Vijay Goel

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रावण का पुतला दहन-महज़ एक रस्म

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
मैं रामलीलाओं से बहुत प्रभावित हूँ, वो ही कहानी, वो ही मंचन फिर भी हर वर्ष बार-बार देखने से मन नहीं भरता। दशहरे के दिन हर साल रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। जब से मैंने होश संभाला है, तब से यह देखता आ रहा हूं। बचपन में घर से छोटी-सी दरी लेकर रामलीला देखने जाते थे। अगर ज़मीन पर बिछी लाल-नीली वाली दरी पर जगह नहीं मिलती, तो अपनी दरी ज़िंदाबाद। उन दिनों की तस्वीर आज भी ज़ेहन में कौंधती रहती है। कितना जोश हममें रामलीला देखने को लेकर होता था।
 
सच्चाई की जीत का त्यौहार हम पूरे दिल से देखते, मूंगफलियां खाते, देर रात घर आते और अगले दिन दोस्तों से बतियाते। हमें बचपन में सिखाया गया था कि रावण बुराई का प्रतीक है, इसलिए उसका पुतला जलाया जाता है। राम अच्छाई के प्रतीक हैं, इसलिए वे रावण को जलाते हैं। संदेश यह था कि बुराई कितनी भी ताक़तवर हो, आख़िर में हारती ही है। लेकिन इस साल दशहरे पर सोशल मीडिया पर छाया एक मैसेज़ पढ़कर मैं सोच में पड़ गया। मैसेज़ कुछ इस तरह था:
“मैंने महसूस किया है,
उस जलते हुए रावण का दुःख
जो सामने खड़ी भीड़ से
बार-बार पूछ रहा था,
तुम में से कोई राम है क्या ?”
 
बात बिल्कुल सटीक है। हम बुराई को तो ख़त्म करने की परंपरा निभाते आ रहे हैं, लेकिन असल जिंदगी में हममें से कितने राम के थोड़े-बहुत भी संस्कार चाहते हैं। हममें से कितने लोग अपने बच्चों को सच्चाई वाले संस्कार दे रहे हैं ? जब मैं पिछली ज़िंदगी में झांकता हूं, तो देखता हूं कि बहुत सारी चीज़ें बिल्कुल बदल गई हैं। न केवल उनका रूप-रंग बदल गया है, बल्कि उनके मायने और संदेश भी बदल गए हैं। अभी रामलीलाओं का दौर ख़त्म हुआ है। मुझे भी कई रामलीलाओं में जाने का मौक़ा मिला और मैंने देखा कि उनका स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। बचपन और जवानी की दहलीज़ पर आने के बहुत दिन बाद तक मुझे रावण केवल बुराई का ही प्रतीक लगता था, लेकिन अब देखता हूं कि हम लोग ख़ुद ही इतने बुरे हो गए हैं कि घिनौने से घिनौना अपराध करते हुए हमारे हाथ नहीं कांपते। रोज़ाना लड़कियों और छोटी-छोटी बच्चियों को बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा है। समाज में रिश्वत का बोलबाला है। ऐसे में साफ़ लगता है कि हर साल दशहरे पर रावण को जलाना अब महज़ ऐसी परंपरा भर रह गया है, जिससे कोई संदेश, कोई संस्कार अब हम लोग लेते नहीं हैं।
 
मेरे बचपन में रामलीलाएं कितनी सादगी से होती थीं, लेकिन अब एक-एक रामलीला पर लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च किए जा रहे हैं। रामलीला कमेटियों में ख़र्च बढ़ाने को लेकर कॉम्पिटीशन होने लगे हैं। दिक्कत यह है कि यह सारा ख़र्च महज़ भव्यता बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। न कि रामलीला का संदेश नई पीढ़ी तक पहुंचाने के मक़सद से। वही लीला है, वही संस्कृत है, तो फिर आज के बच्चे रामलीला के संदेश कैसे ग्रहण करेंगे ? जीवन मूल्यों के ख़त्म होते जाने के इस दौर में क्या रामलीलाएं नई पीढ़ियों को संस्कार देने का ज़रिया नहीं बन सकतीं ?
 
लेकिन नई पीढ़ी की चिंता किसी रामलीला कमेटी को नहीं है। वे तो केवल ये जतन करने में लगी रहती हैं कि बड़े-बडे नेता, अभिनेता, धन्ना सेठ उनके यहां आएं।
 
मैं अक्सर रामलीलाओं में जाता हूं, तो बच्चों को एक कहानी सुनाता हूं। कहानी आपने भी सुनी होगी कि एक स्कूल में शिक्षा अधिकारी मुआयने पर आए, तो उन्होंने बच्चों से सवाल किया कि शिव जी का धनुष किसने तोड़ा, सवाल सुनकर बच्चों में सन्नाटा पसर गया। आगे की लाइन में बैठा एक बच्चा सिर खुजला कर बोला कि सर सच-सच कह रहा हूं, मैंने नहीं तोड़ा। दूसरा बच्चा बोल पड़ा कि सर मैं तो कल स्कूल आया ही नहीं था, पता नहीं धनुष किसने तोड़ा ? तीसरा बोला कि सर मैं तो वॉशरूम गया था, मुझे नहीं पता किसने तोड़ दिया धनुष ?  अफ़सर ने टीचर से पूछा कि मास्टर साहेब बच्चे कैसे जवाब दे रहे हैं, तो मास्टर बोले कि साहब आप ख़ांमख़ां परेशान हो रहे हैं। शरारती बच्चे हैं, किसी ने तोड़ दिया होगा ।
 
पहले तो यह एक चुटकुला लगता था, लेकिन अब लगता है कि यह हक़ीक़त है। सवाल यह है कि आज की रामलीला देखकर क्या बच्चों को समझ में आ रहा है कि उन्हें क्या सिखाने की कोशिश की जा रही है ? पिछले कुछ वर्षों में बगैर परीक्षा दिए बच्चों को पास करने की प्रणाली के कारण बच्चों ने सीखना छोड़ दिया इसलिए अब शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने का अभियान चलाया जा रहा है।
 
अगर सीधे बच्चों से बातचीत कर यह समझने की कोशिश करेंगे, तो आप यक़ीनन चौंक जाएंगे। मैं कई जगहों पर रामलीलाओं के मंच पर बच्चों को बुलाकर सवाल करता हूं कि राम के चारों भाइयों के नाम बताओ… बताओ कि रावण के भाइयों के नाम क्या हैं ? सूर्पनखा कौन थी ? बच्चे उल्टे-सीधे जवाब देते हैं और रामलीला का आयोजन करने वाले और देखने आए दिल्ली वासी हंसते हैं, ठहाके लगाते हैं। बच्चों को अब ठीक से हिंदी आती नहीं । संस्कृत के श्लोकों वाली रामलीला कितनी समझते होंगे पता नहीं ।
 
बच्चों के भोले-भाले जवाबों पर हंसी आना लाज़िमी है, लेकिन यह गंभीर मसला है, माता-पिता को इसे समझना होगा और बच्चों को समझाना होगा कि रामलीला के असली माइने क्या हैं। केवल दशहरे के मौक़े पर ही नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में घर पर उन्हें बताना होगा कि रामलीला का संदेश क्या है ? उन्हें बताना होगा कि रामलीला अच्छाई पर बुराई की जीत का संदेश क्यों देती है ? उन्हें बताना होगा कि रामलीला हमें दैनिक सामाजिक व्यवहार में सिखाती है कि बच्चों को माता-पिता के आदेश मानने चाहिए, जैसे राम ने माना और 14 साल तक जंगल में रहने चले गए। आज कोई अपने बच्चों को वनवास नहीं दे रहा, लेकिन संदेश तो यही है कि माता-पिता की बात माननी चाहिए। रामलीला के ज़रिए बच्चों को यह सिखाना होगा कि पति का धर्म क्या होता है… पत्नी का धर्म क्या होता है.. भाई और मित्र का क्या धर्म है। पर यह माता-पिता तो तब सिखायेंगे जब खुद पालन कर रहे होंगे । अपने बूढ़े माता-पिता की जब वो देखभाल नहीं कर रहे तो अपने बच्चों से श्रवण कुमार या राम बनने की आशा कैसे करेंगे ।
 
