सज़ा पर देश भर में मंथन किया गया। बहुत से लोग इस पक्ष में हैं कि रेप और हत्या जैसे गंभीर अपराधों की सूरत में कठोर सज़ा के लिए उम्र का दायरा घटाकर 16 साल कर दिया जाना चाहिए। यह बहस का अहम मुद्दा है और कानूनविद इस पर विमर्श करते ही रहेंगे। अभी हाल ही में कानून में बदलाव किया भी गया है। जिसके तहत जुवेनाइल रेपिस्ट को ख़ास हालात में सज़ा-ए-मौत भी सुनाई जा सकती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आज शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर के मौक़े ज़्यादा होने के बावजूद हमारे और आपके बच्चे अपराधों की तरफ़ आकर्षित क्यों हो रहे हैं? आंकड़ों को देखें, तो हालत चिंता करने लायक नज़र आती है।
बच्चों को जिस उम्र में खेलना-कूदना चाहिए, उस उम्र में वे छेड़छाड़ तो छोड़िए, रेप जैसे गंभीर अपराध करने में भी नहीं चूक रहे। संसद में हाल ही में जुवेनाइल क्राइम यानी बच्चों के ज़रिए होने वाले अपराधों को लेकर एक रिपोर्ट पेश की गई है। मैंने यह रिपोर्ट पढ़ी, तो चौंक गया। हज़ारों सवाल मेरे ज़ेहन में कौंधने लगे।
मुझे लगा कि हमारा समाज जैसे-जैसे भौतिक तरक़्की की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हमारे बच्चे यानी देश का बचपन संस्कार विहीन होता जा रहा है। संसद में पेश वह रिपोर्ट हमें बता रही है कि अपराध करने बच्चों की संख्या में साल दर साल बढ़ोतरी होती जा रही है।
वर्ष 2012 में देश में जुवेनाइल क्राइम के 27 हज़ार 936 केस दर्ज किए गए। अगले साल यानी 2013 में यह आंकड़ा बढ़कर 31 हज़ार को पार कर गया और 31,725 केस जुवेनाइल क्राइम के दर्ज किए गए। साल 2014 में 33 हज़ार 526 जुवेनाइल क्राइम के मामले सामने आए। ग़ौर करने लायक बात यह है कि आमतौर पर नाबालिगों द्वारा किए गए छोटे-मोटे क्राइम के मामले परिवार और समाज के दबाव में दबा दिए जाते हैं या फिर आपसी सहमति से केस पुलिस के पास नहीं ले जाया जाता। कहने का मतलब यह है कि जितने केस बाक़ायदा दर्ज होते हैं, उनके मुक़ाबले हक़ीक़त में बाल अपराध के मामले बहुत ज़्यादा होते हैं।
अब ज़रा सोचिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। जिस देश का बचपन दिनों दिन अपराध की ओर बढ़ रहा हो, उस देश का भविष्य कैसा होगा? अब एक बड़ा सवाल यह है कि क्या क़ानून को सख़्त बनाकर बाल अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है? मेरा तो मानना है कि क़ानून में मौत की सज़ा या दूसरी कड़ी सजाओं के प्रावधान करने से इस मामले में बात नहीं बनेगी। मुझे अपने बचपन की याद है। अव्वल तो हम माता-पिता या शिक्षकों से झूठ बोलने की सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन कभी-कभार किसी साथी या भाई-बहन को बचाने के लिए झूठ बोलना भी पड़ता था, तो कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती थी और उस दौरान हमारा शारीरिक जुगराफ़िया भांपकर झूठ अक्सर पकड़ भी लिया जाता था।
लेकिन आज के बच्चे न केवल धड़ल्ले से झूठ बोल रहे हैं, बल्कि इतनी सहजता से बोल रहे हैं कि आप आसानी से उन पर यक़ीन भी कर रहे हैं। इसका मतलब साफ़ है कि नैतिक शिक्षा या अंग्रेज़ी में कहें, तो मोरल एजूकेशन की बेहद कमी होना ही इसकी बड़ी वजह समझ में आती है। यह मोरल एजूकेशन केवल स्कूलों में ही नहीं, बल्कि परिवारों में होनी ख़त्म सी हो गई है। चकाचौंध भरे इस दौर में मां-बाप के पास बच्चों को सही बातें सिखाने और लगातार सिखाते रहने का समय ही नहीं है।
ऐसे में नतीजा बिल्कुल वही होगा, जो संसद में पेश रिपोर्ट में दर्ज आंकड़े बता रहे हैं। मैं तो बचपन में झूठ बोलने में ही बुरी तरह कांप जाता था। लेकिन आज हक़ीक़त यह है कि साल 2012 में 1175 बच्चे रेप के आरोपी बनाए गए। रेप के इरादे से हमला करने वाले बच्चों की संख्या रही 613 और 183 केस महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के दर्ज किए गए। आप चौंक जाएंगे यह जानकर कि 2012 में 990 बच्चे मर्डर के केस में सुधार गृहों में भेजे गए और धारा 307 यानी जान से मारने की कोशिश में 876 नाबालिग पकड़े गए। इसी तरह साल 2013 में 1884 नाबालिगों पर रेप का आरोप लगा। रेप के लिए हमला करने के मामलों में इस साल काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ और पिछले साल के 613 केस के मुक़ाबले 1424 केस 2013 में दर्ज किए गए। इसी तरह छेड़छाड़ के केस भी 183 से बढ़कर 312 हो गए। मर्डर के केस भी 990 के मुक़ाबले बढ़कर 1007 तक पहुंच गए। साल 2014 में रेप के मामले बढ़कर 1989 हो गए। रेप के इरादे से हमले के केस बढ़कर 1891 हो गए। छेड़छाड़ के केस बढ़कर 432 हो गए। लेकिन मर्डर और मर्डर की कोशिश के केस घटकर क्रमश: 841 और 728 दर्ज किए गए। यहां मैं फिर कह रहा हूं कि थानों में दर्ज यह आंकड़ा अंतिम नहीं कहा जा सकता। क्योंकि केस बच्चों से जुड़े होते हैं, लिहाज़ा बहुत से मामले आपस में ही कह-सुन कर निपटा लिए जाते हैं, यह हम सभी जानते हैं।
मुझे तो यह आंकड़े वाक़ई परेशान कर रहे हैं। समाज शास्त्रियों को भी कर रहे होंगे। लेकिन इस हालत के लिए क्या सरकारें ही ज़िम्मेदार हैं? क्या हम दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि क्योंकि कड़ा क़ानून नहीं था, इसलिए बच्चे गंभीर अपराध कर रहे थे? मुझे नहीं लगता कि केवल क़ानून कड़े होने से हालात सुधर सकते हैं। इस सिलसिले में मैंने कई मनोचिकित्सकों से बात की। क़रीब-क़रीब सबका मानना है कि यह एक सामाजिक चुनौती है और सामाजिक स्तर पर ही बड़ों को जागरूक कर इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। जुवेनाइल माइंड को समझने की सख़्त ज़रूरत है। यह उम्र ऐसी होती है, जिसमें सेक्स के प्रति आकर्षण ज़्यादा होता है। ऐसे में अब सही वक़्त आ गया है, जब सेक्स एजूकेशन को लेकर साफ़सुथरी नीति बनाई जाए और उसे ईमानदारी के साथ लागू भी किया जाए।
हमें बचपन में जो सुविधाएं और एक्सपोज़र हासिल नहीं था, वह आज के बच्चों को सहज रूप से हासिल है। जैसे रेडियो, टीवी, इंटरनेट और स्मार्ट फ़ोन। ऐसे में इन सभी चीज़ों के इस्तेमाल में बहुत सावधानी की ज़रूरत है, क्योंकि बहुत सी चीज़ों में सही और ग़लत की सीमारेखा बहुत ही झीनी सी होती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बहस में एक विदुषी महिला का एक कथन मुझे बड़ा अच्छा लगा। वह कह रही थीं कि आजकल मिडिल क्लास के परिवार ख़ुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में वही जुमले अपनाने लगे हैं, जो कथित अत्याधुनिक लोग अपननाते हैं। मसलन, माता-पिता अपने बच्चों को भी ‘यार’ संबोधन से पुकारने लगे हैं। उन्होंने बिल्कुल सही कहा। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि ‘यार’ क्या होता है। जब थोड़ी समझ आई, तो यही सीखने को मिला कि ‘यार’ शब्द सही लोग इस्तेमाल नहीं करते। बहरहाल, यह छोटा सा उदाहरण है कि हम बड़े लोग ख़ुद बिगड़कर, आचरण भ्रष्ट होकर बच्चों को किस तरह बिगाड़ रहे हैं।
अब ज़रूरत है कि माता-पिता को भी नैतिक शिक्षा का पाठ दोबारा पढ़ाया जाए, ताकि वे अपने बच्चों को बिगड़ने से रोक पाएं। इसके लिए बाक़ायदा स्कूलों में हफ़्ते-दो हफ़्ते का कोर्स कराया जा सकता है। क्योंकि यह देश को बनाने और बचाने का अहम मामला है, लिहाज़ा सरकारों को भी अपनी तरफ़ से इस ओर पहल करनी चाहिए। ऐसा प्रावधान किया जा सकता है कि माता-पिता जब बच्चों के स्कूलों में ओरिएंटन कोर्स करने जाएं, तो सरकारें इसके लिए ख़ास तौर पर छुट्टियां दें। अगर हम देश को वाक़ई महान बनाना चाहते हैं, तो देश के बचपन को गंदगी से बचाना बहुत ज़रूरी है।
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Vision for Delhi
My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.
My vision for Delhi is that it should be a city of opportunities where people
Dog Menace
Latest Updates
People Says
Vijay Goel is a national leader with wider vision and worked on the ground in Delhi.
Shantanu Gupta
No cricket with Pak until terrorism stops, says sports minister Vijay Goel Finally! Kudos for a much needed call!
Amrita Bhinder
Simply will appreciate Vijay Goel’s working style, witnessed his personal attention to west Delhi – Paschim Vihar ppl even at late hours.
Neerja
One must appreciate how Vijay Goel is working so hard and looking out for all sports. One can feel the change. Best wishes!