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आइए ‘आज़ाद’ को करें याद
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
आज देशभक्ति पर विचार और देश के ख़िलाफ़ आग उगलने का सिलसिला चल रहा है। सुकून की बात यह है कि देशभक्ति की भावना के पक्ष में विचार करने वाले करोड़ों नागरिक हैं और देश को तोड़ने की बात करने वाले मुट्ठीभर गुमराह लोग ही हैं। ऐसे दौर में देश को मिली आज़ादी के एक महानायक को याद करना बेहद ज़रूरी है। रस्मन भी और मौजूदा वक़्त की नज़ाक़त को देखते हुए भी।
रस्मन इसलिए कि अभी 27 फ़रवरी को उनका बलिदान दिवस था। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई के महानायक थे पंडित चंद्रशेखर आज़ाद। आज से 75 साल पहले 27 फ़रवरी, 1931 को यूपी में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद मन में देश की आज़ादी का सपना संजोए हमेशा-हमेशा के लिए आज़ाद हो गए। वे जीतेजी अंग्रेज़ एसपी नॉट बाबर के हाथ नहीं लगे। जब आख़िरी गोली बची, तो उन्होंने अपने नाम को सार्थक करते हुए वह अपनी कनपटी पर दाग ली।
आज जब देश के कुछ गुमराह नौजवान देश को तोड़ने की बात कर रहे हैं, तब चंद्रशेखर आज़ाद को याद करने और उनकी शहादत को नए सिरे से प्रचारित करने की ज़रूरत है। जो चंद गुमराह लोग नारे लगाते हैं कि उन्हें कश्मीर, केरल और बंगाल की आज़ादी चाहिए, मैं उन्हें सलाह देता हूं कि वे देश की आज़ादी की लड़ाई के महानायकों से सीखें कि देश क्या होता है? गुलामी क्या होती है? उनसे सीखें कि अपने देश की आज़ादी की मांग करने वालों को अंग्रेज़ किस तरह की बर्बर सजाएं देते थे। अब जब लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की क़ुर्बानी से देश आज़ाद है और हमें बोलने की आज़ादी हासिल है, तब देश को तोड़ने की बात कहना तो दूर, सोचना भी आज़ादी की लड़ाई का सबसे बड़ा अपमान है।
कुल मिलाकर मैं समझता हूं कि चंद्रशेखर आज़ाद की 75वीं वर्षगांठ पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाई जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हां, सोशल मीडिया पर देश भक्तों ने जमकर उन्हें याद किया, यह अच्छी बात है। मैंने बचपन में चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में ख़ूब पढ़ा था। मेरे प्रेरणा पुरुषों में वे भी शामिल थे। बचपन में उनके बारे में पढ़कर हमें गौरव का अनुभव होता था। उनके कई क़िस्से आज भी मेरे मन में कुलबुलाते रहते हैं। आज़ाद के पिताजी यूपी के उन्नाव ज़िले के बदर गांव के रहने वाले थे। लेकिन अकाल की वजह से उन्हें अलीराजपुर रियासत के भावरा गांव में जाना पड़ा। वहीं 23 जुलाई, 1906 को चंद्रशेखर का जन्म हुआ। भावरा गांव आज मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले में है। देश के हालात समझ आते ही चंद्रशेखर ने परिवार छोड़ दिया और बनारस जा पहुंचे। किशोर चंद्रशेखर ने बनारस में संस्कृत विद्यापीठ में प्रवेश ले लिया।
वर्ष 1921 में महात्मा गांधी ने देश में असहयोग आंदोलन की लहर फैलाई, तो चंद्रशेखर उससे जुड़ गए। अब आप देखिए कि महज़ 14-15 साल की उम्र में ही वे देश के प्रति कितने समर्पित थे। आज ज़रा इस उम्र के किशोरों को देखिए, तो दुख होता है। उनके कंधों पर अच्छे भविष्य की मृग-तृष्णा ने वज़नदार बस्ते लटका रखे हैं। बहरहाल, उन दिनों गांधी जी के आव्हान पर देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। इससे पहले 1919 में हुए जलियावाला बाग नरसंहार का भी असर चंद्रशेखर के किशोर मन पर काफ़ी पड़ा। एक दिन चंद्रशेखर धरना देते हुए गिरफ़्तार कर लिए गए। मजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है, तो जवाब आया ‘आज़ाद’। फिर सवाल आया कि पिता का नाम बताओ, तो उन्होंने जवाब दिया ‘स्वाधीन’। पूछा गया कि घर कहां है, तो जवाब दिया गया ’जेलखाना’। इन जवाबों से मजिस्ट्रेट को गुस्सा आ गया और 15 बेंत की सज़ा सुना दी गई। हर बेंत पर उन्होंने महात्मा गांधी ज़िंदाबाद और देश की आज़ादी के समर्थन में नारे लगाए। तब से उनके नाम के आगे आज़ाद शब्द जुड़ गया। लेकिन आज आज़ाद जैसे लाखों देश भक्तों की क़ुर्बानी का नतीजा यह है कि कुछ लोग देश तोड़ने की बात कहकर देश भक्त होने की दलील दे रहे हैं। ऐसे लोगों को शर्म आनी चाहिए।
मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि इस मौक़े पर मैं महान शहीद पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन परिचय आपसे कराऊं। मैं जानता हूं कि मेरी पीढ़ी के सभी लोगों ने आज़ाद जी के बारे में बचपन में उस उम्र में ही बहुत कुछ पढ़ा है, जिस उम्र में उनके मन में आज़ादी की लड़ाई के अंकुर फूटे थे। दरअस्ल, हमें लगता था कि काश हम भी चंद्रशेखर के साथी होते, तो मज़ा आ जाता। अब इस उम्र में जब अपने बचपन की याद मुझे इस बहाने आती है, तब भी हर बार रोमांच का अनुभव वैसा ही होता है, जैसा बचपन में होता था। मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि आज़ादी की लड़ाई के महान सेनानियों को भुलाना हरगिज़ नहीं चाहिए। जन्मदिन और शहादत दिवसों के बहाने ही देश भर में बड़े पैमाने पर सरकारों और समाज को आयोजन करने चाहिए। दूसरी बात यह है कि आज के विघटनवादी सोच के दौर में तो ऐसे महापुरुषों की शिक्षाओँ और देश के प्रति उनके समर्पण का परिचय बच्चे-बच्चे से कराया जाना बेहद ज़रूरी है।
आज जिस एक और बात से मेरी चिंता बढ़ जाती है, वह है देश के ज़्यादातर युवाओं में राजनीतिक चेतना का नहीं होना। चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन हमें बताता है कि आजादी की लड़ाई के वक़्त नौजवान में मन में राजनीतिक चेतना किस हद तक घर कर चुकी थी। इस सवाल का जवाब तो समाजशास्त्रियों को तलाशना ही होगा। मुझे पता है कि चंद्रशेखर आज़ाद जब आज़ादी की लड़ाई में कूदे, तो वह कोई उन्माद नहीं था, क्रोध नहीं था, बदले की भावना नहीं थी, बल्कि उनकी सोच राजनीतिक स्तर पर पूरी तरह परिपक्व थी। एक बात और भी है कि चंद्रशेखर किसी क्रांतिकारी ख़ानदान से नहीं, बल्कि आम परिवार से थे। वर्ष 1922 में चौराचौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन अचानक वापस ले लिया, तो चंद्रशेखर जैसे बहुत से नौजवानों की विचारधारा में बड़ा बदलाव आया।
आज भी मुझे यह सोचकर हैरत होती है कि मात्र 17-18 साल की उम्र में हिंदोस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारियों के संगठन से सक्रिय तौर पर जुड़ गए थे। साल 1927 में राम प्रसाद बिस्मिल समेत चार साथियों के बलिदान के बाद आज़ाद ने उत्तर भारत की सभी क्रांतिकारी पार्टियों को जोड़कर हिंदोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया था। राम प्रसाद बिस्मिल आज़ाद के चंचल स्वभाव की वजह से उन्हें ‘क्विक सिल्वर’ के कूट नाम से बुलाते थे। काकोरी में आज़ाद और उनके साथियों ने ट्रेन से अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूट लिया। बाद में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाला लाजपत राय पर लाठियों
से हुए जानलेवा हमले के विरोध में उन्होंने भगत सिंह और राजगुरु के साथ अंग्रेज़ अफ़सर सौंडर्स की हत्या कर दी। चंद्रशेखर की अगुवाई में ही भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। तीनों पकड़े गए, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद अपने वचन के मुताबिक़ अंग्रेज़ों के हत्थे ज़िंदा नहीं चढ़े और 27 फरवरी, 1931 के दिन करीब 25 साल की उम्र में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में उन्होंने शहादत दे दी।
चंद्रशेखर आज़ाद की तारीफ़ करने वालों में उस वक़्त के ताक़तवर कांग्रेस नेता और बाद में देश के पहले प्रधानमंत्री बने जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। ऐसे में कांग्रेस का भी फ़र्ज़ बनता है कि वह भी देश की आज़ादी के ऐसे शहीदों को याद करे और देश को तोड़ने का इरादा रखने वालों के कंधे से कंधा मिलाकर न खड़ी हो।
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देश की क़ीमत पर सियासत ?
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
जेएनयू में देश के गुनहगार आतंकी अफ़ज़ल गुरु की बरसी के मौक़े पर जिस तरह देश विरोधी नारेबाज़ी हुई, उसने देश के नौजवानों के दिलों में नए सिरे से देशभक्ति की भावना का संचार किया है। मुझे खुशी है कि देश के कोने-कोने में हमारे जवान इस देश विरोधी कृत्य के विरोध में खड़े हो गए हैं। यह बात बहुत उम्मीद जगाती है। आमतौर पर मान लिया जाता है कि आज का युवा राह भटक गया है, लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है। जब भी कोई देश विरोधी बात उसका ज़मीर कछोरती है, वह सीना तान कर खड़ा हो जाता है। मेरी बहुत से युवाओं से इस बारे में बातचीत हुई, तो मुझे यह जानकर और भी ख़ुशी हुई कि उन्होंने संकल्प लिया है कि आज़ादी के वीर सिपाही भगत सिंह की तरह वे भी हर संभव तरीक़े से ऐसे देश विरोधी लोगों को खदेड़ने का काम करेंगे। हालांकि युवाओं में इस बात को लेकर थोड़ा मलाल ज़रूर है कि सरकार ने पहले ही दिन इस मामले में सख़्ती नहीं दिखाई।
जेएनयू यानी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम पर बना ऐसा विश्वविद्यालय है जिसमें देश-विदेश के बहुत से छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं। लेकिन नौ फरवरी को यूनिवर्सिटी कैंपस में जो कुछ हुआ, उसने कैंपस के नाम पर धब्बा लगा दिया है। देश के युवाओं के अलावा वे लोग भी इस देश विरोधी नापाक हरक़त का विरोध कर रहे हैं, जो किसी सिलसिले में विदेश में रहने को मजबूर हैं।
हमारा देश वसुधैव कुटुंबकम और सर्व धर्म समभाव वाला देश है। जिस देश में हम पूरी आज़ादी से रह रहे हैं, जिस देश में कोई भेदभाव नहीं होता, उसके ख़िलाफ़ ऐसा प्रदर्शन कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है?
हमारा क़ानून सब लोगों को विरोध दर्ज कराने का अधिकार देता है, लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या हम संविधान यानी संवैधानिक राष्ट्रवाद के ही विरोध में मोर्चा खोल लेंगे? वह भी एक आंतकवादी के नाम पर। ऐसे आतंकवादी के नाम पर जिसने देश की राजधानी में लोकतंत्र के पवित्र मंदिर यानी हमारी संसद पर हमले की साज़िश रची हो और जिसे देश की अदालत ने दोषी करार दिया हो? यह भी सच्चाई है कि हमारे संविधान ने हमें फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन यानी अपने विचार प्रकट करने की आज़ादी दे रखी है, लेकिन क्या किसी आतंकवादी का समर्थन करना अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जा सकता है? क्या हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश विरोधी गतिविधियों को जायज़ मान सकते हैं? क़ानून हमें आज़ादी देता है, लेकिन देश हित में वह हमारी आज़ादी की हदें तय भी करता है। किसी भी देश में या कहें कि परिवार में किसी भी मसले पर दो तरह के विचार हो सकते हैं, लेकिन मैं साफ़तौर पर मानता हूं कि परिवार को तोड़ने के विचार का हमेशा विरोध ही होना चाहिए।
मुझे लगता है कि अब वक़्त आ गया है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी या कहें कि विचार व्यक्त करने की आज़ादी के अधिकार पर नए सिरे से चर्चा होनी चाहिए और इसकी हदें साफ़ तौर पर तय की जानी चाहिए। जेएनयू कैंपस में देश को तोड़ने के समर्थन में साफ़-साफ़ नारे लगाए गए। चंद गुमराह युवाओं की भीड़ ने नारे लगाए कि कश्मीर आज़ाद किया जाए। बंगाल और केरल की आज़ादी के भी नारे लगाए। कश्मीर के अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के समर्थन में भी नारे लगाए। एक नारा यह भी लगा कि भारत तेरे टुकड़े होंगे। विरोध कर रहे छात्र गो बैक इंडिया, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जैसे नारे भी लगा रहे थे। क्या कोई देशभक्त हिन्दुस्तानी ऐसे नारे सुनकर शांत रह पाएगा? देश के गद्दार क्या यह मानते हैं कि देश की न्यायपालिका न्याय नहीं कर रही है? जो लोग देश विरोधी मानसिकता रखते हों, क्या उन लोगों को हक़ है कि देश की पवित्र न्यायपालिका पर उंगली उठा सकें? दूसरी बात यह अगर प्रदर्शनकारी जायज़ मांग उठा रहे थे, तो फिर उनमें से बहुतों ने मुंह क्यों ढके हुए थे? अगर उनकी मांगें सही थीं, तो फिर उन्हें मुंह छुपाने की क्या ज़रूरत थी?