मैं नरेन्द्र कोहली जी की राम कथा पर आधारित पुस्तक “अभ्युदय” से बहुत प्रभावित हुआ। अक्सर रामलीलाओं में दर्शकों से अनुरोध करता हूँ कि वे पुस्तक जरुर पढ़ें, क्योंकि उसका आधार वैज्ञानिक हैं । आज किसी से पूछो अहिल्या बाई पत्थर से जीवित कैसे हो गई। बड़े-बड़े जवाब देंगें की राम जी ने पत्थर को छुआ तो अहिल्या बाई जीवित हो गई । जबकि तथ्य यह है की समाज के बहिष्कार के कारण वो बेचारी पाषण तुल्य हो गई । राम जी ने उसकी दुःख भरी गाथा जान उसे अपनाया तो समाज ने भी अपना लिया ।
 
कोई भी आश्चर्य करेगा की राम ने बाली को छुपकर क्यों मारा, पर कोहली इसके भी  तर्क देते हैं। विश्वामित्र मुनि का राम लक्ष्मण बालकों को ताड़का वध के लिए ले जाना केवल ताड़का का वध करवाना न होकर, बालकों को दशरथ के राज्य के वनों के  हालात दिखाना था कि  कैसे उन पर राक्षसों का कब्ज़ा होता जा रहा है और कैसे वे आम नागरिक एवं ऋषि-मुनियों को परेशान करते हैं, ताकि जब राम राजा बनें तो उन्हें वस्तुस्थिति का पता रहे।
 
आज के कॉरपोरेट कल्चर में बच्चे हनुमान के चरित्र से काफ़ी कुछ सीख सकते हैं। हनुमान सफलतम संगठक थे। उन्होंने अपने मालिक के हित साधने के लिए सब कुछ किया। वे वक़्त के पाबंद थे। चतुर थे। तुरंत फ़ैसले करते थे। हर तरह के हालात से निपटने में माहिर थे। लेकिन आज यह सब कुछ नहीं सिखाया जा रहा है। आजकल तो केवल चमक-दमक पर ज़ोर है। आज की रामलीलाएं भव्य हैं। लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च कर तकनीक का जमकर इस्तेमाल कर रही हैं। पहले शहरों में एक प्रमुख लीला हुआ करती थी, लेकिन अब एक की दो, दो की तीन होते-होते हर मुहल्ले की अपनी रामलीला होने लगी है, क्योंकि रामलीला कमेटी में अपने-अपने अहम् को लेकर झगड़े होते हैं और फिर एक की दो रामलीला हो जाती है, परिणाम ये होता है कि दर्शक भी बंट जाते हैं ।
 
जब रामलीला वाले ही एकता का संदेश देने में नाकाम हो गए हों, तो वे समाज को क्या संदेश देंगे, सोचने वाली बात है। अब तो रावण के साथ सेल्फ़ी लेने का ज़माना है। बाज़ार में रावण के दस सिरों के मुखौटे बिक रहे हैं। लोग उन्हें अपने बच्चों की जिद पर ख़रीद रहे हैं यानी अब रावण के दस सिर लोगों के ड्रॉइंग रूम का हिस्सा होने लगे हैं, तब मुझे बड़ी चिंता होती है।
 
सोचने वाली बात यह है कि अब मौजूदा दौर में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने से क्या होगा ? अब रामलीला संदेश और संस्कार नहीं, बल्कि मनोरंजन के लिए होने लगी है। आज़ादी के बाद भारतीय समाज राम के आदर्शों पर चलने का प्रयत्न करने लगा था, तब तो रामलीला का मतलब था। अब हम साठ साल से ज़्यादा समय तक भटके हुए नेतृत्व की वजह से चलते-चलते जहां पहुंच गए हैं, वहां अपनी भलाई के लिए हमें तुरंत सोचना शुरू करना पड़ेगा। दशहरे जैसे त्यौहार का स्वरूप बदलना पड़ेगा। समय के साथ बदलाव ही सामाजिक विकास की सीढ़ी तैयार करते हैं। मुझे बड़ा अच्छा लगता है कि कुछ जगहों पर दशहरे के दिन आज के दौर की बुराइयों के पुतले फूंके गए। कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़, भ्रष्टाचार के खिलाफ पुतले जलाए गए। ऐसे ही हम दूसरी बुराइयों को भी ले सकते हैं। हर साल गांव, गली-मुहल्ले और शहरों के स्तर पर हम तीन बुराइयों की थीम पर पुतले बनाएं, उन्हें समारोह पूर्वक जलाएं, तो इस पर्व में नया जोश आ सकता है। नई पीढ़ी के लिए नया दशहरा सार्थक होगा।

पुरस्कार लौटने की राजनीति क्यों

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)
 
पिछले दिनों एक लेखक ने दादरी घटना के बाद साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया, मैं कुछ समझ नहीं पाया कि इसका दादरी घटना से क्या सम्बन्ध है । धीरे-धीरे कुछ और साहित्यकारों ने भी लौटाया । ये खुद लौटा रहे हैं या एक-दूसरे को तैयार करते हैं ताकि मोदी सरकार के खिलाफ एक माहौल बने, क्योंकि दादरी में तो दो मरे, जिसकी जांच चल रही है, पर इससे पहले 1984 के दंगों में, भागलपुर के दंगों में, भोपाल गैस काण्ड में, मुजफ्फरनगर (यूपी) के दंगों में आपातकाल लगने पर, मुरादाबाद के दंगों में ये लोग चुप बैठे थे और अब सरकार बदलने पर ही यकायक इनकी आत्मा जाग गई, यह देखकर मुझे आश्चर्य और दुःख दोनों था ।
 
एक साहित्यकार ही ने मुझे कहा कि ये लोग एक सरकार के शासन में अवार्ड ले लेते हैं और फिर उसी की वफादारी निभाने के लिए दूसरी सरकार जब आती है, तब ये उन्ही अवार्डों को वापस करने का दिखावा करते हैं । मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ। मुझे मौका मिला तो मैं इन लौटाने वालों से चर्चा करना चाहूँगा ।
 
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की भेड़चाल चल रही है। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार दलील दे रहे हैं कि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है यानी सहनशीलता कम होती जा रही है, लिहाज़ा वे इस तरफ़ ध्यान देने के लिए ऐसा  कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसा कुछ नहीं है, बल्कि केंद्र में एनडीए सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिशों की वजह से सामाजिक समरसता और सौहार्द में इज़ाफ़ा ही हुआ है। जो साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर अख़बारों और टीवी न्यूज़ में सुर्ख़ियां बटोर रहे हैं, उल्टे वे ही यह बात साबित कर रहे हैं कि उनमें असहिष्णुता बढ़ रही है। वे साबित कर रहे हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सुशासन सुहा नहीं रहा है। वे साबित कर रहे हैं कि वे एनडीए विरोधी सियासी
पार्टियों के प्रवक्ता हैं। या फिर नई परिस्थितियों में जो सुविधाएँ इनको पिछली सरकार में मिल रही थीं, उनके छिनने की आशंकाओं से आशंकित हैं। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों का कहना है कि तर्कवादी प्रो. एम एम कलबुर्गी और दादरी में गोमांस को लेकर कथित हत्याकांड की अनदेखी नहीं की जा सकती।
 
मेरा मानना है कि कोई भी पुरस्कार लौटाना सिरे से ग़लत है। फिर अगर आप दो हत्याओं के विरोध में ऐसा करते हैं, तो कर्नाटक में धारवाड़ निवासी कन्नड़ लेखक प्रो. कलबुर्गी की हत्या 30 अगस्त को की गई थी। विरोध करना था, तो तभी पुरस्कार लौटा दिए होते। साफ़ है कि आप सोच-समझ कर सियासत कर रहे हैं। अगर दादरी कांड के बाद आपकी आत्मा ढंग से जाग गई, तो हत्याकांड के बाद आपको उसी दादरी में बना सद्भावपूर्ण माहौल क्यों नज़र नहीं आया ? आपको यह क्यों नहीं नज़र आया कि वहां के हिंदू समाज ने पीड़ित परिवार की पूरी मदद की। न केवल पीड़ित परिवार, बल्कि दूसरे मुस्लिम परिवारों को भी पूरी सुरक्षा का भरोसा दिलाया। सरकार विरोधी लोगों ने वहां पहल कर उसे साम्प्रदायिकता का रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी फिर कानून व्यवस्था तो राज्य सरकार का काम है। अभी यह साबित होना बाक़ी है कि गोवध का आरोप लगाकर किसने हत्या की साज़िश रची। आप लेखक हैं, पुलिस और सीबीआई जैसी जांच एजेंसी नहीं हैं। अपराधियों की धरपकड़ चल रही है। गांव के हिंदुओं के बर्ताव ने साबित कर दिया है कि वह महज़ कुछ सिरफिरों का काम था, न कि गांव के एक समाज की साझा साज़िश।
 
सवाल पुरस्कार लौटाने की टाइमिंग को लेकर भी है। प्रो. कलबुर्गी की हत्या या दादरी में की गई हत्या से पहले क्या कभी इस तरह की वारदात नहीं हुईं ? पुरस्कार लौटाने का सिलसिला देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल ने शुरू किया। उन्हें वर्ष 1986 में अंग्रेज़ी साहित्य के लिए अकादमी सम्मान दिया गया था। नयनतारा का आरोप है कि सरकार, देश की सांस्कृतिक विविधता की हिफ़ाज़त नहीं कर पाई है। अगर उनका यह बयान सियासी नहीं है और वे वाक़ई ऐसा मानती हैं, तब तो उन्हें यह अकादमी पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिए था। जिस साल उन्हें पुरस्कार मिला, उससे दो साल पहले यानी 1984 के सिख विरोधी दंगे वे क्यों भूल गईं ? नयनतारा जी अगर संवेदनशील हैं, तो क्या सिखों के क़त्ल-ए-आम को वे जायज़ मानती हैं?  उन्हें इस पर चुप्पी तोड़नी चाहिए। समाज की असहिष्णुता 1984 के दंगों या भागलपुर दंगों या और भी इस तरह की वारदात के वक़्त या उनके बाद पुरस्कार वापस करने वालों को क्यों नज़र नहीं आई ?
 
अभी तक केवल कुछ साहित्यकारों ने ही साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की असंवेदनशील पहल की है। हर साल 24 भाषाओं में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाते हैं। अनुवाद के लिए भी अवॉर्ड मिलता है। अकादमी की स्थापना 1954 में की गई थी। ऐसे में ज़ाहिर है कि पुरस्कृत साहित्यकारों की संख्या एक हज़ार से ज्यादा है। तो क्या पुरस्कार नहीं लौटाने वाले बाक़ी साहित्यकार संवेदनशील नहीं हैं?  पुरस्कार लौटाने वाले लेखक क्या अपनी बिरादरी को ही ग़लत संदेश नहीं दे रहे हैं?
 
कुछ का मानना है कि पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार कोई राजनीति कर रहे हैं, जिसका उल्टा असर अकादमी पर पड़ेगा। साहित्य अकादमी स्वायत्त संस्था है। चंद नकारात्मक सोच वाले साहित्यकार अगर ग़लत माहौल बनाएंगे, तो सरकार के लिए तो यह अपने लोगों को अकादमी में दाख़िल कराने का अच्छा मौक़ा होगा। इस तरह के विवाद खड़े कर आप अंग्रेज़ी समेत 24 भारतीय भाषाओं के साहित्य का भला नहीं कर रहे हैं। सियासत नेताओं का काम है, उन्हें ही करने दीजिए। समाज को विषाक्त बनाने की इस तरह की कोशिशों का मैं पुरज़ोर विरोध करता हूं।
 
समाज में अगर असहिष्णुता बढ़ रही है, तो आप साहित्य की रचना कर लोगों को जागरूक बनाने का काम करिए। नकारात्मक सोच वाली सियासी पार्टियों की तरह समाज को बांटने और देश के सहिष्णु सामाजिक ताने-बाने के साथ खिलवाड़ का काम मत कीजिए।
 
दूसरी बात यह है कि पुरस्कार तो आपने लौटा दिया, वह प्रतिष्ठा कैसे वापस करेंगे, जो पुरस्कार दिए जाने के बाद आपको हासिल हुई थी ? वह आर्थिक लाभ कैसे वापस करेंगे, जो पुरस्कार की वजह से आपको मिला था ?  साहित्य अकादमी अवॉर्ड की समाज में प्रतिष्ठा है। पुरस्कार आपको पहचान दिलाते हैं, उनका निरादर कैसे किया जा सकता है ?  क्या पुरस्कार के बाद बनी अपनी पहचान भी आप वापस कर सकते हैं ? ऐसा नहीं कर सकते, बल्कि कहना चाहिए कि ऐसा हो ही नहीं सकता, तो फिर ख़ांमख़ां पुरस्कार को मज़ाक मत बनाइए। अगर आपको सियासत करनी है या किन्हीं सियासी पार्टियों का समर्थन करना है, तो उनमें शामिल क्यों नहीं हो जाते ?
 
किसी भी लिहाज़ से साहित्य अकादमी का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।
यह ग़लत है। साहित्य के लिए भी और समाज के लिए भी। ऐसा करना तब तो बहुत ही ग़लत है, जब आप देश को पूरी तरह समर्पित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर बेबुनियाद आरोप लगाकर पुरस्कार लौटा रहे हों। पिछले साल मई में सरकार बनी थी यानी अभी कुल जमा क़रीब डेढ़ साल भी नहीं हुआ है। देश के सभी संवेदनशील लोग जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री सबका साथ-सबका विकास की भावना से 24 घंटे काम करते हैं। देश के विकास और ग़रीबों के लिए उन्होंने जो योजनाएं लागू की हैं, उनके नतीजे अब आने शुरू होंगे। सबने देखा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने किस तरह इस डेढ़ साल में दुनिया भर में भारत की छवि को चमकाया है। अगर अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन और जर्मनी जैसे दुनिया के ताक़तवर देश उन्हें चमत्कारी नेता मान रहे हैं, तो क्या वे देश और उनके नागरिक हमारे देश के किसी वजह से इन भटके हुए लेखकों से कम बुद्धिमान हैं? माफ़ कीजिएगा, ऐसा नहीं है। देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी है। आप विरोध कीजिए, इनकार कीजिए, लेकिन पुरस्कार लौटाने की राजनीति ठीक नहीं। पुरस्कार लौटाना है, तो फिर लेना क्यों ? ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार से आप पुरस्कार लेने को आप अपना गौरव समझें, अपनी पीठ थपथपाएं और जब दूसरी सरकार आए, तो उसी पुरस्कार को विरोध का हथियार बनाकर लौटा दें।
 
साहित्य अकादमी सरकार के नियंत्रण में नहीं है। वह देश में साहित्य के विकास के लिए बनाई गई है। अकादमी देश के नागरिकों की धरोहर है। उसका गलत इस्तेमाल करना,  देश के नागरिकों की भावनाओं का अपमान करना है।  
 
पुरस्कारों का अगर इस तरह तिरस्कार होगा, तो सम्मान देने वाले हज़ार बार सोचेंगे। इसे इस स्तर का मज़ाक मत बनाइए कि अकादमियां अवॉर्ड देना ही बंद कर दें। पुरस्कार लौटाने से क्या होगा? ख़ुद के व्यक्तित्व पर सवालिया निशान मत लगने दीजिए। पुरस्कार लौटाकर अपना सम्मान कम मत कीजिए। पता नहीं कब आपकी आत्मा जाग जाती है और कब सो जाती है? मुझ जैसा सियासी नेता अगर कुछ लेखकों के इस काम से आहत हुआ है, तो ज़रा सोचिए कि लाखों साहित्य प्रेमियों के दिल पर क्या गुज़रती होगी?

बुरी हालत के शिकार दिल्ली के गांव

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

कुछ समय पहले मैं हरियाणा के एक गांव में अपने बाप-दादा की पुरानी हवेली का जीर्णोद्धार कर रहा था और मैंने देखा कि यह हवेली चांदनी चैक की किसी हवेली से कम खूबसूरत नहीं है। हमारी हवेली के ठीक सामने उसी गांव में रहने वाला एक जाट परिवार अपनी हवेली को तोड़कर दिल्ली के माॅर्डन मकान की तरह बना रहा था। यही आज दिल्ली के गांवों का हाल हो रहा है। न तो इनकी गिनती शहर में हो पा रही है और न ये पूरी तरह से गांव ही रहे हैं, इसलिए इनको शहरीकृत गांव का नाम दे दिया। 

मैं दिल्ली के बहुत-से गांवों की चैपालों में भी बैठकर आया। मुझे गांवों में निराशा दिखाई दी। एक तो उन्हें दिल्ली की नई ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार से बहुत उम्मीदें थी, दूसरे उनसे कोई झूठे भी पूछने नहीं आ रहा। लोगों का कहना है कि आज नियम कानूनों की आड़ में गांव के लोग नारकीय जीवन बिता रहे हैं और सरकार कानों में रूई डाले बैठी है। गांव के बड़े-बूढ़ों ने कहा कि ‘‘गांव की और समस्याओं से तो हम निपट लेंगे, पर म्हारे नौज़वानों में जो षराब, नषे की लत पड़ गई है, उसमें सरकार म्हारी क्या मदद करेगी।’’ यह एक गांव में नहीं, मुझे बहुत-सारे गांवों में महिलाओं ने घेर-घेरकर इस बात को कहा। सवाल यह है कि दिल्ली सरकार गांवों की ओर ध्यान क्यों नहीं दे रही ?