एक बात और मुझे बहुत परेशान करती है। वह यह कि मौजूदा दौर में हमारी सियासत का स्तर इतना गिरता जा रहा है कि कई बार शर्म आने लगती है। विपक्ष किसी मसले पर विरोध करते वक़्त यह भी नहीं देखता कि कहीं जाने-अनजाने में वह देशद्रोहियों की वक़ालत तो नहीं कर रहा। मैं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बयानबाज़ी करते वक़्त संयम बरतने की सलाह ज़रूर दूंगा। वे कह रहे हैं कि उन्हें गांधी यानी बापू के हत्यारों से देशभक्ति का पाठ नहीं पढ़ना। मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि बापू के हत्यारों के बारे में संघ परिवार और बीजेपी कई बार अपने विचार खुलकर व्यक्त कर चुकी है, लिहाज़ा राहुल का यह बयान समझ से कोसों परे है। उन्हें यह तो पता होगा कि नाथूराम गोडसे को इस देश के कानून ने ही फांसी पर लटकाया था। लेकिन राहुल अगर मानते हैं कि राष्ट्रवादी विचारधारा वाले देश के सारे नागरिक ही बापू के हत्यारे हैं, तो यह हास्यास्पद है। अगर ऐसा है, तो क्या राहुल अब भी यह मानते हैं कि देश का सारा सिख समुदाय इंदिरा गांधी जी का हत्यारा है? राजधानी दिल्ली समेत देश भर में 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के वक़्त तो ऐसा ही लग रहा था। इस तरह की सियासी सोच बदलनी होगी। कोई समुदाय किसी का हत्यारा या किसी के प्रति अपराध करने वाला नहीं हुआ करता। ऐसा करने वाले सभी लोग व्यक्तिगत स्तर पर देश विरोधी ही कहे जाएंगे।
मेरा कांग्रेस से सवाल है कि हमारे लोकतंत्र के प्रतीक संसद पर हमला करने वालों को क्या सज़ा नहीं मिलनी चाहिए थी? क्या कांग्रेस अफ़ज़ल गुरु को शहीद मानती है? क्या कांग्रेस मानती है कि कश्मीर को आज़ाद कर दिया जाना चाहिए? क्या कांग्रेस हुर्रियत कांफ्रेंस का समर्थन करती है? क्या कांग्रेस मानती है कि देश का विभाजन कर दिया जाना चाहिए? अगर नहीं मानती, तो फिर कुछ गुमराह लोगों के समर्थन में बयानबाज़ी करने से पहले कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेताओं को ज़रा विचार तो करना ही चाहिए। सियासत करनी है, तो कुछ भी बोलने से काम नहीं चलेगा। कम से कम ऐसे मसलों पर तो सावधानी से बोलें, जो देश की सुरक्षा, देश हित के मुद्दों से जुड़े हों। क्या यह देश के साथ बड़ा मज़ाक नहीं है कि कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला देश के गद्दार अफ़ज़ल गुरु के नाम के आगे ‘जी’ जैसा सम्मानित संबोधन लगाएं? इतने संवेदनशील मुद्दे पर बयान जारी करने की हड़बड़ी में वे एक क़दम और आगे निकल गए। उन्होंने संसद पर हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को सुप्रीम कोर्ट पर हमले का दोषी बता दिया। इससे ही साफ़ हो जाता है कि कांग्रेस किसी भी मसले पर कितनी गंभीरता से सोचती है।
आपको याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनावों से पहले देश में असहिष्णुता के नाम पर नफ़रत का माहौल बनाया गया। इरादा साफ़ था कि किसी तरह बिहार में एनडीए को हराया जाए। अब ज़रा फिर से टाइमिंग पर गौर कीजिए। कुछ राज्यों में जल्द ही चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में देश विरोधी लॉबी ने एक बार फिर यह साज़िश रची है कि देश को किसी भी स्तर पर बांट दिया जाए। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि वे इसमें कतई कामयाब नहीं होंगे। मैं एक बार फिर देश के ज़्यादातर नौजवानों का जज़्बा महसूस कर निश्चिंत हूं कि देश विरोधी ताक़तों को मुंहतोड़ जवाब मिलेगा। नफ़रत की ऐसी राजनीति की जितनी भर्त्सना की जाए, कम है।
गंगा के लिए सब हों संजीदा
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
भारत में गंगा एक ऐसी नदी है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक लोगों की आस्था का केंद्र है, लेकिन इस नदी का पानी आज पीने लायक भी नहीं है। मैं सोचता हूं कि ऐसा कैसे हुआ कि देश के ज़्यादातर लोगों की आस्था जिस नदी पर है, उसकी दुर्दशा आख़िर उन्होंने ही क्यों कर दी? बहुत से लोग मानते हैं कि गंगा की इस हालत के लिए सरकारें ज़िम्मेदार हैं, लेकिन मेरा उनसे सवाल है कि अगर सरकारें ज़िम्मेदार हैं, तो उन्होंने उनका विरोध क्यों नहीं किया?
क्या हम नदियों, तालाबों, झीलों में पूजा-पाठ की सामग्री प्लास्टिक की थैलियों में बांधकर फेंकने की अपनी छोटी सी आदत बदल पाए हैं? मेरा साफ़ तौर पर मानना है कि बिना जन-भागीदारी के गंगा और दूसरी नदियों को गंदा होने से नहीं रोका जा सकता। अब केंद्र में मोदी सरकार ने भी जनता की मदद से गंगा को साफ़ करने की पहल की है, तो मैं इसका स्वागत करता हूं। 30 जनवरी को दिल्ली में गंगा किनारे वाले इलाक़ों के 1600 से ज़्यादा ग्राम प्रधानों और सरपंचों का सम्मेलन बुलाया गया। इसमें केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों ने शिरक़त की। सम्मेलन में सरकार ने माना कि गंगा में प्रदूषण के लिए ख़ासतौर पर बड़े-बड़े शहरों के सीवर और औद्योगिक कचरा ज़िम्मेदार है, लेकिन गंगा किनारे बसे गांवों का कचरा भी इसकी बड़ी वजह है। साफ़ है कि बिना जन-भागीदारी के यह प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो सकता। गंगा को पूरी तरह साफ़-सुथरी बनाने में क़रीब 50 हज़ार करोड़ रुपए का ख़र्च आने का अनुमान है। इसमें पांच साल लग सकते हैं, लेकिन प्रोजेक्ट के पूरी तरह सफल होने में 15 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि केवल पानी की सफ़ाई की ही बात नहीं है, बल्कि गंगा किनारे घाट बनाने, उनके सौंदर्यीकरण और पर्यटन और व्यापार के लिहाज़ से गंगा में यातायात बहाल करने का भी काम होना है। मोदी सरकार इसके लिए कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट के लिए 20 हज़ार करोड़ का बजट आवंटित किया गया है। इससे पहले तीस साल तक गंगा की सफ़ाई पर क़रीब चार हज़ार करोड़ रुपए ही ख़र्च किए गए थे। वह रक़म भी ज़्यादातर अफ़सरों और ठेकेदारों की जेब में ही चली गई, अगर तब गंगा की साफ़-सफ़ाई का बेसिक काम भी शुरू हुआ होता, तो अब मोदी सरकार के सामने इतनी दिक्कत नहीं होती। गंगा किनारे 118 शहर बसे हैं, जिनसे रोज़ क़रीब 364 करोड़ लीटर गंदगी और 764 उद्योगों से होने वाला प्रदूषण गंगा में मिलता है। यह बहुत बड़ी चुनौती है और बिना लोगों के जागरूक हुए इससे निपटा नहीं जा सकता। अब अच्छी बात यह कि मोदी सरकार के सात मंत्रालयों ने इस गंभीर चुनौती को फ़तह करने के लिए हाथ मिला लिए हैं। ये मंत्रालय हैं- मानव संसाधन विकास, पोत परिवहन, ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता, पर्यटन, आयुष और युवा और खेल मामले। पहले योजना थी कि गंगा की सफ़ाई पर ख़र्च का 75 फ़ीसदी केंद्र और 25 फ़ीसदी बोझ राज्य उठाएं, लेकिन मोदी सरकार ने दरियादिली दिखाते हुए सारे ख़र्च का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया है। हालांकि मैं फिर ज़ोर देकर कह रहा हूं कि बिना देश के आम लोगों की भागीदारी के इस दिशा में हमें पूरी कामयाबी नहीं मिल सकती। हमारी आस्था की नदी गंगा की स्थिति दुनिया के दूसरे देशों की बड़ी नदियों के मुकाबले अलग है। मॉनसून में गंगा का पाट औसतन करीब 15 फीट तक बढ़ जाता है, जबकि सर्दियों में यह बहुत कम हो जाता है। माना जाता है कि गंगा में नहाने से पाप धुल जाते हैं, लिहाज़ा रोज़ लाखों लोग इसमें डुबकी लगाते हैं। करोड़ों लोग महाकुंभों, अर्धकुंभों और दूसरे मौक़ों पर गंगा में डुबकी लगाने के लिए कई-कई दिनों तक गंगा किनारे जुटते हैं। ज़ाहिर है कि सैकड़ों टन पूजा सामग्री गंगा में फेंकी जाती है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अंतिम संस्कार भी गंगा के किनारे किए जाते हैं। साथ ही देश के दूसरे हिस्सों से लोग अस्थि विसर्जन के लिए भी बड़ी संख्या में गंगा पहुंचते हैं। अगर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर औद्योगिक कचरे की समस्या का हल निकाल लें और सख़्ती से इस पर अमल कर भी लें, तब भी रोज़ करोड़ों लोगों के संपर्क में आने वाली गंगा प्रदूषित ही रहेगी, जब तक कि लोगों के मन में इसकी साफ़-सफ़ाई को लेकर पुख़्ता भावनाएं नहीं पनपती।
यह भी कड़ुवा सच है कि आज के आर्थिक दौर में केवल आस्था के नाम पर ही आप लोगों को किसी सामाजिक मुहिम से बहुत दिनों तक जोड़े नहीं रख सकते। ज़्यादातर लोगों में गंगा को लेकर आस्था आज भी घटी नहीं है। हां, पहले की तरह अब ऐसा नहीं होता कि सच-झूठ का फ़ैसला गंगाजल हाथ में लेकर होता हो। ऐसे में अगर गंगा को साफ़ रखना है, तो इसे लोगों के कर्तव्यों के साथ-साथ रोज़गार से भी जोड़ना होगा। गंगा किनारे नदी से जुड़े रोज़गार के मौक़े पैदा करने होंगे। केंद्र सरकार ने यह पहल भी शुरू कर दी है। लोगों को जैविक खेती के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें सेहत के प्रति भी जागरूक करना होगा। इस तरह ‘नमामि गंगे’ केवल गंगा के पानी की साफ़-सफ़ाई तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह एक समग्र आंदोलन होना चाहिए। अभी तक ज़्यादातर तो गंगा पंडे-पुजारियों के पेट भरने का ही ज़रिया है, लेकिन अब मोदी सरकार चाहती है कि श्रद्धालुओं को विकास के कामों के लिए दान देने के लिए प्रेरित किया जाए। विकास कार्यों में दानदाताओं के नाम के शिलापट्ट लगाए जाएं। मॉडल धोबीघाट बनाने के साथ-साथ आधुनिक शवदाह गृह विकसित किए जाएं। लोगों को बताया जाए कि वे अपनों का अंतिम संस्कार आधुनिक पद्धति से करें, तो उनके रिश्तेदारों को सौ फ़ीसदी मोक्ष मिलेगा। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस मुहिम में आम लोगों की भागीदारी के साथ देश के नामचीन लोग भी जुड़ें।
हाल ही में मैंने किसी अख़बार में पढ़ा कि कश्मीर घाटी की डल झील की सफ़ाई एक स्वयंसेवी संस्था ने बिना किसी सरकारी मदद के की। यह अपनी तरह की अनोखी पहल थी। लोगों से अपील की गई कि वे डल झील की सफ़ाई में मदद करें, बदले में उन्हें कपड़े दिए जाएंगे। बड़ी संख्या में लोग सफ़ाई में जुट गए। कपड़े देने का प्रलोभन नहीं दिया जाता, तब भी लोग डल की सफ़ाई करते ही। इसे ‘वस्त्र सम्मान’ का नाम दिया गया। झीलों की नगरी राजस्थान के उदयपुर शहर के लोगों ने पिछले दिनों श्रमदान कर झीलों की सफ़ाई की। उन्होंने बाक़ायदा ‘झील हितैषी नागरिक मंच’ बना रखा है। मंच की शिकायत है कि राजस्थान हाईकोर्ट की सख़्ती के बावजूद प्रशासन इस तरफ़ कड़ाई नहीं कर रहा है। अभी हाल ही में राजस्थान हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने राज्य सरकार को एक मार्च, 2016 तक राजस्थान झील विकास प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है। 26 जनवरी को केरल में कोझिकोड़ के ज़िलाधिकारी ने फेसबुक पर लोगों से अपील की कि शहर की बड़ी झील की अगर वे सफ़ाई करेंगे, तो उन्हें बिरयानी खिलाई जाएगी। अपील रंग लाई और लोगों ने झील को निर्मल बना दिया। यह बेहद गंभीर बात है कि इंसानों की करतूत का असर पूरी क़ुदरत पर पड़ रहा है। मैं चाहता हूं कि न केवल गंगा, बल्कि देश की सभी नदियों की पवित्रता लौटाने की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने अपना काम पूरी ईमानदारी से शुरू कर दिया है। अब बारी आम आदमी की है, हमारी और आप की है। जो नदियां हमें जीवन देती हैं, उन्हें मिटाने का काम हम न करें। सरकार के कंधे से कंधा मिलाकर काम करें।
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चोर दरवाजे बंद करने का तंत्र
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