सच बात तो यह है कि स्वर्गीय साहिब सिंह वर्मा जी के बाद किसी ने गांवों की सुध नहीं ली। गांवों में रहने वाले लाखों लोगों की तरफ आज कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। इन गांवों की भी विचित्र स्थिति है। 314 गांवों में से 135 तो शहरीकृत गांव हो गए हैं, जिनकी तो और भी ज्यादा बुरी हालत है। 

भाजपा दिल्ली का अध्यक्ष रहते हुए, मेरा दिल्ली के लगभग सभी गांवों में घूमना हुआ। बड़ी-बड़ी पब्लिक मीटिंगें की, पंचायतों में बैठा और गांवों की समस्याओं को जानने की कोशिश की तो पाया कि सबसे प्रमुख समस्या गांवों में शिक्षा की है। गांव के बच्चों को अच्छे स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता, क्योंकि वे फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल पाते। जो सरकारी स्कूल हैं, उनमें पढ़ाई नहीं होती। टीचर आते नहीं और आते हैं तो पढ़ाते नहीं। माहौल ऐसा है कि बच्चे भी पढ़ना नहीं चाहते। बच्चों को बीस-बीस किलोमीटर दूर चलकर पढ़ने के लिए जाने पड़ेगा तो कितनी रूचि रहेगी ? सरकार का ध्यान गांव में काॅलेज और यूनिवर्सिटी खोलने की तरफ है ही नहीं ।

दूसरी बड़ी समस्या है, परिवहन में बसों की है। गांवों के लिए बसें ही नहीं हैं। सरकार को कोई चिन्ता नहीं है। रोज अखबारों में हम पढ़ते हैं कि दस हजार बसें आ रही हैं। कहां के लिए आ रही हैं और कहां चलेंगी पता नहीं । गांव वाले कहते हैं, ‘‘जिब स्टैण्ड ही कोंनी, तो बस कित रूकेगी।’’ 

तीसरी समस्या, सड़कों का बुरा हाल है। सड़क में गड्ढा है या गड्ढों में सड़क है, कहा नहीं जा सकता। एक गांव वाले ने बताया कि सड़क पर इतने गड्ढे है कि कोई दोपहिए स्कूटर पर अपनी पत्नी को पीछे बिठाकर जा रहा हो तो दो-दो मिनट में हाथ लगाकर देखना पड़ता है कि ‘‘बैठी है या गिर गई।’’ और यह एक गांव की नहीं सभी गांवों की कहानी है। गांव में खेलने की तो सुविधाएं ही नहीं है। पार्क नाम की चीज नहीं है। काॅमनवेल्थ गेम्स के दौरान यह बात कही जाती थी कि गांवों में भी स्टेडियम बनेंगे, एक भी स्टेडियम नहीं बना और अगर कोई चीज बनती है, तो उसका कितना लाभ है इसका उदाहरण तीस साल पहले मुनीरका गांव में बना स्वीमिंग पुल है, जिसने पता नहीं कितने राश्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी दे दिए। 

गांवों के अन्दर सफाई व्यवस्था का भी बुरा हाल है। जब षहर में ही डस्टबिन नहीं है तो गांवों में कैसे होंगे, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं। गांव वाले कहते हैं कि दस-दस दिन तक गांवों से कूड़ा नहीं उठता। ड्रेनेज सिस्टम है नहीं, जगह-जगह जोहड़ बन गए हैं। गांवों का गन्दा पानी बाहर ही नहीं निकल पाता। कुल मिलाकर गांवों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। निर्माण की हालत ऐसी है कि बिना रिष्वत कोई निर्माण हो ही नहीं सकता। 

गांव वालों की मुख्य समस्या जमीनों से ज्यादा जुड़ी हुई है। दिल्ली के गांवों को सर्किल रेट के दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है, जो आजादी से लेकर आज तक कभी नहीं था। अभी दिल्ली सरकार ने गांवों में दो तरह के सर्किल रेट रख दिए। एक, साढ़े तीन करोड़ रूपए प्रति एकड़ और दूसरा डेढ़ करोड़ रूपए प्रति एकड़। 

मजे की बात देखिए, बिजवासन और पनवाला कलां गांव और छत्तरपुर वेस्टएंड ग्रीन में जहां 15 करोड़ एकड़ से ज्यादा का रेट है, वहां पर सर्किल रेट डेढ़ करोड़ प्रति एकड़ है और जहां जमीनों का मार्किट रेट कम है, वहां साढ़े तीन करोड़ प्रति एकड़ है। दिल्ली सरकार को जमीन का मार्किट रेट सर्किल रेट के हिसाब से रखना चाहिए, या फिर गांवों में एक ही सर्किल रेट हो, दो तरह का नहीं। 

गांवों के लोगों की पुरानी मांग है कि गांवों की चकबन्दी की जाए। लाल डोरे को बढ़ाए जाने की जरूरत है, क्योंकि पुराने लाल डोरों में जैसे-जैसे परिवार बढ़ते गए, वैसे-वैसे रहने के लिए जगह कम होती गई। चकबन्दी होने से, गांवों के लोगों को रहने के लिए पर्याप्त जगह मिलेगी। परिवार अब पुराने घरों के अन्दर पूरी तरह से सिमट गए हैं  चकबन्दी नहीं हुई, इसलिए लोगों ने मजबूरन मकान बना लिए, अब सरकार को चाहिए कि उनको कम से कम नियमित तो कर दे। 
दिल्ली की नई सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह धारा 81 को समाप्त करेगी।  तीन साल तक किसी कारण से किसान अगर अपनी जमीन पर खेती नहीं कर पाता, मान लो सूखा पड़ जाए या कोई और कारण हो, तो क्या यह ठीक है कि उस गरीब किसान की जमीन को जबरदस्ती ग्राम सभा में वैस्ट कर दिया जाए ? 

धारा 33 को भी खत्म करने की मांग गांव वाले लगातार करते रहे हैं। यदि एक किसान के पास 8 एकड़ जमीन है तो सरकार कहती है कि या तो पूरी बेच, नहीं तो टुकड़ों में नहीं बेच सकता। अब यदि किसी के ऊपर कोई संकट आ जाए, जैसे शादी-ब्याह हो, या हारी-बीमारी में पैसे की जरूरत पड़ जाए तो क्या गांव वाला अपनी जमीन का एक भाग नहीं बेच सकता ? यह मेरी समझ से परे है। 

बहुत साल पहले जो भूमिहीन किसान थे, उनको बीस सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत खेती करने के लिए जमीन दी गई थी, जिनकी संख्या हजारों में है। उस समय उनसे वायदा किया गया था कि हम आपको मालिकाना हक देंगे। किन्तु बार-बार वायदे करने के बावजूद भी आज तक इन लोगों को मालिकाना हक नहीं दिया गया है।  74/4 के अन्तर्गत यह मालिकाना हक दिया जाना चाहिए था। 

अभी भारी वर्शा के कारण किसानों की फसलें बर्बाद हो गई थीं, उन्हें आज तक दिल्ली सरकार ने मुआवजा नहीं दिया। 20,000 रूपए एकड़ और 50,000 रूपए हेक्टेयर का मुआवजा पहले तो बहुतों को दिया ही नहीं गया और जिनको दिया गया, वह बहुत कम दिया गया।

दिल्ली सरकार का ग्रामीण डवलपमेंट बोर्ड गांवों के लिए जो पैसा देता था, वह पैसा भी नहीं आया, इसलिए गांवों में काम भी नहीं हो रहे। 

जरूरत आज इस बात की है कि गांव में रहने वाले लोगों के लिए विशेष योजनाएं और विशेष पैकेज बनें। नियमों में भी स्पश्टता होनी चाहिए। गांव एवं किसान विरोधी धाराओं को हटा देना चाहिए। हाउस टैक्स को ही ले लीजिए, दिल्ली नगर निगम में आज तक ये ही स्पश्ट नहीं कि गांवों के मकानों पर हाउस टैक्स लगेगा या नहीं लगेगा और अगर लग रहा है तो वसूल हो रहा है या नहीं हो रहा ? 

दिल्ली में राजनीति करने वाले लोगों को एक बार गांव वालों से रूबरू होकर उनकी समस्याओं को जानने की जरूरत है। दूसरी तरफ पंजाब की तरह यह न हो कि दिल्ली का नौजवान विशेष रूप से गांव का नौजवान जो बड़ी संख्या में बेरोजगार भी है, कहीं अपराध, जुआ, षराब, नषे की तरफ न मुड़ जाए। ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की जरूरत है जो दिल्ली के गांवों में काम करें। दिल्ली केवल एनडीएमसी या नगर निगम की पॉश कालोनियों का नाम नहीं है, दिल्ली की आत्मा गांवों में बसती है। दिल्ली के लोगों को चाहिए कि एक बार अपने बच्चों को गांवों का भ्रमण जरूर करा लाएं, ताकि वे इस देष की संस्कृति और सभ्यता को नजदीक से समझ सकें। 
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बातें नहीं, चांदनी चैक के लिए कुछ करने की जरूरत

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य है)

पिछले दिनों दिल्ली के चांदनी चैक की चुन्नामल हवेली में बड़े प्रमुख, बुद्धिजीवी लोग जो पर्यटन, विरासत, संरक्षण से जुड़े हैं, इकट्ठे हुए। मुझे नहीं मालूम उस मीटिंग में क्या तय हुआ और उसके क्या परिणाम निकलने वाले हैं। हम केवल जुबानी जमा खर्च कर रहे, या इसके परिणाम भी निकल रहे हैं। 

हमारे देश में हैरिटेज पर्यटन एक फैशन हो गया है। बुद्धिजीवियों के लिए हैरिटेज एक स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है। लोग हैरिटेज की बात तो करते हैं, किन्तु उसके लिए कुछ करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे उसकी तारीफ तो करते हैं, किन्तु उसको बचाने के लिए आगे नहीं आते। धीरे-धीरे जब ये सब हवेलियां, स्मारक और पुरातत्व महत्व की चीजें ढह जाएंगी तब तो बात करना भी बन्द हो जाएगा। हम केवल उनको फोटो में ही देख पाएंगे। 

और लोग क्या कर रहे हैं, मुझे पता नहीं, किन्तु मैं पिछले कुछ सालों से एक पुरातत्व महत्व की हवेली को संरक्षित करने में लगा हूं, उसके संरक्षण में मेरे पसीने छूट रहे हैं, क्योंकि कहीं से न तो कोई मदद और न ही कोई जानकारी मिलती है।  और इसके साथ-साथ गलियां बनाने के काम में तो काफी परेशानियां आ रही हैं, क्योंकि विभिन्न विभागों से काम लेना कोई आसान बात नहीं है। सरकार के विभिन्न विभागों दिल्ली सरकार, ए.एस.आई, एम.सी.डी., डी.डी.ए., हैरिटेज कनवर्जन कमेटी में समन्वय नहीं है। 
चांदनी चैक में करीब 525 हवेलियां हैं, जो 20वीं षताब्दी में बनी थी । चांदनी चैक पर हिन्दू, मुगल, ब्रिटिष सभी की संस्कृति का प्रभाव पड़ा है। चांदनी चैक में बहुत-सी ऐसी अच्छी पुरानी हवेलियां हैं जो जर्जर अवस्था में हैं, जिनको मरम्मत की जरूरत है। धर्मशालाओं, हवेलियों में गोदाम खुल गए हैं। हवेलियां टूट-टूट कर मार्किटों की शेप ले रही हैं। 

दो दिन पहले जब मैंने चांदनी चैक में मार्च निकाला, ‘चांदनी चैक बचाओ – पर्यटन बढ़ाओ’ तब मैं देख कर हैरान हो गया कि कई आकर्शक भवनों को माॅर्डन तरीके से ज्वैलरों के शीशे के बड़े-बड़े शोरूम में तब्दील कर दिया गया है, जो एक गहरा धब्बा-सा चांदनी चैक की विरासत के ऊपर दिखाई देता है। अवैध निर्माण होने के बाद भी भ्रश्टाचार के कारण उनको रोका नहीं गया। बात तो बहुत हुई, किन्तु थोक व्यापार वालों को बाहर गोदाम नहीं दिए गए और यहां से थोक व्यापार हटाया नहीं, जिसके कारण यहां के दुकानदार भी दुःखी हैं और यहां आने वाले भी दुःखी हैं। 

चांदनी चैक को लेकर मैं बहुत निराश हूं। सबसे अच्छी व बड़ी जो हवेलियां हैं, वे एक के बाद एक लालची बिल्डरों द्वारा तोड़ी जा रही हैं या यूं कहिए गिनती की हवेलियां बची हैं। दिल्ली सरकार व एमसीडी अपनी हैरिटेज की लिस्ट को लेकर घूम रही है। उसको मालूम नहीं है कि इस हैरिटेज लिस्ट में केवल दस प्रतिशत ही स्मारक और हवेलियां बची हैं बाकी या तो खंडहर हो गई हैं, या जिनका जीर्णोद्धार भी होना संभव नहीं है या फिर वे बदल कर भद्दे ढांचों में बदल गई हैं। आज जरूरत है, बची हुई हवेलियों पर ध्यान देने की।

पुरानी दिल्ली में तो अब केवल दो तरह के लोग रहते हैं। ज्यादातर वे जिनके पास यहां से निकलकर बाहर रहने का कोई आशियाना नहीं है या वे लोग जो वर्शों-वर्श रहते हुए अब चांदनी चैक को छोड़ना नहीं चाहते। आबादी निरन्तर घट रही है और इसका डेमोग्राफिक बैलेंस भी बिगड़ता जा रहा है। मुसलमानों को ये जगह ज्यादा सुरक्षित लगती है। हिन्दुओं को चाव नहीं रहा। आगे आने वाली पीढ़ी की हैरिटेज और हमारी विरासत के अन्दर कितनी रूचि रहेगी, कहा नहीं जा सकता है। 

सवाल यह है कि ये बची-खुची पुरातत्व महत्व की हवेलियां कैसे बचेंगी ? सरकार को चाहिए कि इन हवेलियों के भारी रख-रखाव के लिए इन हवेलियों के मालिकों को अच्छा फंड दें, क्योंकि अब एक हवेली में दस-दस किराएदार रहते हैं। किराएदार कहता है कि हम क्यों पैसा खर्च करें हमारी बिल्डिंग नहीं है और मकान मालिक कहता है मैं क्यों खर्चा करूं मैं तो यहां रहता नहीं हूं। दूसरे, इन हवेलियों को रेस्तरां, खान-पान, मिठाई, बुटिक, गेस्ट हाउस, होटल, ज्वैलरी, गिफ्टस, स्पा, ब्यूटी सेंटर, इसी प्रकार डांस, ड्रामा, म्यूजिक के सांस्कृतिक केन्द्र के लिए खोल देना चाहिए और कानून इतने नरम होने चाहिए कि किसी को इजाजत लेने की भी जरूरत न पड़े, तभी इनका उपयोग व रख-रखाव हो पाएगा। 

हैरिटेज हवेलियों में यह रोक लगनी चाहिए कि उसमें गोदाम, ज्वलनशील  पदार्थ इत्यादि का कोई काम न हो। पिछले दिनों दिल्ली नगर निगम से लड़-लड़ कर पुरातत्व महत्व की बिल्डिंग्स पर किसी प्रकार का कोई सम्पत्ति कर न लगे, इसको बड़ी कोशिश करके मैंने पास करवाया था। 

यह बड़े आशचर्य की बात है कि सरकार इन प्राइवेट हवेलियों एवं स्थानों पर दुनिया भर के कानून तो बना देती है, पर उनको मदद कुछ भी नहीं देती। जब आप इनके लिए कुछ कर या दे नहीं रहे तो कानून बनाने का आपके पास क्या अधिकार है। इन हवेलियों के रख-रखाव के लिए अनुदान के साथ-साथ इसमें जो लोग कुछ गतिविधि करना चाहें, उनको ब्याज रहित लोन भी दिया जाना चाहिए। 

दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम, केन्द्र सरकार इन तीनों में पर्यटन व हैरिटेज संरक्षण के लिए कोई समन्वय नहीं है और ये सब केवल घोषणाएं करते रहते हैं, जैसे जो आता है, कहता है चांदनी चैक में ट्राम चला देंगे, चांदनी चैक में रिक्षों के लिए तो जगह है नहीं ट्राम कैसे चलाएंगे। कोई घंटाघर दोबारा बनाने की बात करता है तो कोई मोनो रेल चलाने की। ये सब लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, उनको चांदनी चैक के बारे में कुछ मालूम नहीं है। मुझे याद है कि लाल किले के बाहर 33 एकड़ का पार्क बनाने के लिए हमें कितने पापड़ बेलने पड़े थे, तब जाकर आज वहां हरियाली नज़र आती है।   

चांदनी चैक एक बहुत बड़ा कूड़ाघर बनाता जा रहा है, जिसमें ट्रक, मोटर, रिक्षा, टैम्पो, बैटरी रिक्षा, आॅटो, ठेला, प्राइवेट वाहन सब चल रहे हैं, पैदल चलने वालों के लिए जगह ही नहीं है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन का तो यह हाल है कि यहां व्यक्ति समय पर पहुंच भी जाए तो स्टेषन के अन्दर जाने तक में ही उसकी ट्रेन छूट जाती है। 

सच मानिए तो किसी ने चांदनी चैक को अब तक एक्सप्लोर ही नहीं किया। अकेले ऐसे खूबसूरत-खूबसूरत पचास से अधिक जैन मंदिर हैं, जिन्हें देखकर लोग दांतो तले अंगुली दबा लें, जो ताजमहल का मुकाबला करते हैं। आठ फुट की गली में आप कल्पना भी नहीं कर सकेंगे कि 3000 गज के अन्दर विशाल जैन मंदिर सोने से मढ़े शिखर खड़े हुए हैं। मंदिर ज्यादा हैं, इनमें आने वाले जैन लोग कम हो गए हैं। अभी तो दिल्ली वालों ने ही चांदनी चैक को पूरा नहीं देखा, बाहर का टूरिस्ट क्या देखेगा ? 

बहुत सारे स्मारक, हवेलियां ऐसे हैं, जिन तक पहुंचना नामुमकिन है। न तो चांदनी चैक में कोई टूरिस्ट आॅफिस है और न कोई साइनेज है और न ही कोई बताने वाला। पुराने षहर के लोग जितनी मदद कर दें उतना ही टूरिस्ट को पता चलता है। रही-सही कसर चांदनी चैक की भीड़भाड़, अलूल-जलूल इमारतें, बेतरतीब बने मकान, अव्यवस्थित सड़कें, गलियां और ट्रैफिक आदमी को बार-बार सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि मैं जाऊं या न जाऊं। छोटे-मोटे रेस्टोरेंट को छोड़ दिया जाए तो कहीं बैठने का स्थान तक नहीं है। जो हवेलियां, धर्मस्थान और जो स्मारक बचे भी हैं, उनकी देख-रेख ऐसे मैनेजर या चैकीदार कर रहे हैं जिनको न तो आर्किटेक्टचर का पता है और न संवारने का। अच्छी इमारतों को लाल-नीले बेकार रंगों से पोता जा रहा है। फव्वारों का शहर टाॅयलेट्स का षहर बनता जा रहा है।
 
दिल्ली का यह शहर ओल्ड सिटी नहीं, गोल्ड सिटी है, पर इसको बिजली की लटकती मोटी-मोटी तारों के गुच्छों ने बर्बाद कर दिया है। गोरे आते हैं तो आष्चर्य करते हैं कि देश की राजधानी की पुरानी दिल्ली में इतना बुरा हाल जिसे हमें ‘वल्र्ड हैरिटेज सिटी’ का नाम देने की बात करते हैं। कभी ट्राम पुरानी दिल्ली की षान थी, अब मेट्रो षान है। मेट्रो के कारण लोगों में चांदनी चैक के लिए आकर्शण और बढ़ा है। 

मुसीबत यह है कि शाहजहानाबाद डवलपमेंट बोर्ड भी केवल नाम का है। इसमें जो लोग हैं, एक-आध को छोड़ उनकी कोई इच्छाशक्ति नहीं है कि इस पुरानी दिल्ली  को ठीक किया जाए। मैं इसके लिए किसी एक को दोशी नहीं मानता, सभी दोशी हैं। इन हवेलियों और स्मारकों के बारे में विस्तृत जानकारी फोटो और वीडियो के साथ इकट्ठी की जानी चाहिए और एक-एक को कैसे संरक्षित किया जाएगा, इस पर योजना बनानी चाहिए। शाहजहानाबाद विकास बोर्ड को शक्तिशाली करके ही कोई योजना बनाई जा सकती है। पर सवाल यह है कि कोई सपने तो देखे और फिर उनको पूरा करने की कोशिश करे।  

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डेंगू या राष्ट्रपति की एक क्लास पर खर्च जरूरी

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य)

हमारी दिल्ली की सरकार ने तो जनता को मूक और बधिर मान लिया है। जिस तरह से चाहें, हांके जा रहे हैं। एक तो आज पब्लिक इतनी परेशान है कि उसके पास आवाज उठाने का समय और दम नहीं है और दूसरा उनको विश्वास नहीं है कि उनके कहने से कुछ होगा। 

इसलिए आपने देखा होगा कि केन्द्र सरकार द्वारा डेंगू महामारी की चेतावनी देने के बावजूद भी दिल्ली सरकार ने समय रहते कोई कदम नहीं उठाया, न एमसीडी को डेंगू से निपटने के लिए बजट का आवंटन किया और न ही केन्द्र सरकार और एमसीडी के साथ समन्वय समिति बनाने की कोशिश की। डेंगू से सावधान रहने और इस बीमारी से निपटने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर मैंने दो दिन पहले तक दिल्ली सरकार का एक भी विज्ञापन नहीं देखा। हां, पर प्याज की खरीद -बिक्री के विवाद पर केन्द्र सरकार और एक चैनल को कोसते हुए हरेक अखबार में दिल्ली सरकार के करोड़ों रूपए के फुल पेज के विज्ञापन जरूर देखे। 

जब 3000 लोग डेंगू की चपेट में आ गए और 23 मर गए, तब सरकार जागी और डेंगू के विज्ञापन दिए, पर विडम्बना देखिए कि राष्ट्रपति की 40 बच्चों की एक कक्षा  पर करोड़ों रूपए होर्डिंग्स, विज्ञापन और रेडियो पर प्रचार के लिए फूंक डाले। 

सैंकड़ों जगह मैंने बोर्ड लगे देखे, अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देखे, जिन पर लिखा था, ‘इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बच्चों को पढ़ाएंगे’ विज्ञापन के नीचे दिल्ली सरकार का नाम लिखा था और लोगों से अपील की गई थी कि कार्यक्रम का प्रसारण टीवी पर जरूर देखें। मैं सोचने को मजबूर हो गया कि इसमें ऐतिहासिक जैसा क्या है, जिस पर जनता का करोड़ों रूपया फिजूल खर्च कर दिया गया और राष्ट्रपति ने कौन-सा इतिहास रचा है या रचने जा रहे हैं। सारी उम्र प्रणब मुखर्जी ने किसी न किसी पद पर रहते हुए किसी न किसी को पढ़ाया ही है। वित्त मंत्री रहते फाइनेंस का पाठ आदि।

और हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की तो राष्ट्रपति बनने से पहले शर्त थी कि मैं अपने पढ़ाने का क्रम जारी रखना चाहूंगा और उन्होंने अपने राष्ट्रपति के पूरे कार्यकाल में सैंकड़ों लेक्चर दिए होंगे। मुझे याद है कि वह हमारे श्रीराम काॅलेज आॅफ काॅमर्स में भी आए थे और उन्होंने लगातार डेढ़ घंटे तक क्लास ली थी। वे देशभर के बच्चों से रू-ब-रू होते रहते थे। क्या तब कोई सरकार करोड़ों के विज्ञापन के जरिए यह बात पूरे देष को बताती थी ? 

अभी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी पूर्व राष्ट्रपति डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृश्णन के जन्मदिन यानी शिक्षक दिवस पर बच्चों के सवालों के जवाब दिए, पर केन्द्र सरकार ने इसका कोई ढिंढोरा नहीं पीटा तो फिर दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार को दिल्ली में बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर लगाकर इतने बड़े पैमाने पर प्रचार करने की क्या जरूरत थी ?