25 जनवरी को देश में राष्ट्रीय मतदाता दिवस होता है। देश में आजकल लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने को लेकर बहस चल रही है। यह बहस इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि अब चुनाव क़रीब-क़रीब हर साल होने लगे हैं। आज़ादी के बाद 1967 तक चार बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए थे। वर्ष 1967 में हुए चौथे चुनाव में कांग्रेस का तिलिस्म टूट गया और कई राज्यों में देश के नागरिकों ने उसे पूरी ताक़त नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि कुछ सरकारें वक़्त से पहले ही ज़मीन पर आ गईं। बात उस समय और ज़्यादा बिगड़ गई, जब इंदिरा गांधी ने एक साल पहले 1971 में ही केंद्र में मध्यावधि चुनाव करा दिए। अब ऐसे हालात बन गए हैं कि देश में कहीं न कहीं चुनाव हर साल होने लगे हैं। इससे बड़े पैमाने पर देश का ख़ज़ाना ख़ाली होता है और केंद्र या राज्यों में सरकारें बनाने वाली पार्टियां या गठबंधन विकास पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं रख पाते हैं। श्रम शक्ति की बर्बादी, हज़ारों करोड़ की सरकारी रक़म की बर्बादी, काले धन का जमकर इस्तेमाल होने के साथ-साथ सद्भाव के भारतीय सामाजिक ताने-बाने पर इसका बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।
पिछले दिनों एक स्थाई संसदीय समिति ने इस बारे में विस्तार से अपनी रिपोर्ट संसद में रखी है, जिसमें कई सुझाव दिए गए हैं। समिति ने माना है कि चुनाव हर साल होने की वजह से देश को बहुत नुकसान हो रहा है। समिति के मुताबिक़ हर पांच साल में दो बार चुनाव होने का रास्ता निकालना पड़ेगा। समिति का सुझाव है कि ऐसा करने के लिए राज्यों के दो समूह बूनाने चाहिए। एक समूह का चुनाव नवंबर, 2016 में कराया जाए और दूसरे समूह के राज्यों के चुनाव मई-जून, 2019 में लोकसभा चुनावों के साथ कराए जाएं। इससे कई राज्यों के कार्यकाल पर थोड़ा-बहुत असर पड़ सकता है, लेकिन ऐसा हो गया, तो देश का बड़ा फ़ायदा होगा। मैं भी इस सुझाव से सहमत हूं। चुनाव आयोग को इस बारे में गंभीरता से पहल कर सियासी सहमति बनाने के लिए आगे आना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि चुनाव सुधार को लेकर यह बहस नई है। मेरी पार्टी बीजेपी में भी इस बारे में मंथन चलता रहा है। देश के उप-राष्ट्रपति और राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे भैंरोसिंह शेखावत भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने के पक्षधर थे। मैं ख़ुद भी इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात कर अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुका हूं।
चुनाव सुधार की इस ज़रूरत के साथ-साथ और बहुत सी ख़ामियों पर भी विचार किया जाना चाहिए। सियासी व्यक्ति होने के नाते मैं रोज़ बहुत से लोगों से मिलता रहता हूं। रोज़ ही कई लोग वोटर लिस्ट को लेकर शिकायतें करते हैं।
मतदान के दौरान क़रीब-क़रीब हर बूथ से यह शिकायत आती है कि वोटर कार्ड होने के बावजूद कई लोगों के नाम वोटर लिस्ट में नहीं होते। यह छोटा नहीं, बड़ा मसला है। वोटर लिस्ट को लेकर दूसरी कई तरह की भी विसंगतियां हैं। मसलन, कुछ लोग मुझसे कहते हैं केंद्र के चुनाव में वोटर लिस्ट में उनका नाम था, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट से उनका नाम ग़ायब था। इसी तरह पंचायत चुनावों में तो वोटर लिस्ट में नाम था, लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों की वोटर लिस्ट में नाम नहीं था। मैं सोचता हूं कि चुनाव आयोग को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अब संचार क्रांति का दौर चल रहा है। बहुत सा डेटा नेट पर उपलब्ध है। पिछले साल अप्रैल तक देश भर में 82 करोड़ आधार कार्ड बन चुके थे। यह आंकड़ा देश की कुल आबादी का क़रीब 70 फीसदी है। अप्रैल से लेकर इस साल अब तक नौ महीने गुज़र चुके हैं। ज़ाहिर है कि आधार कार्ड के आंकड़े में काफ़ी इज़ाफ़ा हो चुका होगा। ऐसे में केंद्र, राज्य और ज़िलावार वोटर लिस्टों में संशोधन नहीं हो पाना हैरत की बात है। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जो 35 साल पहले गांव छोड़ चुके हैं, लेकिन उनके नाम आज भी गांव की वोटर लिस्ट में हैं। साथ ही आज जहां वे रह हैं, वहां की वोटर लिस्ट में भी उनके नाम हैं।
पता नहीं क्यों इस विसंगति को दूर करने की कोई ठोस कोशिश नहीं की जा रही है। मेरी चुनाव आयोग से पुरज़ोर अपील है कि वोटर लिस्ट जल्द से जल्द अपडेट की जाएं, जिससे लोकतंत्र की असली आत्मा को सुकून मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, बहुत से ताक़तवर और रसूखदार उम्मीदवार बिना जनाधार के ही जीतते रहेंगे और लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका लगता रहेगा। वैसे भी आज खंडित जनाधार का ज़माना है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र भाई मोदी की अगुवाई में बीजेपी को जितना जनाधार मिला, उससे लगता है कि स्थिर सरकारों का दौर एक बार फिर शुरू हो सकता है। यूपी और कुछ दूसरे राज्यों के चुनाव परिणामों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही संदेश देश के मतदाताओं ने दिया है। लेकिन फ़र्ज़ी वोटिंग तभी रोकी जा सकती है, जब मतदाता सूचियां अपडेट करने का कोई वैज्ञानिक सटीक तंत्र हम विकसित करें। जो कि आज के संचार क्रांति के ई-दौर में पूरी तरह संभव है। हां, इसके लिए चुनाव आयोग की इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
पिछले कुछ चुनावों से मतदान का प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन अब भी अगर हम वोटिंग का औसत 60-65 प्रतिशत मान लें, तो भी कहा जा सकता है कि ज़्यादातर सरकारें असल में अल्पमत की सरकारें। हैं। वजह साफ़ है। देश में 30-35 प्रतिशत लोग वोट डालने के लिए घरों से निकलते ही नहीं। अगर 60-65 फ़ीसदी वोटिंग में से ही जीत होती है, तो क्या इसे देश के कुल वोटरों का बहुमत माना जा सकता है? सवाल यह भी बड़ा है कि देश के 30-35 फ़ीसदी लोग वोट डालने के लिए घरों से निकलते क्यों नहीं हैं? वोटर लिस्टों की गड़बड़ी भी इसकी एक बड़ी वजह है।
पहले तो यह पता लगाना कि वोटर लिस्ट में नाम है या नहीं, फिर नाम शामिल कराना या कटवाना, यह सारी क़वायद अब भी थोड़ी जटिल है। लिहाज़ा बहुत से लोग इस झमेले में पड़ते ही नहीं और ज़ाहिर है कि वे वोटिंग करने भी नहीं निकलते। इस प्रक्रिया को आसान और भरोसेमंद बनाकर देश के बहुत से नागरिकों के मन से इस प्रवृत्ति को निकाला जा सकता है। जब वोटर लिस्टों में गड़बड़ियों का मसला हल नहीं हो पा रहा है, तब देश में अनिवार्य वोटिंग पर बहस बड़ी हास्यास्पद लगती है। चुनाव आयोग से दोबारा दरख़्वास्त है कि लोकतंत्र के मंदिरों तक पहुंचने वाले इस चोर दरवाज़े को बंद करने के लिए कृपया कोई तंत्र विकसित करे।
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आरटीआई को बदनाम मत करो
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्य सभा सदस्य हैं)
कल अखबार में एक खबर देखकर मुझे आश्चर्य और गुस्सा दोनों आ रहा था। खबर यह थी कि सोनिया गांधी का सरकारी बंगला प्रधानमंत्री के निवास से बड़ा है या छोटा है। सोनिया गांधी जी का 15,181 वर्ग मीटर और प्रधानमंत्री का 14,101 वर्ग मीटर। इसके साथ-साथ राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के बंगले और राहुल गांधी, प्रियंका गांधी इत्यादि-इत्यादि के बंगले कितने-कितने बड़े हैं। यह जानकारी एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने निकाली, जिसे अखबारों ने प्रमुखता से छापा।
मैं यह सोचने लगा कि कल कोई भी आरटीआई के माध्यम से यह भी पूछ सकता है कि राष्ट्रपति भवन में कितने आम के पेड़ लगे हैं और पिछली बार जो आम लगे थे, उनको बेचा गया यदि बेचा गया तो कितने में बेचा गया।
आरटीआई का मतलब तो यह है कि केवल वो जानकारी आप ले सकते हैं जो कि सरकारी फाइलों में या जिस भी कार्यालय से आपने जानकारी मांगी है, उसमें वह जानकारी पहले से उपलब्ध हो। न कि आरटीआई मांगने के बाद वह जानकारी इकट्ठी कर फाइलों में लाई जाए, पर इस बात को विभाग देख ही नहीं रहे और अंधाधुंध जानकारी उपलब्ध करवा रहे हैं। आरटीआई में ‘क्यों’ और उस बात का ‘कारण’ पूछा नहीं जा सकता, पर अलग-अलग विभाग भी बिना दिमाग लगाए जानकारियां दे रहे हैं, जिससे कि नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। आरटीआई पांच सौ शब्दों की हो सकती है पर लोग कई-कई पेज काले कर जानकारी मांग रहे हैं।
जिस तरह से आरटीआई का दुरूपयोग हो रहा है, उसको देखकर मन बड़ा चिन्तित होता है कि छोटी-छोटी बेमतलब की चीजों पर आरटीआई डाली जा रही हैं और जानकारी मंगवाई जा रही है। जानकारी मांगने वाला यह नहीं समझता कि इससे सरकार का कितना समय बर्बाद हो रहा है, कितने सरकारी अफसर इस समय में कोई और काम कर सकते थे। इसके साथ ही कितनी स्टेशनरी जाया जा रही है। इन फाइलों को छानते-छानते कितने कागज फाइलों से इधर-उधर हो जाते होंगे, इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।
एक दस रूपए की आरटीआई लगाकर सरकार के कितने करोड़ों रूपए इस पर अपव्यय हो रहे होंगे, इसका हिसाब लगाया जा सकता है। मैं उन सब आरटीआई वालों की बात कर रहा हूं जिनकी आरटीआई से देष और समाज का कुछ भला नहीं होने वाला और जिसके तहत लोग केवल अपने आनन्द या अपने स्वार्थ के लिए जानकारी मांग रहे हैं।
कोई दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि इस देश में यदि सारे राज्य मिला लिए जाएं तो आरटीआई की संख्या लाखों में है या करोड़ों में चली गई है। इसका कोई थोड़ा-बहुत हिसाब होगा भी तो वह कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के पास होगा।
आज का मीडिया भी चटपटी खबरों के लिए इस तरह की आईटीआई की जानकारियों को बढ़ावा दे रहा है। कहीं-कहीं तो यह भी सुनने में आता है कि कुछ मीडिया वालों ने आरटीआई एक्टिविस्ट की पोस्ट अपने दफ्तरों में रखी हुई है, जिसका काम केवल यह है कि आरटीआई से जानकारी निकालना है ताकि वह समाचार-पत्रों में सुर्खी बन सके। कई बार ये याचिकाएं आरटीआई लगाने वाले महज अपने प्रचार के लिए लगाते हैं कि देखिए हमने किस तरह की सनसनीखेज खबर निकाली और फिर उसे अखबारों में छपने के लिए भेज देते हैं।
इससे भी ज्यादा मजे की बात तो यह है कि कई बार व्यक्ति आरटीआई लगाता है और उसके बाद जब उसका लम्बा-चैड़ा जवाब आता है तो उसे देखता तक नहीं। जोश में आकर हम आरटीआई लगाकर भूल जाते हैं, और फिर उसे पढ़ने की ज़हमत तक नहीं करते।
आरटीआई एक्ट पारित करने के उद्देश्य कुछ और थे। लोगों ने जिस तरह से उसका गलत इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, इसको देखकर क्या यह नहीं लगता कि सरकार को आरटीआई के नियमों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है ताकि लोग आरटीआई का दुरूपयोग न कर सकें। आरटीआई की तरह ही न्यायालयों में भी जनहित याचिकाओं की बाढ़ आई हुई थी। यह देखकर अच्छा लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया और तय किया कि यदि जनहित याचिका बिना मतलब के केवल अपने स्वार्थ के लिए पाई गई, तो याचिकाकत्र्ता पर भी जुर्माना लग सकता है और ऐसे कई तथाकथित समाज के हितों की पैरवी करने वाले याचिकाकत्र्ताओं पर जुर्माना लगा भी और इन जनहित याचिकाओं में कमी भी आई।
जुर्माना तो नहीं, पर आरटीआई के दुरूपयोग करने पर यानी कि बिना मतलब की कोई जानकारी लेने के लिए लगाई गई आरटीआई पर कई बार कमिश्नर उनके खिलाफ टिप्पणी कर रहे हैं और वे संबंधित सरकारी विभागों को ऐसी आरटीआई लगाने वालों पर कार्रवाई करने की अनुशंसा भी करते हैं। वे विभाग से इस बात की भी उम्मीद करते हैं कि वे इस बात की जांच करें कि आरटीआई लगाने वालों का उदेश्य क्या था, और उनकी क्या पृष्ठभूमि रही है। इसके बावजूद भी ज्यादातर ये विभाग मामले को आगे बढ़ाने के लिए कमिश्नर की अनुशंसाओं पर कोई ध्यान नहीं देते और कहते हैं कि हमने आरटीआई में जानकारी दे दी और हमारा पीछा छूट गया, अब हम दोबारा क्यों इस पचड़े में पड़ें।