जाहिर सी बात है कि राष्ट्रपति जी को केजरीवाल सरकार ने सियासत का शिकार बनाया। कोई कह सकता है कि राष्ट्रपति ने एक संदेष देने के लिए टोकन के रूप में एक स्कूल में पढ़ाया। उन्हें मालूम भी न था कि उनकी आड़ में आम आदमी पार्टी की सरकार करोड़ों रूपया खर्च कर बेजरूरत विज्ञापनों से पूरी दिल्ली में प्रचारित करेगी और उनके नाम का उचित-अनुचित लाभ उठाने की कोशिश करेगी।

अपनी पठशाला में राष्ट्रपति ने खुद माना कि बचपन में उन्हें पांच किलोमीटर दूर स्कूल में पढ़ने जाना पड़ता था। बारिष के दिनों कि दिक्कतें भी उन्होंने बच्चों से साझा कीं। उन्होंने यह भी कहा कि उनके जिले में बहुत कम स्कूल थे। मेरा केजरीवाल सरकार से सीधा सवाल है कि एक घंटे के कार्यक्रम के विज्ञापनों और राष्ट्रपति महोदय के लिए केवल एक क्लास तैयार करने में खर्च किए गए रूपयों का इस्तेमाल स्कूलों में सुविधाएं बढ़ाने के लिए क्या नहीं किया जाना चाहिए था ? ऐसा करते तो ठोस काम होता। अगर इसमें दूरदर्शन  एक घंटे के प्रसारण के खर्च को भी जोड़ लें तो बहुत बड़ी रकम बैठेगी। इतनी रकम केवल अपने अहंकार को तुष्ट करने के लिए दिल्ली सरकार ने खर्च कर दी। 

पिछले महीने ही दिल्ली हाईकोर्ट ने पुरानी दिल्ली के कुरैशी नगर इलाके में टैंट में चल रहे एक स्कूल को लेकर दिल्ली सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा है। यह स्कूल 40 साल से बुरी हालत में है। उसकी इमारत 1976 में गिर गई थी। तब से ही बच्चे टैंट में पढ़ने को मजबूर हैं। दिल्ली सरकार इन विज्ञापनों पर खर्च किए गए पैसे से ऐसे स्कूलों की इमारत बनवाती तो कितना अच्छा होता। 

लेकिन अफसोस की बात है कि केजरीवाल को व्यक्तिगत सियासत से फुर्सत हो, तब तो वे सही काम करें। दिल्ली में ऐसे बहुत-से स्कूल हैं, जहां पूरी सुविधाएं नहीं हैं। एक-एक कमरे में 80 से 100 बच्चे बैठते हैं। हालात यह है कि एक ही क्लास के कुछ बच्चे एक दिन आते हैं, कुछ दूसरे और कुछ तीसरे दिन। दिल्ली में स्कूलों की कमी और खस्ताहाली की बात क्या दिल्ली सरकार से छिपी हुई है ? उन स्कूलों की हालत सुधारने की बजाए इस तरह अनुत्पादक तरीके से सरकारी खजाना लुटाना कहां तक वाजिब है ?

राष्ट्रपति जी संभवतया अब इस बारे में खुद गंभीरता से सोच रहे होंगे। जो बच्चे कार्यक्रम में शामिल हुए, उनके व्यक्तित्व में एक दिन में कोई इज़ाफा होगा, यह भी कहा नहीं जा सकता। राष्ट्रपति ज्यादातर अंग्रेजी में ही बोले, ऐसे में हिन्दीभाशी इलाकों के छात्र-छात्राओं को दिक्कत हुई होगी। इस विशेष क्लास के लिए खासतौर पर एयर कंडीशन लगाया गया। इससे बच्चों में क्या संदेश गया होगा। मैं बार-बार कहूंगा कि देश के राष्ट्रपति को हल्की राजनीति में घसीटा गया है। 

आम आदमी पार्टी के ही एक नेता ने मुझसे कहा कि जिस तरह दिल्ली सरकार के झूठ पकड़े जा रहे हैं, जिस तरह से सारे दावे खोखले साबित हो रहे हैं, उससे मुख्यमंत्री बौखला गए है। लेकिन क्या इससे संवैधनिक व्यवस्था को उलट-पुलट किया जा सकता है ? केजरीवाल जरा सोचें कि राष्ट्रपति को सियासत में घसीटना कहा तक सही है ? राष्ट्रपति को सियासी मुहरा बनाकर देष की संवैधानक व्यवस्था को अंगूठा दिखाने से व्यक्तिगत अहम की तुष्ट तो हो सकती है, सामाजिक दायित्वों की पूति नहीं हो सकती। ‘आप’ के नेता ने मुझे बताया कि आम आदमी पार्टी अपने विधायकों की गिरफ्तारी से डरी हुई है। मुझे कहना है कि ‘आप’ के जो विधायक गिरफ्तार किए गए हैं, वे किसी सियारी गतिविधि की वजह से तो नहीं पकड़े गए। जो पकड़े गए हैं, वे आपराधिक मामलों के कारण हैं। सरकार का प्रचंड बहुमत है, सरकार गिरने वाली नहीं कि राश्ट्रपति की जरूरत पड़े और ऐसी बिना मांगी चमचागिरी करने की जरूरत हो। 

मुझे याद है जब मैं पुरानी दिल्ली चांदनी चैक से सांसद था, तब हमने गली लम्बी वाली, गली बंदूकवाली, कूचा पातीराम, माॅडल टाउन में एमसीडी स्कूलों का कायाकल्प किया था। हमने एक उदाहरण पेष किया था कि एमसीडी का एक भी पैसा खर्च किए बिना लोगों के सहयोग से एमसीडी स्कूलों में पब्लिक स्कूलों जैसी सुख-सुविधाएं एवं सफाई हो।  

जब राष्ट्रपति डाॅ0 अब्दुल कलाम को हमने बताया तो उन्होंने इन एमसीडी स्कूलों को आकर देखने की इच्छा प्रकट की और हमें पत्र लिखा। किन्तु बाद में क्योंकि एमसीडी में हमारी सरकार थी और दिल्ली में कांगे्रस की सरकार थी तो उन्हों विवाद न हो, इसलिए स्वीकृति देने के बाद भी आना उचित न समझा। 

पर यहां तो राष्ट्रपति का नाम बड़ी बेदर्दी से कैश किया गया। मानों राष्ट्रपति को लाइम-लाईट की जरूरत हो और कोई देने वाला न हो या इस बात से कोई बड़ी भारी तब्दीली आने वाली हो।  फिर दिल्ली की आम आदमी सरकार ने पूरी दिल्ली में बउ़े-बड़े पोस्टर, बैनर लगाकर इनते बड़े पैमाने पर प्रचार क्यों किया ? इस किस्म की शोबाज़ी से देश या कहें कि देश की राजधानी दिल्ली में विकास का कोई काम तो हो नहीं सकता, फिर आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली के आम आदमियों के करोड़ों रूपए बेकार के प्रचार क्यों खर्च किए ? सवाल यह है कि सर्वोच्च पद पर बैठी कोई विभूति अगर देष को लोगों से, छात्र-छात्राओं से या किस भी तबके के साथ ज्ञान बांटे, तो क्या यह प्रचार करने की बात है ?

एक और अहम बात कहना चाहता हूं। देश के किसी आम नगारकि के अंदर इस किस्म की महीनी सियात से दो-चार होने का माद्दा नहीं होता। न आम इंसान को यह सब सोचने-समझने की जरूरत है, न ही उसके पास इतना वक्त है कि इसका विश्लेषण करे, तो फिर दिल्ली सरकार ने इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति की पाठषाला के चकाचैंध वाले विज्ञापन आम आदमी के करोड़ों रूपए खर्च कर किस इरादे से लगवाए ? 
यह बात प्रेस कान्फ्रेंस, मीडिया और समाचार-पत्रों के जरिए बताई जा सकती थी, किन्तु आम आदमी पार्टी की सरकार अपनी षान में खुद ही कसीदे पढ़ने की कवायद में उसने पूरी दिल्ली में बड़े-बड़े पोस्टर लगा दिए। 

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को जांच करानी चाहिए कि दिल्ली का कितना पैसा दिल्ली सरकार ने फिजूल में बर्बाद कर दिया। वैसे दिल्ली सरकार के लिए यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी फिजूल के विज्ञापनों पर वह करोड़ों रूपए लुटा चुकी है। मैं इस बारे में विरोध जताने के लिए राष्ट्रपति से मिलने का वक्त मांगूंगा। देश के सम्मानित पदों को सियासत में घसीटने की इजाज़त किसी को नहीं दी जा सकती। 

यह बात दिल्ली के मुख्यमंत्री को अब तो समझ में आ ही जानी चाहिए। साथ ही राष्ट्रपति महोदय को भी सोचना चाहिए था कि कोई उनके नाम का न बेजा इस्तेमाल करे और न उनके नाम से बेजा खर्च हो।