अभी बेमतलब की आरटीआई लगाने वाले लोगों पर किसी प्रकार के जुर्माने की व्यवस्था नहीं है। एक बार एक कमिश्नर ने गलती से बेमतलब की आरटीआई लगाने वाले पर पांच सौ रूपए का जुर्माना ठोक दिया तो उसकी मुसीबत आ गई क्योंकि आरटीआई वाले ने उसे न्यायालय में घसीट लिया। इसी तरह एक बार मद्रास हाई कोर्ट ने भी बेमतलब की आरटीआई लगाने पर जुर्माना लगा दिया था, पर कुछ ही दिनों में उसको वापिस लेना पड़ा, क्योंकि आरटीआई एक्ट में इसका कोई प्रावधान नहीं था।
अब तो झूठी आरटीआइयों की बाढ़ आई हुई है। लोग अपने नाम से आरटीआई न लगाकर दूसरों के नाम से आरटीआई लगा रहे हैं और तो और प्रसिद्ध आरटीआई एक्टिविस्ट सुभाश अग्रवाल के नाम से ही कम से कम पचासों झूठी आरटीआई लगा दी गई इसलिए कि इनके नाम से आरटीआई लगाएंगे तो जवाब जल्दी आएंगे और कई बार तो सुभाष अग्रवाल को यह लिखकर बताना पड़ा कि ये आरटीआई उन्होंने नहीं लगाई, बल्कि उनके नाम से गलत लगाई गई है।
हर राज्य में हजारों आरटीआई केवल एक-दूसरे को परेषान करने के लिए लगाई जा रही हैं और व्यक्तिगत दुश्मनी निकाली जा रही है। और तो और पति अपनी कामकाजी पत्नी के खिलाफ आरटीआई लगा रहे हैं और जानकारी निकाल रहे हैं, जिससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है।
आरटीआई के कारण जो ब्लैकमेलिंग हो रही है, वह किसी से छिपी नहीं है। यह पूरा एक व्यवसाय बन गया है। एक उदाहरण देखिए, राषन की दुकान के खिलाफ एक आरटीआई लगती है और फिर उस दुकानदार से सात सौ रूपए लेकर आरटीआई वापिस हो जाती है। इसी तरीके से अनधिकृत निर्माणों के खिलाफ आरटीआई लगती है और फिर बिल्डर से पैसे लेकर वापिस हो जाती है।
यह सर्वविदित है कि कई बार आरटीआई खुद सरकारी विभाग के कर्मचारी जो उसी विभाग में काम कर रहे हैं, अपने ही दूसरे सहकर्मी को परेषान या नीचा दिखाने के लिए लगवाते हैं और फिर उस आरटीआई की जानकारी पर अपने ही विभाग में नज़र भी रखते रहते हैं। यह कई बार ऐसा इसलिए भी होता है कि एक ईमानदार अफसर संदेह के घेरे में आ जाए कि इसके खिलाफ तो आरटीआई लगी हुई है।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने दो बातें बहुत ही महत्वपूर्ण कही हैं, पहली – सभी कार्यों का डिज़ीटलिज़शन होना चाहिए और दूसरा, ज्यादा से ज्यादा जानकारी वेबसाइट पर हो। यदि ये दो बातें हो जाती हैं तो पहले तो आरटीआई की आपश्यकता ही नहीं पड़ेगी और दूसरे यदि पड़ी भी तो उसका सीधा सा जवाब विभाग द्वारा होगा कि ‘यह जानकारी वेबसाइट पर उपलब्ध है।’
यह दुःख की बात है कि संसद को चलने नहीं दिया जा रहा और संसद में बहुत महत्वपूर्ण बिल अटके हुए है। यदि सरकार ‘सर्विस प्रोवाइडर बिल’ को लोकसभा और राज्यसभा में पारित करवाने में सफल हो जाती है, तो इसके अच्छे परिणाम होंगे, क्योंकि इसका सीधा संबंध जनता की समस्याओं से है और इसके कारण सरकार का हर विभाग इस बात के लिए बाध्य हो जाएगा कि उसको जनता की सेवाओं व समस्याओं को समयबद्ध तरीके से हल करना है। इसके पारित होने पर बहुत सारी आरटीआई षायद नहीं लगेंगी, क्योंकि ज्यादातर आरटीआई व्यक्तिगत समस्याओं के कारण लगती हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरटीआई एक बहुत महत्वपूर्ण हथियार जनता के पास है, पर यदि इसका इसी तरह से दुरूपयोग होता रहा तो किसी भी सरकार को इस पर पुनर्विचार करने पर विवष होना पड़ेगा। फिलहाल तो बेमतलब की आरटीआई लगाने वालों पर अंकुश लगाने की जरूरत है, नहीं तो आरटीआई प्रणाली बदनाम हो जाएगी।
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हड़बड़ी में गड़बड़ी है सम-विषम वाहनों का चक्कर
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य है और पीएमओ में राज्यमंत्री रह चुके हैं)
कोई आदमी हड़बड़ी में काम करे और गड़बड़ी हो जाए, तो बड़े-बुज़ुर्ग, समझदार लोग उसे ऐसा नहीं करने की नसीहत देते हैं। अक्सर देखा गया है कि गड़बड़ी होने के बाद एक बार की नसीहत ज़्यादातर लोग गांठ बांध लेते हैं। लेकिन कोई सरकार अगर बार-बार हड़बड़ी करे और बार-बार गड़बड़ी हो, तो आप क्या कहेंगे? आपके ज़ेहन में शायद यही सवाल आएगा कि ऐसी सरकार आख़िर सबक़ क्यों नहीं लेती?
राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक हो चुका है, इस बात से किसी को भी इनकार नहीं होगा। राजधानी में रहने वाले और रोज़मर्रा के कामकाज या नौकरी के लिए दिल्ली में आने वाले लोग यहां सांस के साथ ज़हर ख़ींचने को मजबूर हैं। मैं भी दिल्ली में रहता हूं, दिल्ली को प्यार करता हूं, लिहाज़ा नहीं चाहता कि यहां की हवा में घुला ज़हर ख़त्म नहीं हो। लेकिन सवाल यह है कि सम-विषम नंबर की गाड़ियों को अलग-अलग दिन चलाने का फ़ार्मूला वायु प्रदूषण कम करने के लिए वाक़ई काम आएगा या नहीं? दिक्कत यह है कि इस क़िस्म के फ़ैसले लेते वक़्त दिल्ली के आम लोगों, नौकरशाही, पुलिस और विपक्ष से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जाता। आनन-फ़ानन में फ़ैसला लिया जाता है और लोगों पर लाद दिया जाता है। अगर समस्या का यही समाधान है, तो इससे भी मुझे ऐतराज़ नहीं है। लेकिन असल बात यह है कि इस तरह के अव्यावहारिक फ़ैसलों से समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं निकलने वाला है। उल्टे बहुत से स्तरों पर समस्या खड़ी हो जाएगी।
दिल्ली सरकार ने अचानक मीडिया को बुलाकर ऐलान कर दिया। सोचा होगा नए आइडिया को लोग हाथों-हाथ लेंगे और ख़ूब वाहवाही मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने उल्टे सवाल उठाने शुरू कर दिए। फ़ैसला था कि दिनों के हिसाब से सम-विषम नंबरों की गाड़ियां दिल्ली की सड़कों पर दौड़ेंगी। लेकिन तीन-चार दिन बाद अचानक पता नहीं क्या हुआ कि सरकार के मंत्री ने फिर से मीडिया को बुलाया और कहा कि दिनों के नहीं, बल्कि तारीख़ों के हिसाब से सम और विषम नंबर की गाड़ियां सड़कों पर उतरेंगी। लोगों ने सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लगा दी, तो सरकार को आख़िरकार कहना पड़ा कि फ़ॉर्मूला लागू कर जल्द ही इसकी समीक्षा की जाएगी। फिर नए सिरे से इसमें सुधार किए जाएंगे। अब अगर सरकार फ़ॉर्मूले का ऐलान करने से पहले ही जनता की राय ले लेती, तो क्या बिगड़ जाता? जो फ़ज़ीहत हुई, वह तो कम से कम बच जाती। सरकार की साख़ बची रहती। दिलचस्प बात तो यह है कि हड़बड़ी में गड़बड़ी ऐसे लोगों की सरकार कर रही है, जो बाक़ायदा आंदोलन चलाकर आम लोगों की सरकार की वक़ालत करते रहे हैं।
यह सही है कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण कम करने के लिए ठोस क़दम उठाए जाने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन ऐसा करने के लिए समग्र रणनीति बनानी होगी। एक-दो प्रशासनिक फ़ैसलों से कुछ नहीं होने वाला। दिल्ली में अभी 90 लाख वाहन हैं। रोज़ डेढ़ हज़ार नई गाड़ियां सड़कों पर उतर रही हैं। इसके अलावा दूसरे राज्यों से दिल्ली में आने वाले वाहनों के साथ ही ऐसे वाहनों की भी बड़ी संख्या है, जो दिल्ली से होकर गुज़रते हैं। एनजीटी के ग्रीन टैक्स लगाने के बाद हालांकि दिल्ली से होकर गुज़रने वाले बड़े माल ढुलाई डीज़ल वाहनों की संख्या में कमी आई है, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है।
प्रसंगवश एक चर्चा और करता चलूं कि बड़े डीज़ल वाहनों की संख्या में आई कमी से टैक्स जमा करने वाले ख़ुश नहीं हैं। टैक्स जमा करने का काम ठेके पर निजी कंपनियों के ज़िम्मे है। उनकी दलील है कि इससे उन्हें घाटा होने लगा है, लिहाज़ा उन्होंने अदालत का दरवाज़ा भी शायद खटखटा दिया है। मैं कहना चाहता हूं कि इस क़िस्म की स्वार्थी मानसिकता बदलने की बेहद ज़रूरत है। चाहे किसी कंपनी की मानसिकता हो या आम आदमी की, इसमें बदलाव बेहद ज़रूरी है। जब बात पूरे समाज के अस्तित्व की हो, तो हममें कुछ क़ुर्बानियां देने का जज़्बा तो होना ही चाहिए। जब बात इतने बड़े ख़तरे की हो, तो कंपनियों को मुनाफ़ा कम होने की मानसिकता से बाहर निकल कर सोचने की ज़रूरत है। इसी तरह दिल्ली के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि वायु प्रदूषण कम करने के लिए वे भी सकारात्मक सोच रखें। आख़िर उनकी और उनके परिवार के लोगों की ज़िंदगी का सवाल है।
कोई भी समस्या हो, उससे निपटने के लिए दूरगामी क़दम उठाने ही पड़ते हैं। दिल्ली की सरकारों ने वायु प्रदूषण की इस बड़ी समस्या को लंबे समय से नज़रअंदाज़ किया, तो दिल्ली वालों ने सरकारों पर दबाव भी नहीं बनाया। हालात आज किस क़दर बिग़ड़ गए हैं, सभी जान और समझ रहे हैं। अब भी वक़्त है कि हम समग्र सोच के ज़रिए ऐसे क़दम उठाएं, ऐसा बुनियादी ढांचा तैयार करें कि समस्या और विकराल रूप न धारण कर ले। सरकारी फ़ैसले थोपने की बजाए लोगों की मानसिकता बदलने के लिए सकारात्मक पहल करने की ज़रूरत है। दिल्ली में बड़ी गाड़ी में लोग इसलिए निकलते हैं कि उन्हें अपनी शान-ओ-शौक़त दिखाने की ललक है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में ऐसा नहीं है। क्योंकि वहां लोकल ट्रेन और सार्वजनिक सड़क परिवहन का बुनियादी ढांचा इतना मज़बूत है कि अमीर लोग भी उसका ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करने में मुंबई के पैसे वालों के मन में कोई हीन भावना नहीं आती। लेकिन दिल्ली की बात अलग है। मैं अपनी दिल्ली के लोगों से अपील करना चाहता हूं कि प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए वे किसी सरकारी फ़ैसले का इंतज़ार नहीं करें। ख़ुद भी सोचें और समाज की मदद करें।
दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए केवल वाहन ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। कूड़ा-कर्कट जलाने से भी हवा ज़हरीली होती है। पड़ोसी राज्यों के किसान खेतों की कटाई के बाद पड़े कचरे में आग लगा देते हैं, इसका भी ख़ासा असर दिल्ली की हवा पर पड़ता है। बड़ी अदालतों के सख़्त निर्देशों के बावजूद पड़ोसी राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी इस पर रोक नहीं लगवा पाई है। साफ़ है कि किसानों में इस बारे में जागरूकता पैदा नहीं की जा सकी है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर वैध और अवैध निर्माण भी वायु प्रदूषण की बड़ी वजह है। दिल्ली के अलावा एनसीआर के आस-पास के इलाक़ों में बड़े पैमाने पर आवासीय निर्माण कार्य हो रहे हैं। उनकी वजह से धूल के कण दिल्ली की हवा की निर्मलता ख़त्म कर रहे हैं। दिल्ली को चाहिए कि वह पड़ोसी राज्यों से इस बारे में बात कर कारगर नीति बनवाए। लोगों को चाहिए कि वे इस बारे में सरकार पर दबाव बनाने का काम करें। हवा में प्रदूषण दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में चल रही औद्योगिक गतिविधियों की वजह से भी हो रहा है। वहां भी नई तकनीक के इस्तेमाल के लिए सरकार को दबाव डालना चाहिए। वायु प्रदूषण की एक छोटी वजह धूम्रपान भी है। इसके लिए लोगों को जागरूक करने का काम केंद्र सरकार भी कर रही है। इस कोशिश को और तेज़ करने की ज़रूरत है।
सम-विषम वाहन अलग-अलग दिन चलाने के फ़ैसले पर अमल से पहले ही बहुत सारे लोगों ने बहुत सारे सवाल खड़े किए हैं। सेल्फ़ ड्राइविंग वाली नौकरीपेशा महिलाओं के लिए इससे मुसीबत खड़ी हो सकती है। ख़ासतौर पर उन महिलाओं के लिए जो देर शाम या रात में दफ़्तरों से घरों के लिए निकल पाती हैं। घर से अस्पताल और अस्पताल के घर जाने वाले मरीज़ों के लिए भी यह फ़ैसला ख़ासी मुसीबत खड़ी कर सकता है। ड्यूटी पर तैनात ट्रैफ़िक पुलिस वाले को समझाने में ही काफ़ी वक़्त ज़ाया हो जाएगा। कुछ बीमारियां तो ऐसी होती हैं, जिनमें पांच मिनट की देरी भी प्राण-घातक साबित हो सकती है। इमरजेंसी में प्रसव पीड़ा होने पर क्या कोई तारीख़ के हिसाब से गाड़ी की तलाश करेगा या तुरंत अपनी गाड़ी से अस्पताल लिए रवाना हो जाएगा? बच्चों को कॉम्पिटीशन देने दिल्ली के किसी सेंटर पर पहुंचना हो, तो क्या होगा? सबसे बड़ी बात यह है कि इस क़िस्म के सवालों का अगर कोई सीधा-सीधा उत्तर निकल भी आए, तो दिल्ली सरकार इसे इतने बड़े पैमाने पर लागू कैसे करा पाएगी? एनफ़ोर्स टैक्नीक क्या होगी?
सम-विषम गाड़ियों का फ़ार्मूला भोले-भाले, सीधे-साधे बहुत से लोगों से अपराध भी करवा रहा है। एक अख़बार के मुताबिक दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के आउटर सर्किल में इन दिनों नकली नंबर प्लेट बनाने का धंधा ज़ोरों से चल रहा है। मक़सद साफ़ है कि सम नंबर की गाड़ी के मालिक विषम नंबर की नंबर प्लेट बनवा रहे हैं और विषम गाड़ियों के मालिक सम नंबर की प्लेट। अख़बार का दावा है कि नंबर प्लेट बनाने वाले गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन के काग़ज़ भी नहीं देख रहे हैं।
उन्हें अपनी जेबें भरने का नया ज़रिया मिल गया है। दिल्ली के बहुत से लोग इस तरह आपराधिक कृत्य भी करने से नहीं चूक रहे। सड़कों पर पहले से ही इतना जाम रहता है कि ट्रैफ़िक पुलिस अगर हर गाड़ी की नंबर प्लेट की जांच करने लगे, तो फिर क्या हाल होगा? पुलिस के लिए एक सिरदर्दी और बढ़ जाएगी। पुलिस को चाहिए कि नंबर प्लेट बनाने वाली दुकानों पर तुरंत ध्यान दे, दुकान वालों और लोगों को अपराधी बनने से रोके।
मैं दिल्ली से प्यार करता हूं। इसलिए चाहता हूं कि दिल्ली सेहतमंद रहे। दिल्ली की आब-ओ-हवा सेहतमंद होगी तो दिल्ली के दिल वाले बाशिंदों के चेहरे पर हमेशा मुसकान रहेगी। बीमार होने से केवल सेहत पर ही असर नहीं पड़ता, बल्कि पूरे परिवार का अर्थशास्त्र गड़बड़ा जाता है। घर के दूसरे सदस्य भी मानसिक तौर पर परेशान रहते हैं और सीमित आमदनी वालों का अच्छा-ख़ासा बजट इलाज पर ख़र्च होने लगता है। इस वजह से परिवारों की दूसरी ज़रूरतों में कटौती करनी पड़ती है। रिश्तों के आपसी संबंध ख़राब होने लगते हैं। लिहाज़ा सही यही है कि दिल्ली साफ़-सुथरी रहे। हर तरह के प्रदूषण से मुक्त रहे। लेकिन इसके लिए हड़बड़ी में फ़ैसले लेकर गड़बड़ी करने से बचना होगा और बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार करना होगा। मेरे लिए बड़ा सवाल यह है कि क्या दिल्ली सरकार अब कोई सबक़ लेगी या नहीं?
संसद में विकास की ही बात हो
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है, लेकिन विपक्ष में बैठे मेरे कई मित्र सांसद देश के विकास की न सोचते हुए एक कम ज़रूरी मुद्दे पर संसद का माहौल गर्म करने की कोशिश कर रहे हैं। ग़ैर-ज़रूरी मुद्दा है देश में असहिष्णुता यानी असहनशीलता का। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयन तारा सहगल ने वर्ष 1986 के लिए मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर देश में असहिष्णुता का मुद्दे को हवा दी। सरकार ने संसद के चलने में यह मुद्दा रूकावट न बने, इसलिए इस मुद्दे पर बहस करना स्वीकार कर लिया.
उसके बाद से लगातार बहुत से मंचों पर इसे लेकर बहस हो रही है। दिलचस्प बात यह है कि विकास की राह देख रहे देश के आम नागरिकों को इससे कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी अख़बारों और न्यूज़ टेलीविज़न मीडिया ने इस बहस को इतना खींच दिया है जैसे इससे बड़ा मसला देश के सामने कोई दूसरा है ही नहीं। देश के आम नागरिकों ने भारी बहुमत से नरेंद्र भाई मोदी की अगुवाई में एनडीए को जिताकर केंद्र की सरकार बनाई, तो उन्हें उम्मीद थी कि देश विकास की राह पर सही तरीके से आगे बढ़ेगा। लेकिन कुछ लोगों ने कुछ छोटे मसलों को इतना बड़ा बना दिया कि महज़ डेढ़ साल के मोदी सरकार के शासन के दौरान ही ऐसे सवाल उठाए जाने लगे कि लगा मानो आज़ादी के बाद से ही मोदी देश के प्रधानमंत्री हों। जिन मसलों को बेवजह तूल दिया गया, उनमें से एक असहिष्णुता यानी असहनशीलता का भी है।
देश में असहनशीलता बढ़ने का आरोप लगाकर अभी तक लगभग पांच सौ जीवित व्यक्तियों में से चालीस के आसपास कथित विद्वानों ने सम्मान लौटाए हैं। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश की संसद सवा अरब लोगों की नुमाइंदगी करती है यानी पूरे देश की नुमाइंदगी करती है। लोकतंत्र में लोक ही सबसे अहम होता है, सबसे ऊपर होता है। लोक यानी आम आदमी संसद चलाने के लिए अपने वोट के ज़रिए लोकसभा चुनता है। ऊपरी सदन यानी राज्यसभा के चुनाव का तरीक़ा थोड़ा अलग है, लेकिन वह भी एक तरह से आम आदमी के वोट से चुने गए जन-प्रतिनिधियों द्वारा ही चुनी जाती है, तो कहा जा सकता है कि इसमें भी आम आदमी की भावना का प्रतिबिंब होता है। अब पाठकगण ही तय कीजिए कि देश में चालीस लोगों की बेबुनियाद और मौक़ापरस्त आवाज़ पर हंगामा होना चाहिए या फिर देश की सवा अरब जनता की आवाज़ सुनी जाए, मैं तो साफ़-साफ़ मानता हूं कि संसद में देश की जनता की आवाज़ ही गूंजनी चाहिए। चंद लोगों की स्वार्थी सोच का शोर संसद में उठने का मतलब है कि हम लोकतंत्र की मूल भावना की अनदेखी कर रहे हैं।
जिन चालीस लोगों ने देश में असहनशीलता बढ़ने का आरोप सार्वजनिक तौर पर लगाया है, उनमें कई बेहद पॉपुलर अभिनेता भी हैं। एक तो वही आमिर ख़ान हैं, जिन्होंने स्वच्छता अभियान की शुरुआत करने वाले मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ शिकरत की। पूरी तन्मयता के साथ गीत गाया और नारे लगाए। कितनी अजीब बात है कि जो अभिनेता देश के लोगों के सिर-आंखों पर हो, वह ऐसी बात कहे! हमारे देश का चरित्र सहनशीलता का ही है, यह बात आमिर अच्छी तरह से महसूस करते होंगे, लेकिन पता नहीं क्या मजबूरी है कि उन्हें ऐसा बयान देना पड़ता है? मुंबई में रह रहे आमिर ख़ान को 26/11 का हमला असहिष्णुता नहीं लगा, 1984 का सिख विरोधी दंगा उन्हें अहसनशीलता नहीं लगा। जम्मू-कश्मीर में रोज़ाना हो रहे आतंकी हमले उन्हें असहिष्णुता नहीं लगते, तो क्या कहूं, आमिर और असहनशीलता की बात कहने वाले सभी सम्मानित विद्वानों को देश के आम लोगों ने भरपूर सम्मान दिया, फिर ये लोग ऐसे बयान देकर देश में डर और दहशत का माहौल क्यों बना रहे हैं ? आमिर तो यहां तक कह गए कि उनकी पत्नी को अब इतना डर लगा कि वे देश छोड़ने तक की बात कहने लगी. सवाल यह है कि क्या आमिर को देश की आज़ादी का इतिहास पता नहीं है? पूरी दुनिया जानती है कि अंग्रेज़ों ने किस क़दर ज़ुल्म ढाए। जब इंतेहा हो गई, तो देश के लोगों ने धर्म और जाति की भावना से ऊपर उठकर अंग्रेज़ों से लोहा लिया। देश छोड़कर जाने की नहीं सोची। असहिष्णुता का आरोप लगाने वाले ख़ुद के आहत होने की बात कह रहे हैं।
लेकिन क्या उन्हें नहीं लगता कि उनके बयान देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत कर रहे हैं?
केंद्र की मोदी सरकार को अभी बहुत से ऐसे काम करने हैं, जो आज़ादी के बाद अभी तक कभी के हो जाने चाहिए थे, लेकिन नहीं हो पाए। पिछली सरकारों ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया। एनडीए सरकार अपना रोडमैप तैयार भी कर चुकी है, लेकिन बेवजह की बहसबाज़ी और हंगामे की वजह से संसद में विधायी कामकाज को तरज़ीह ही नहीं दी जा रही। पिछले मॉनसून सत्र में क़रीब-क़रीब कामकाज होने ही नहीं दिया गया। कोई अहम बिल मॉनसून सत्र में गंभीरता से नहीं लिया गया।
कथित असहिष्णुता पर बहस के लिए कांग्रेस ने नोटिस शीतकालीन सत्र से पहले ही दे दिया था। सरकार भी मान गई। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि छह अक्टूबर से लेकर अब तक पिछले क़रीब-क़रीब दो महीने से जब मीडिया में सभी पार्टियों के प्रवक्ता चीख-चीख कर इस मुद्दे पर बहस कर चुके हैं। देश के जिन ज्यादातर लोगों को इस बहस में कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके कान भी टीवी और अख़बारों की बहसें सुन-सुन कर पक चुके हैं, तो अब संसद में इस पर बहस की क्या ज़रूरत थी? प्रधानमंत्री ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने निवास पर चाय पर बुलाकर अच्छे सकारात्मक माहौल के संकेत दे ही दिए थे, फिर देश को एक ऐसी नकारात्मक बहस सुनने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है, जिससे पूरी दुनिया में देश के चरित्र को लेकर गलत संदेश ही जाएगा?
सभी जानते हैं कि पिछले मॉनसून सत्र का ज्यादातर वक़्त हंगामे की भेंट चढ़ा। अब शीतकालीन सत्र में तो कम से कम देश के विकास के रोडमैप पर काम होने दीजिए! संसद में हंगामे और असहिष्णुता जैसे मुद्दों पर बेनतीजा, बेसबब कुल मिलाकर कहें, तो अनुत्पादक बहसों की वजह से देश के आम टैक्स पेयर की जेब को कितना चूना लगता है, यह भी गंभीरता से सोचने की बात है। तथ्य यह है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही का ख़र्च ढाई लाख रुपए आता है। यानी एक घंटे तक संसद चलती है, तो सरकार की जेब से डेढ़ करोड़ रुपए निकल जाते हैं।
सरकार की जेब आम आदमी पर लगाए जाने वाले टैक्स से भी भरती है। मोटे तौर पर मानें तो संसद में एक दिन में छह घंटे कार्यवाही हो, तो नौ करोड़ रुपए इस पर ख़र्च होते हैं। यानी काम हो या नहीं हो, संसद सत्र के दौरान नौ करोड़ रुपए प्रतिदिन ख़र्च होते ही हैं। क्या यह छोटी बर्बादी है? क्या लोकतांत्रिक देश की लोकतांत्रिक पार्टियों को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए?
संसद में कई महत्वपूर्ण बिल पारित होने हैं। ये ऐसे बिल हैं, जिनसे देश में विकास की नई राह बनेगी। पहले से विकास का जो रास्ता बना हुआ है, वह और मज़बूत होगा। उस पर चलने वालों को ज़्यादा सहूलियत होगी। इस वक़्त लोकसभा में आठ अहम बिल और राज्यसभा में 11 प्रमुख बिल लंबित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बिल है वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी बिल, जिसमे कांग्रेस तीन शर्ते लगा रही है, जब 2011 में उनकी सरकार बिल लेकर आई थी, तब उसमें नहीं थी. दूसरा बिल है, लैंड बिल। लैंड बिल संसद की संयुक्त समिति के पास है। चेक बाउंस से जुड़ा – द नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (अमंडमेंट) बिल- और द कमर्शियल डिवीज़न एंड कमर्शियल अपीलेट डिवीज़न बिल- भी शामिल हैं। एक और बिल है-आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन( अमंडमेंट) बिल। इस बिल का मक़सद बीच-बचाव के ज़रिए विवाद जल्दी निपटाना है। दूसरे अहम पेंडिंग बिलों में व्हिसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन (अमंडमेंट) बिल- भी है। इसके अलावा बेनामी लेनदेन, उपभोक्ता संरक्षण के साथ-साथ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सेवाओं से जुड़े बिल भी हैं। एक और महत्वपूर्ण बिल एमएसएमई सेक्टर के विकास के लिए है। अगर ये बिल पास होते हैं, तो आम आदमी से लेकर छोटे-मंझोले कारोबारियों तक को सहूलियतें मिलने लगेंगी, लेकिन इसके लिए सकारात्मक सोच की सख़्त ज़रूरत है।
विपक्ष को यह समझने की ज़रूरत है कि विकास के काम में रोड़े भी न अटकाए जाएं और किन्हीं मुद्दों पर विरोध है, तो वह भी अभिव्यक्त किया जाए। ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि संसद जिस काम के लिए है, वही काम नहीं होने दिया जाए। काम भी हो और बहस भी हो, तभी लोकतन्त्र की मूल भावना बरकरार रहेगी, अन्यथा हम भीड़तंत्र होकर रह जाएंगे।
करोड़पति बाबा देश के प्राचीन मंदिरों का भी उद्धार करें
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
आपने कभी सोचा है कि जिन-जिन शहरों में हमारे प्राचीन मंदिर हैं I जिनके प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा है I वहीं-वहीं पर करोड़ों.अरबों की लागत से विभिन्न संस्थाएं अपने बड़े-बड़े भव्य मंदिर इस्कॉनए अक्षरधामए साई टेंपल इत्यादि बना रहे हैं, पर जिन प्राचीन मंदिरों के कारण ये धार्मिक स्थान जाने जाते हैं I उनके ऊपर और उनके आस-पास के क्षेत्र में कोई एक पैसा भी लगाने को तैयार नहीं है। यानी कि ये भगवान के नाम को ब्रांड की तरह इस्तेमाल कर रहे हैंए जिससे खिंचे हुए लोग इन क्षेत्रों में पहुँच जाएए तो उनके बने हुए मंदिरों को भी देखेंगे और तारीफ़ करेंगे।
कुछ समय पहले जब मैं वृंदावन गया था I तो मैने देखा कि एक पतली सी गली के अंदर हमारे बाँके बिहरी का मंदिर था। मुझे लगता था कि बहुत बड़े क्षेत्र में यह वृंदावन का बाँके बिहरी का मंदिर होगा, कोई कुंज होगा और चारों तरफ हरियाली ही हरियाली होगीए क्योंकि हरे रामा हरे कृष्णा के पोस्टरों हैं, उनमें तो ऐसा ही दिखाया जाता है, पर वहां जाकर मैं बहुत मायूस हुआ। मैंने देखा कि मंदिर छोटा था I किन्तु वहां पर भगवान का जो स्वरूप था वह बड़ा ही मनमोहक था। पर मैं मायूस हुआ, जब देखा कि अंदर खचाखच भीड़ए बाहर सड़कों पर गन्दगीए टूटी हुई सड़केंए चारों तरफ ऊंची-ऊंची प्राइवेट बिल्डिंगों से वह घिरा हुआ था और वहां विकास नाम की चीज़ नहीं थी।
मुझे लोगों ने कहा कि पास में इस्कॉन टेंपल भी है I उसे देखने आप ज़रूर जाएं। मैं जब इस्कॉन टेंपल पहुंचाए तक उसके भवनए ऊंची अट्टालिकाएं I साज-सज्जा I स्वच्छता को देख कर दंग रह गया। इस्कॉन की बहुत सारी संस्थाएं बन चुकी हैं और हरे रामा-हरे कृष्णा के नारे के साथ इन्होंने दुनिया भर में बहुत सारे मंदिर खड़े किए हैं I पर वृंदावन में मेरे बांके बिहारी कृष्ण के मंदिर को क्या ऐसा भव्य नहीं कर सकते या उसके चारों तरफ की ज़मीन का विकास नहीं कर सकते थे ? आख़िरकार उनके मंदिर इस्कॉन टेंपल के नाम से ही जाने जाते हैं, राधा-कृष्ण, श्री राम और हनुमान जैसे देवी.देवताओं के नाम से नहीं जाने जाते। बिलकुल वैसे ही जैसे बिरला जी ने जो मंदिर बनवाएए वे बिरला मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
देश भर में बड़े शहरों में इस्कॉन टेंपल हैं। सीधी सी बात है कि अगर कोई वृंदावन में कृष्ण मंदिर बनवाएगा I तो उसे वहां श्रद्धालुओं की भीड़ तो अपने आप ही मिल जाएगी। क्योंकि वृंदावन का नाम भगवान कृष्ण से जुड़ा हुआ है। मंदिर भव्य होगाए तो बहुत से लोग दर्शनों के लिए उमड़ेंगे ही और फिर इन संस्थाओं का विस्तार स्वयं होता रहेगा। हो सकता है कि इस्कॉन संस्था बहुत से लोगों के रोज़गार का ज़रिया हो और समाज की भलाई के लिए भी काम करती होए लेकिन अगर संस्था के कर्ताधर्ताओं को भगवान कृष्ण में इतनी ही आस्था है I तो वृंदावन के बहुत से कृष्ण मंदिरों के जीर्णोद्धार का बीड़ा उन्होंने क्यों नहीं उठाते ? पैसे की कोई कमी तो है नहीं। अगर इस्कॉन वाले ऐसा काम करें I तो वृंदावन चमक सकता है। वहां एक विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर बन सकता है।
वहां आने वालों लिए भी कई तरह की सार्वजनिक सुविधाओं का इंतज़ाम किया जा सकता है। तब जाकर सही माइनों में कृष्ण भक्ति की बात समझ आती है।
इस्कॉन तो केवल एक ही नाम है। ऐसी बहुत सी संस्थाएं हैं। ज़रा सोचिए कि अगर सभी संस्थाएं मिलकर समाज के हित में काम करने लगेंए तो देश का कायाकल्प होने में कितनी मदद मिलेगी। ये ठीक है कि कुछ संस्थाएं जरूर काम करती होगी। इस्कॉन के एक प्रचारक मुझे मिले थे I मैंने उनसे इसी तरह का वाद-विवाद किया था। उनकी दिनचर्या भी बड़ी कठिन रहती हैं। यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई I पर मेरी इस बात का वह सीधा जवाब नहीं दे पाए।
राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई में मेहंदीपुर बालाजी मंदिर में मैं विकास का काम करना चाहता हूं। वहां छोटी-बड़ी सौ से ऊपर धर्मशालाएं बन गईं। इन भक्तों ने धर्मशालाओं पर तो लाखों-करोड़ों रुपए लगा दिए I पर इलाक़े की सड़केंए सीवर I बिजलीए पानी पर कोई एक रुपया भी ख़र्च करने को तैयार नहीं है। ज़ाहिर तौर पर जब वहां व्यवस्था नहीं होगीए तो धर्मशालाओं में भी कौन आएगा और एक बार आ गयाए तो दोबारा नहीं आएगा। वैष्णो देवी जैसे धार्मिक स्थान पर तो फाइव स्टार होटल तक बन गए हैंए पर आप आज भी देख सकते हैं कि भक्तों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है I उस पर कोई काम करने के लिए तैयार नहीं है।
आजकल प्रवचन करने वाले बाबाओं की भी अच्छी ख़ासी संख्या है। दिलचस्प बात यह है कि आज के मानसिक तनाव के दौर में जब आम आदमी के पास वक़्त की बेहद कमी हैए तब बहुत से बाबा देश भर में जगह-जगह पर कई-कई दिनों तक अच्छी ख़ासी भीड़ जुटा पा रहे हैं। वहां प्रवचन के अलावा भी आस्था से जुड़ी सारी चीज़ों का जमकर कारोबार होता है। लेकिन राम कथाए गीता और दूसरे भगवानों से जुड़े धार्मिक प्रवचनों के दौरान मंच की साज-सज्जा में भगवानों की भव्य तस्वीरों को कितनी जगह मिलती है यह देखने की बात है। राम-कृष्ण के नाम पर लोग जुटाए जाते हैं और फिर बाबा अपनी ही जय-जयकार करते हैं और सफल भी होते हैं I क्योंकि आज आम आदमी के दिल में श्रद्धा और आस्था तो हैए लेकिन उसके पास इतनी समझ नहीं है कि वह बाबाओं की गहराई को जान पाए।
मुझे जब मौका मिलता है, मैं हर धर्म के गुरुओं से मिलता हूं। वाद-विवाद करता हूं। मेरा मानना है कि उनमें कुछ तो ऐसी क्षमता है I जिससे खिंचकर लाखों लोग चले आते हैं। कोई तो बात है। कभी मैं ओशो की निंदा करता था I लेकिन जब उन्हें पढ़ाए तो आज मैं उनका फ़ैन हूं। उनकी तर्क शक्ति ग़ज़ब की थी। लेकिन दिक्कत क्या वे अपने जैसा किसी और को बना पाए ? यही बात सारे बाबाओं पर लागू होती है। मैं निरंकारी बाबा से मिला और बड़ा प्रभावित भी हुआ। मैंने उनसे कहा कि वे ऐसा नगर बसाएं I जिसमें रहकर लोग उनकी शिक्षाओं पर अमल करते हुए समाज की भलाई के काम करें। ताकि वह नगर उनकी शिक्षाओं से समाज सुधार का जीता-जागता उदाहरण बन सके। मैं इसी तरह की अपील सभी धर्मों के असरदार गुरुओं से करता रहता हूं।
हमारा देश बहुत बड़ा है। यहां के धर्म गुरुओं ने विदेश में अपने भव्य-दिव्य मंदिर बनवा रखे हैं। अच्छी बात है कि इस तरह भारतीयता का प्रचार विदेश में हो रहा है। लेकिन देश की भलाई के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। बाबाओं पर अकूत दौलत है। सवाल यह है कि सारे बाबा एक साथ मिलकर क्यों नहीं बैठते और समाज की भलाई के लिए व्यापक योजनाएं क्यों नहीं बनाते ? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान में सारे बाबा लोग क्यों नहीं जुट जाते। लगता है कि धार्मिक बिरादरी का हाल भी नेताओं की तरह हो गया है। जिस तरह सियासत में आज एक पार्टी का नेताए दूसरी पार्टी के नेता को पल भर भी नहीं सुहाताए उसी तरह का बर्ताव धर्म गुरुओं में भी होने लगा है। धार्मिक बिरादरी सियासी नेताओं के साथ कॉम्पिटीशन करती लगती है।
अब तो बाबा लोग बड़े-बड़े व्यापार व उद्योग भी चला रहे हैं। बाबा रामदेव की पतंजलि तो आयुर्वेद के साथ-साथ नुडल्स तक पहुँच गई। श्री रविषंकर के साथ भी पहले ही आयुर्वेद का बड़ा व्यापार चलता है। अब वे प्रतिदिन उपभोक्ता के काम में आने वाली चीजें भी बाजार में ला रहे हैं। सतगुरू जग्गी वासदेव द्वारा प्रायोजित कम्पनी भी बहुत से क्षेत्रों में काम कर रही है।
गुरमीत राम रहीम सिंह तो फिल्में भी बना रहे हैं और हीरो भी बन गए।
प्रश्न यह है कि क्या इनकी ये षक्ति देष के विकास के लिए गरीब आदमियों के लिए योजना चलाने में लगती तो क्या ज्यादा बेहतर होता या फिर इन उत्पादों से कमाई कर उन्हें गरीब की योजनाओं में लगाने से।
कई बार लोग मुझसे कहते हैं कि बाबाओं पर उन्हें विश्वास नहीं है। मैं कहता हूं कि प्रवचन में बाबा सही शिक्षा ही देते हैं। हमीं हैं जो उन पर अमल नहीं करते। अब पर्दे के पीछे कौन क्या कर रहा हैए इससे किसी को तब तक क्या लेना-देनाए जब तक कि उसका असर समाज पर न पड़ रहा हो। बाबाओं के कमरों में ख़ुफ़िया कैमरे लगाने की क्या ज़रूरत है ? यह जानना क्यों ज़रूरी है कि वे क्या खा-पी रहे हैं।
प्रवचन सुनिएए आनंद लीजिए, आत्मसात करिए और सही राह पर चलिए। अच्छी चीज़ें ग्रहण कीजिएए बुरी पर ध्यान मत दीजिए।
आख़िर में मैं सभी संपन्न धर्म गुरुओं और उनकी संस्थाओं से अपील करता हूं कि वे देश के जीर्ण-शीर्ण पड़े धार्मिक स्थलों का जीर्णोद्धार कराएं। एक-एक संस्था अगर दस-दस जर्जर मंदिरों को गोद ले लेए तो आसानी से बात बन जाएगी। इससे न केवल धर्म का काम होगाए बल्कि समाज का भी भला होगा।
दिवाली अब एक तनाव भरा त्योहार
विजय गोयल
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
दिवाली का त्योहार मुझे बचपन से बहुत पसन्द रहा है, क्योंकि इस दिन हम नए कपड़े पहनते, शाम को पूजन होता और दिवाली से कई दिन पहले पूरे घर की सफाई होती थी। शायद ही कोई ऐसा त्योहार हो, जो स्वच्छता का इतना बड़ा संदेश लेकर मनाया जाता हो। दिवाली पर घर का कोना-कोना साफ किया जाता, सफेदी कराई जाती और दिवाली तक घर को पूरी तरह से सजा दिया जाता। अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वच्छता अभियान की बात करते हैं तो उसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि हम दिवाली का संदेश भूल गए।
भारत में हम देखें तो हर त्योहार कोई न कोई संदेश लिए हुए है।। हर त्योहार जहां एक ओर अपने पीछे एक कहानी लिए हुए है, वहीं दूसरी ओर कोई न कोई सामाजिक संदेश लिए हुए होता है। हमारे पूर्वजों ने समाज में अच्छे काम करने के लिए उसके साथ कोई न कोई पर्व जोड़ दिया है। जब लोग पूरे साल नहीं मिलते, तब वे दिवाली पर जरूर मिल लेते हैं और उनमें पूरे साल न मिलने की झाक भी टूट जाती है। मैं विशवास के साथ कह सकता हूं कि यदि रक्षाबन्धन का त्योहार नहीं होता तो कई भाई अपनी बहन से सालों-साल नहीं मिलते, पर इस त्योहार के कारण रो-पीटकर भाई अपनी बहन तक साल में एक बार तो पहुंच ही जाता है।
हमारे इन त्योहारों की वास्तविकता और चमक-दमक को आधुनिक जीवन ने हम से छीन लिया है, ये महज रीति-रिवाज और गले की फांस बनते जा रहे हैं। लोग ये भूल गए कि एसएमएस, फेसबुक और ईमेल से आप अपने फर्ज की इतिश्री तो कर सकते हैं पर सम्बन्धों में प्रगाढ़ता और मधुरता नहीं बनाए रख सकते। वैसे ही जैसे एसएमएस और सोषल मीडिया के माध्यम से बिना पब्लिक के बीच गए, आप वोट नहीं ले सकते।
दिवाली का त्योहार आधे से ज्यादा तो गिफ्ट के आदान-प्रदान का त्योहार रह गया है। इस त्योहार से कुछ दिन पहले तक ऐसा लगता है कि लोग अपने अच्छे-भले परिवारों को छोड़ घरों से सड़कों पर ट्रैफिक जाम में उतर आए हैं। मैं जिसके घर गिफ्ट देने जा रहा हूं, वह मुझे घर पर नहीं मिलता और जो मेरे घर गिफ्ट लेकर आ रहा है मैं उसे नहीं मिल पाता और अब उपहार भी रिष्तेदारों व नजदीकियों को नहीं, बल्कि व्यापार से जुड़ गए हैं। लोग उनको उपहार दे रहे हैं, जिनसे उन्हें काम है या भविष्य में काम पड़नेवाला है। उपहार लिए-दिए ही नहीं जा रहे हैं, बल्कि उनका वजन भी तोला जा रहा है कि जो हमारे घर उपहार छोड़कर गया, वह कितना महंगा है और किसी ने छोटा उपहार दे दिया तो मानो गाली दे दी हो। धीरे-धीरे ये सब चीजें दिवाली में तनाव लेकर आती जा रही हैं। कौन मिलने आया और कौन हमसे मिलने नहीं आया। उसका हिसाब रखना शुरू हो जाता है।
पहले बच्चे मां-बाप के साथ बाजार में जाया करते थे और मनपसन्द दीये, लक्ष्मी-गणेश, हटड़ी, सजाने का सामान खरीदते थे और खुद घर में खड़े होकर पूरा परिवार फूल-हार से घर को सजाता था, उसका आनन्द ही कुछ और था। धीरे-धीरे यही चीजें नौकरों के हाथ से मंगाई जाने लगी और अब तो आॅनलाईन ये सारे काम हो रहे हैं। चीज तो आ जाती है, पर वो आनन्द कहां ।
दिवाली मिठाई का त्योहार है, लोग दिवाली पर एक-दूसरे को मिठाई देते हैं, फिर ड्राई-फ्रूट का चलन हुआ ओर अब ड्राई-फ्रूट के साथ-साथ कोल्ड ड्रिंक से लेकर सोने-चांदी के सिक्के दिए जाने लगे हैं। मुझे कई बार आष्चर्य होता है कि मिठाई खाता तो कोई नही पर बिकती व बंटती पूरी है, तो आखिरकार ये जाती कहां है, तो किसी ने कहा कि अन्त में ये मिठाई नीचे की श्रेणी के लोगों में जाती है। अमीर लोग तो अब डायबटिज और अन्य बीमारियों के कारण मिठाई खाते ही नहीं हैं।
इन सब बातों के कहने का तात्पर्य यह है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो हमारे ये त्योहार धीरे-धीरे फीके पड़ने शुरू हो जाएंगे। होली में रंग मत लगाओ, ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दिवाली में पटाखे मत जलाओ, इससे प्रदूशण होता है।
मुझे लगता है कि इस माहौल के पीछे बड़ी वजह है कि बदलते वक्त के साथ त्योहारों का स्वरूप का नहीं बदलना। आदमी आम जिन्दगी में भी बदलाव चाहता है। रोज-रोज आप वही खाना नहीं खा सकते, वही कपड़े नहीं पहन सकते। तो फिर त्योहारों के मामले में हम रूढि़यों को क्यों नहीं तोड़ रहे हैं। हमारा समाज तेजी से आधुनिकता की ओर दौड़ लगा रहा है, तब क्यों हमें अपने त्योहार मनाने के तौर-तरीके बदलने नहीं चाहिए ? जिसे हमारी नई पीढ़ी सुविधा से कर ले और संस्कार भी न छोड़े। पूजा-पाठ कराने की जिम्मेदारी समाज के बड़े लोगों और धर्म गुरूओं की है। वे लोग नइ पद्धतियां यानी सिस्टम ईजाद करने के बारे में नहीं सोच रहे हैं।
रावण का वध कर जब रामचन्द्र भगवान अयोध्या लौटे तो प्रकाष और आतिषबाजी कर उनका स्वागत करने की परम्परा है। तब क्या पटाखे होते थे, तब ढोल-नगाड़े पटाखे का काम करते होंगे। अब स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है कि पटाखे नहीं जलाने चाहिए क्योंकि इससे हवा जहरीली हो रही है। बात किसी हद तक सही भी है। पटाखे चलाने का मकसद उत्सव मनाना ही है। तो फिर हम पटाखों के विकल्प के तौर पर उत्सव मनाने के लिए सांस्कृति आयोजन क्यों नहीं कर रहे हैं ? इस तरह उत्सव मनाकर हम गांव-देहात की प्रतिभाओं को बढ़ावा भी दे सकते हैं। यह एक विकल्प है, तो दूसरे बहुत से विकल्प भी तलाशे जा सकते हैं। आखिरकार तो पटाखे और आतिशबाजी जलाने का मतलब उत्सव मनाना है, अपनी ख़ुशी को जाहिर करना है। पटाखों के प्रदूशण की तो हम बात करते हैं, पर कोई यह पूछे कि वाहनों व फैक्टरियों के प्रदूशण पर हम कितना संजीदा हैं।
एक मजेदार बात यह है कि अब लोगों से पटाखे भी नही चलते, इसलिए वे एक-एक पटाखा न जलाकर एक पूरी लड़ी में आग लगाते हैं और इसी तरह से एक-एक आतिशबाजी न जलाकर 140 आतिशबाजी का डिब्बा लेते है। जो खुद ब खुद चलती रहती है। इससे से अच्छा तो यह है कि क्यों न सरकार ही दिवाली पर आतिशबाजी का बड़ा कार्यक्रम करे, जिसको देखने सब लोग आएं। ऐसा कई देषों में नए वर्श पर होता भी है। हमारे देष के लिए नए वर्श से ज्यादा दिवाली महत्वपूर्ण है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे सभी त्योहारों की एक पुस्तक छपनी चाहिए, उसका वैज्ञानिक और धार्मिक महत्व समझाया जाना चाहिए और इन त्योहारों पर जो बहुत ज्यादा रस्म-रिवाज है, उसे छोटा करना चाहिए ताकि आज के आधुनिक समय के अन्दर जब नई पीढ़ी के पास समय नही है, वे इसके पौराणिक महत्व के साथ सही पूजा-पाठ भी कर सकें और अपने बच्चों में संस्कार भी दे सकें।
नई पीढ़ी को भी पूजा में ज्यादा देर तक बैठना पसन्द नहीं है, लिहाजा पंडित जी से कोई नहीं कहता कि कथा को संस्कृत के साथ हिन्दी या जो भाशा परिवार जानता है, उसमे भी समझाएं। अन्यथा नई पीढ़ी को यह समझ में ही नहीं आता कि पूजा के पीछे मूल मकसद आखिर है क्या ? वह तो बस इतना समझती है कि दीपावली है तो चमक-दमक करो, मिठाई खाओ और पटाखे चलाओ। अगर कोई माता-पिता बच्चों को त्योहारों का महत्व बताने के लिए किताबों का सहारा लेना चाहे, तो भी कोई फायदा नहीं। कई किताबों में इतनी क्लिश्ट भाशा का इस्तेमाल होता है कि कुछ समझ पाना माता-पिता तक को भी मुष्किल होगा।
दिवाली के पूजन पर भी हम जो पूजन पंडित जी से करवाते हैं या हम स्वयं लक्ष्मी चालीसा, गणेश चालीसा का पाठ करते हैं, पहले हो सकता है कि हमें उसका अर्थ मालूम हो, पर हम अपनी नए पीढ़ी के बच्चों को उसका अर्थ नहीं समझाते । मुझे मालूम नहीं कि इस विधि-विधान की सीडी मार्किट में है भी या नहीं, जो उसकी विधि भी बता दे और उसका अर्थ भी। ऐसी सीडी होनी चाहिए ताकि हम केवल पंडितों पर निर्भर न रहें, जिन्हें दस जजमानों के यहां जाना होता है और वे जल्दी-जल्दी संस्कृत में मन ही मन उच्चारण कर पूजा निपटा देते हैं।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दीपावली का त्योहार संस्कृति से बहुत दूर हो गया है। यह त्योहार अब केवल बाजार के हवाले होकर रह गया है। आखिर में मैं दीपावली से जुड़ी एक और बुराई का जिक्र करना चाहता हूं, वह है जुआ। दीपावली पर बहुत-से घरों में जुआ खेलने की परम्परा इसका सांस्कृतिक स्वरूप पूरी तरह खो चुकी है। देश भर में त्योहार के नाम पर बड़े पैमाने पर जुआ क्यों खेला जाता है यह मेरी समझ से परे है। जो षौक के तौर पर जुआ खेलें भी उसे कृपया दिवाली के साथ न जोड़े।
अंत में मैं यही कहूंगा कि पहले हम लोग घर में घी-तेल के दीये जलाते थे। वातावरण शुद्ध रहता था। अब बिजली की लडि़यां आ गई है। दीये तैयार करने और बातियों को जलाकर मुंडेरों पर रखने में जो आनंद था, वह भी खत्म हो गया है। रोषनी तो हो रही है, लेकिन हम मानसिक रूप से दीपावली से दूर हो गए है। एक परम्परा है, जिसे निभा रहे हैं। मैं चाहता हूं कि यह सूरत बदले। नई पीढ़ी पूरी उमंग के साथ त्योहार का मतलब समझकर उसे मनाए। अगर हम माता-पिता यह ठान लें, तो ऐसा जरूर हो सकता है। नहीं तो दिवाली का यह त्योहार तनावपूर्ण ही बनकर रह जाएगा, जिसमें लोग अपने परिवार से दूर गिफ्ट बांटते हुए, ट्रैफिक जाम में फंसे हुए मनाएंगे।
हमारी भी तो है जवाबदेही!
विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
कांग्रेस के शासन में लोग भ्रष्टाचार और महंगाई से इतने त्रस्त और ग्रस्त थे कि कहते थे कि ये मनमोहन सिंह की सरकार चली जाए, चाहे कोई भी आ जाए । इस पर जब लोगों को एक बेहद ईमानदार और विकास पुरुष के रूप में नरेन्द्र मोदी मिले तो सोने पर सुहागा हो गया ।
यह विश्वास हम में से किसी को भी नहीं था, शायद स्वयं नरेन्द्र मोदी को भी नहीं कि कितना बहुमत आएगा । इसलिए उन्होंने अपना पांच साल का विजन जनता के सामने रख दिया, ताकि उसको देखकर जनता उनको प्रचंड बहुमत दे और हुआ भी यही, किन्तु लोगों ने उस विजन को पांच साल का न मानकर एक साल का मान लिया कि वे सारे काम एक साल में हो जाने चाहिए, इसलिए लोगों की बेचैनी बढ़ गई और बहुतों ने ऐसे ही आलोचना करना शुरू कर दिया जैसा क्रिकेट के मैदान में सचिन तेंदुलकर जब खेल रहे होते हैं तो दर्शक उसे समझाते हैं कि गेंद को कैसे खेलना है । हम यह भूल जाते हैं कि जैसे सरकार चुनने में हम मदद करते हैं, वैसे ही हमें सरकार चलाने में भी मदद करनी है।
हम सभी सोचते हैं कि सरकार हमारे लिए सब कुछ कर दे और हमें कुछ नहीं करना पड़े, तो यह ग़लत है। अगर सरकार की जवाबदेही हमारे लिए है, तो हमारी जवाबदेही भी ख़ुद के लिए और देश के लिए है। जब हम केवल अपनी सूहलियतों के बारे में ही सोचते हैं, तब चिंता होना लाज़िमी है। आज अच्छा या बुरा, जैसा भी हो, मोरल रिएक्शन दिखाई नहीं देता। बहुत सीधा उदाहरण है कि हम ख़ुद पर तो नैतिक मूल्य लागू करने का ज़िम्मा नहीं डालते, लेकिन दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वे अपनी ज़िम्मेदारियां ईमानदारी से निभाएं। दूसरों को नसीहत देना और ख़ुद अच्छा आचरण अमल में नहीं लाना आज हमारा चरित्र हो गया है।
बारिश के मौसम में थोड़ी देर अच्छी बारिश हो जाए, तो दिल्ली से लेकर मुंबई, दक्षिण और पूर्व के सुदूर इलाक़ों तक में गली-गली गले-गले पानी भरने की तस्वीरें आम हैं। देश के न्यूज़ चैनल कई-कई दिन तक सड़कों पर पानी भर जाने की तस्वीरें दिखाते रहते हैं। टीवी चैनल, अख़बार और लोग चीख-चीख कर सरकारों, ज़िला प्रशासनों, नगर निकायों को कोसने लगते हैं। लेकिन कोई क्या यह सोचता है कि अपने घर के बाहर पानी की निकासी के लिए छोड़ी गई नाली पर उसने रैंप बनवा रखा है, इससे भी समस्या पैदा होती है। ऐसे में अगर नगर निकाय या कोई दूसरी व्यवस्था अपना काम कर भी दे, तो कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। रिहायशी इलाक़ों में पानी जमा होगा ही। अगर कोई अतिक्रमण हटाओ दस्ता हमारी कॉलोनी में रैंप तोड़ने आ जाए, तो फिर तो हमारे नागरिकीय अधिकारों की गरिमा इतनी ओजस्वी हो जाती है कि हम पथराव करने लगते हैं।
बिजली की कमी के विरोध में हम हिंसक हो जाएंगे, लेकिन आस-पास हो रही बिजली की चोरी की शिकायत दर्ज कराना हमें अपनी ज़िम्मेदारी नहीं लगती। किसी भ्रष्ट कर्मचारी को कुछ रिश्वत थमाकर हम तय लोड से ज़्यादा बिजली ख़र्च करेंगे, लेकिन जब बिजली कटौती होगी, तो बिजलीघर में आग लगा आएंगे।
बिजली कर्मचारियों को बंधक बना लेंगे। दरअस्ल, आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। वैचारिक स्तर पर इसके लिए पहले मज़बूत ढांचा तैयार करने पर ध्यान नहीं दिया गया।
होना तो यह चाहिए था कि उस वक़्त के गर्म माहौल को मनमाफ़िक आकार में ढालने का काम किया जाता। लेकिन जर्जर राजनीतिक सोच ने उस गर्म माहौल पर ढेर सारा ठंडा पानी डाल दिया। अब ऐसा सोच-समझकर किया गया, ऐसा तो नहीं लगता। हां, यह ज़रूर साबित होता है कि उस वक़्त की सियासी समझ ही कमज़ोर थी। आज़ादी की लड़ाई तो देश के नागरिकों के अदम्य सहयोग से जीत ली गई, लेकिन स्वतंत्र देश का नेतृत्व आज़ाद हुई ज़मीन पर विकास और समाज निर्माण का कोई दूरदर्शी ख़ाका नहीं खींच पाया।
आज अजीब हालत है। लोकतंत्र के नाम पर वह सब कुछ धड़ल्ले से हो रहा है, जो बिल्कुल नहीं होना चाहिए। देश के नागरिक वोट बैंक में बदल गए हैं। देश को चलाने वाली संसद की तस्वीरें देखकर चिंता होने लगी है। लोगों के ज़ेहन में नागरिकबोध ख़त्म सा हो गया है। सोच नकारात्मक होती जा रही है। वह आलोचना तो करता रहता है, लेकिन भागीदारी की कोई भावना उसमें नहीं होती।
अजीब हाल है। सरकार अगर बेहतरी के लिए किसी सरकारी व्यवस्था के निजीकरण की बात करती है, तो तत्काल बड़े पैमाने पर विरोध शुरू कर दिया जाता है। सरकारी अधिकारी, कर्मचारी अगर सही तरीक़े से काम कर रहे होते, तो निजीकरण की नौबत ही क्यों आती? यह सही है कि सरकारी विभागों का मूल मक़सद केवल मुनाफ़ा कमाना नहीं है। उनका काम मुनाफ़े के साथ-साथ समाज निर्माण का भी है। लेकिन ऐसा सात दशक में अभी तक क्यों नहीं हुआ? इस निठल्लेपन की वजह राष्ट्रीय सोच का विकास न होना ही है। तो फिर निजीकरण से डर कैसा?
उदाहरण के लिए रेलवे और किसी प्रदेश के रोडवेज़ सिस्टम को ले सकते हैं। आप रेलवे में नौकरी करते हैं, तो आपको वेतन समेत सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, लेकिन जो काम आपको करना है, यूनियनों की धौंस जमाकर वह नहीं करेंगे। यात्री जाएं भाड़ में। उदाहरण के तौर पर सरकारी और निजी बैंकों को भी ले सकते हैं।
दूसरा, पहलू यह है कि देश के आम नागरिक की अवधारणाएं भी बदल गई हैं। घाटा कम करने के लिए अगर रेलवे दस रुपए किराए में बढ़ा दे, तो इतना हल्ला होता है कि संसद क्या, सड़कें तक ठहर जाती हैं। लेकिन वही यात्री, जिसे लगता है दस रुपए बढ़ाकर सरकार ने उसकी जेब काट ली है, जब स्टेशन के बाहर निकलता है, तो ऑटो रिक्शा वालों की मनमानी का विरोध नहीं करता। पचास रुपए की बजाए, दो सौ रुपए भी चुपचाप दे देता है। ग़ौर से सोचा जाए, तो ऑटो रिक्शा वाला भी तो देश का नागरिक है, लेकिन उसमें भी राष्ट्रीय चेतना नहीं है।
वह अपने साथी नागरिक की मजबूरी का फ़ायदा उठाने से नहीं चूकता। विदेशी सैलानियों के मामले में हम अक्सर देखते हैं कि चाहे वाहन वाले हों या गाइड या फिर होटल वाले, सभी देश का बदनाम चेहरा विदेश भेजते हैं। लेकिन सभी ऐसे हों, यह भी सही नहीं है। दिक्क़त यह है कि सही लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है।
भारत में इस वक़्त 35 साल से कम उम्र वाले 60 फ़ीसदी से ज़्यादा हैं। हम युवा देश हैं। लेकिन क्या युवाओं में राष्ट्रीयता की भावना है? नौजवान बुरी तरह नकारात्मक विचारों से घिरे हैं। पुराने ज़माने में विश्व बिरादरी पर हमारे देश का दबदबा रहा है, तो फिर से ऐसा ज़रूर हो सकता है। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार करना होगा। मैं मानता हूं कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस तरफ़ गंभीरता से काम कर रही है, जिसके नतीजे एक-दो साल में दिखने लगेंगे।
भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? चौंकाने वाला आंकड़ा है कि पिछले बीस साल में क़रीब तीन लाख किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं। ये छोटे और मंझोले किसान हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि इन किसानों की रीढ़ एक-दो प्रतिकूल मौसमों में ही क्यों टूट जाती है कि नौबत ख़ुदकुशी की आ जाती है? जवाब बहुत सीधा सा है कि आज़ादी के बाद देश पर शासन करने वाली सरकारों ने छोटे-मंझोले किसानों को उभरने नहीं दिया।
वर्ष 1951 में पहली जनगणना में पता चला कि देश की आधी आबादी खेती पर निर्भर है। उसके बाद 2011 में जनगणना का आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। साठ साल बाद देश में किसानों की संख्या घटकर क़रीब आधी से भी कम रह गई। आज देश में खेती करने वाले और खेतों में मजदूरी करने वालों की संख्या महज़ 26 करोड़ है। इनमें से ख़ुद की ज़मीनों पर खेती करने वाले किसानों की संख्या तो 12 करोड़ ही है। सवाल यह है कि किसानों की संख्या में इतनी कमी क्यों आ गई?
ज़ाहिर है कि खेती मुनाफ़े का सौदा नहीं रहा, इसलिए बहुत से लोगों ने खेती छोड़ दी? सवाल यह है खेती फ़ायदे का सौदा क्यों नहीं रहा? क्योंकि आज़ादी के बाद से अभी तक की सरकारों ने किसानों के विकास के लिए सही नीतियां नहीं बनाईं।
अब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार जो क़दम उठा रही है, उनके नतीजे आने में कुछ वक़्त लगेगा और तभी उनकी विवेचना और मीमांसा भी की जा सकती है।
आज़ादी के बाद से ज़्यादातर वक़्त तक देश पर शासन करने वालों और उनका साथ देने वालों ने किसानों की नहीं, बिचौलियों की ही मदद की। यही वजह है कि किसान और बदहाल होते गए और भ्रष्टाचार की खुली छूट पाकर बिचौलिये और धनवान, साधनवान होते गए। इस वजह से उस बहुत बड़े तबक़े में राष्ट्रवादी सोच विकसित ही नहीं हुई, जिसने आज़ादी की लड़ाई में बाक़ायदा बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। लेकिन ऐसा नहीं है कि ये हालात बदल नहीं सकते। मैं युवाओं और किसानों पर ध्यान देने की वकालत इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि ये दो तबके राष्ट्रवादी सोच वाले हो जाएं, तो देश को मज़बूत और समृद्ध राष्ट्र बनाने का काम बहुत आसान हो सकता है। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि खाली पेट किसी को सदाचरण की बातें नहीं सिखाई जा सकती हैं। मेरा मानना है कि केंद्र सरकार तो ज़िम्मेदारी निभाने में लगी है। अभी क़रीब डेढ़ साल ही हुए हैं।
नतीजे आने में थोड़ा वक़्त और लगेगा। लेकिन हम सभी लोग ज़रा सोचें कि हम अपनी ज़िम्मेदारी कितनी निभा रहे हैं।
Vision for Delhi
My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.
My vision for Delhi is that it should be a city of opportunities where people
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People Says
Vijay Goel is a national leader with wider vision and worked on the ground in Delhi.
Shantanu Gupta
No cricket with Pak until terrorism stops, says sports minister Vijay Goel Finally! Kudos for a much needed call!
Amrita Bhinder
Simply will appreciate Vijay Goel’s working style, witnessed his personal attention to west Delhi – Paschim Vihar ppl even at late hours.
Neerja
One must appreciate how Vijay Goel is working so hard and looking out for all sports. One can feel the change. Best wishes!