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नौजवान हैं, लेकिन प्रेरणा ग़ायब है

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य और पीएमओ में मंत्री रह चुके हैं)
 
मौजूदा दौर में भारत युवाओं का देश है, यह सच्चाई है। देश में 35 साल की उम्र वालों की संख्या आबादी के 60 फ़ीसदी से ज़्यादा है। यह सुनकर अच्छा तो लगता है, लेकिन फिर एक झटके से विचार आता है कि इतनी संख्या में नौजवान होने के बावजूद देश में उसी हिसाब से ऊर्जा क्यों हमें क्यों महसूस नहीं होती? मेरा यह विचार किसी को नकारात्मक लग सकता है, लेकिन चिंता की बात यह है कि युवाओं को दिशा देने वाले लोगों की संख्या दिन-ब-दिन घटती जा रही है, यह भी सच्चाई है। यही वजह है कि देश में युवाओं की बड़ी संख्या होने के बावजूद नौजवानों जैसा जोश दिखाई नहीं देता।
 
हाल ही में 15 अगस्त गुज़रा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से देश को संबोधित किया। उनके डेढ़ घंटे के भाषण में ऊर्जा ही ऊर्जा नज़र आई, लेकिन स्वतंत्रता दिवस की उमंग मुझे दिल्ली में उतनी नहीं नज़र आई, जितनी तब होती थी, जब हम नौजवान थे। न्यूज़ टेलीविज़न चैनलों में दूसरे राज्यों की तस्वीरें भी निराश करती नज़र आईं। ऐसे में सवाल यह है कि हम दिशाहीन भीड़ से देश के विकास की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? लिहाज़ा मेरा मानना है कि नौजवान देश होना गर्व की बात तो है, लेकिन साथ-साथ बड़ी चिंता की बात भी है। अगर 60 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी को दिशा देने वाले, प्रेरणा देने वाले ही नहीं होंगे, तब सोचिए धीरे-धीरे ही सही देश का क्या हाल होगा? चिंता तब और बढ़ जाती है, जब हम देख रहे हैं कि जैसे-जैसे देश युवा हो रहा है, उन्हें प्रेरणा देने वाले कम होते जा रहे हैं।
 
असीम संभावनाओं से भरी मिट्टी से मनोहारी प्रतिमाएं या कोई और वस्तु बनाने के लिए हमारे पास अच्छे सांचे होने ज़रूरी हैं। मिट्टी को गीला करने भर से ही मनचाही आकृतियां नहीं बन जातीं। मनचाही आकृति बनाने के क्रम में मिट्टी तो केवल ज़रिया होती है। या यह भी कह सकते हैं कि मुख्य आधार होती है, लेकिन उसे हम कच्चा माल ही कहेंगे। असल में मनचाही आकृति बनाने के लिए किसी कलाकार के मन में कोई विचार ही होता है। वह सधे हाथों से अपने मन में उकेरी गई प्रतिमा को आकार देता है। सीधे शब्दों में कहें, तो मिट्टी के मनचाहे आकार बनाने के लिए प्रेरणा देने का काम कलाकार करता है। लेकिन विडंबना यह है कि मिट्टी की प्रतिमाएं, बर्तन और दूसरे सामान का प्रचलन नए दौर में ख़त्म होता जा रहा है। न घर में कोई घड़े रखता है, न सुराही और न दूसरी चीज़ें। इसी तरह नौजवानों को प्रेरणा देने वाले तबके की पूछ भी ख़त्म होती जा रही है। जो हैं, उन्होंने ख़ुद को अलग-थलग कर लिया है। चिंता की बात यही है कि जब नौजवानों को देश के सतर्क नागरिकों के लिए ज़रूरी दीक्षा ही नहीं मिलेगी, तो भविष्य का देश कैसा होगा? जब नींव ही कमज़ोर होगी, तो मकान के स्थायित्व को लेकर क्या गारंटी दी जा सकती है?
 
आज़ादी की लड़ाई के दौरान देश में कितने क्षमतावान नेता थे, सब जानते हैं। लेकिन आज क्या हाल है, ग़ौर से सोचिए। आज चुनावों के दौरान आगे करने के लिए पार्टियों के पास नाम नहीं हैं। क्षेत्रीय पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चल ही रही हैं, बड़ी पार्टियों के पास भी अच्छी छवि के लोग तो बहुत होंगे, लेकिन जन-साधारण को स्वीकार्य नेताओं की संख्या कितनी है?  आज मैं राष्ट्रपति पद के बारे में सोचता हूं, तो ऐसे पांच-छह नाम नहीं मिलेंगे, जिनपर आंख मूंद कर आम सहमति हो पाए। हर किसी के साथ कुछ न कुछ अड़ंगा लगा ही हुआ है। आज़ादी के सात दशक बाद ही हमारे देश में नेताओं का अकाल पड़ने लगा है।
 
यह गंभीर बात है। किसी भी देश की अपनी संस्कृति होती है, अपने आचार-विचार होते हैं। आज हमारे देश में 35 साल उम्र के लोगों की संख्या 60 फ़ीसदी से ज़्यादा है, तो ज़ाहिर है कि ऐसा हमारी किसी दूरगामी योजना की वजह से नहीं हुआ है। यह स्थिति बहुत सी सामाजिक अवस्थाओं, बढ़ती साक्षरता और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हुए सुधारों का ही नतीजा है। जो भी हो, लेकिन यह आज की सबसे बड़ी हक़ीक़त तो है ही।
 
दुर्भाग्य की स्थिति है कि हम उतनी ही ताक़त से प्रेरणा देने वाले तैयार नहीं कर पाए। यह वैसी ही स्थिति है कि स्कूल में पढ़ने की इच्छा रखने वाले बच्चे तो हैं, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षक नहीं हैं। अब सवाल यह आता है कि इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कौन है? मेरी सियासी चेतना तो यही कहती है कि इसके लिए वही ज़िम्मेदार है, जिसने देश पर ज़्यादातर शासन किया है। विकास करते वक़्त हमें दूररगामी योजनाएं बनानी चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि आबादी किस अनुपात में बढ़ रही है। उसी अनुपात में हमें बुनियादी ढांचे का विकास भी करना चाहिए।
 
लेकिन ऐसा नहीं किया गया और अनियंत्रित विकास अब बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है। यही हालत समाज की भी है। सामाजिक मूल्यों, देश की संस्कृति को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया गया। लिहाज़ा समाज विकसित तो हुआ है, लेकिन यह विकास भौतिक आकार में ही है, आध्यात्मिक चिंतन के रूप में बहुत कम।
 
अपने जीवन और आचरण के ज़रिए आदर्श प्रस्तुत करने वाले आज कितने हैं। नई पीढ़ी समझदार है और वह जानती है कि भाषणों से आदर्श प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। समाज में, सियासी दलों में, साधु-संतों में सभी ओर एक निराशा छा रही है। समारोहों में बुलाने के लिए ऐसे लोग ही नहीं मिलते, जो आदर्श की मिसाल के तौर पर लिए जा सकें। यही वजह है कि जगह-जगह सामाजिक समारोहों में नेता और अभिनेता ही दिखाई देते हैं। लोग टीवी स्टार्स को बुलाते हैं। ऐसे नेताओं को भी बुलाया जाता है, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हों। चिंता की बात यह है कि लोग आरोपी नेताओं को बुलाकर भी ख़ुद को गौरवान्वित समझते हैं।
 
मोहल्ले में ख़ुद के रसूखदार होने का ढोल पीटते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है कि प्रेरणादायी व्यक्तित्व देश में हैं ही नहीं। मैं ऐसे कई महान व्यक्तित्व वाले सज्जनों को जानता हूं, जो अपना प्रचार-प्रसार करते ही नहीं। वे सिमट कर रहते हैं। यहीं पर देश के मीडिया की भूमिका आती है। मीडिया को ऐसे लोगों को सामने लाना चाहिए, लेकिन ऐसा वह नहीं कर रहा। मीडिया केवल नकारात्मक ख़बरों को तवज्जो दे रहा है। यह चिंता की बात है। हालांकि तस्वीर पूरी तरह नकारात्मक हो, ऐसा भी नहीं है। काम तो हो रहा है, योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं हो रहा है। कई साल पहले मुझे बड़ा अच्छा लगा कि महान शहीद भगत सिंह को लेकर तीन फिल्में आई। देश की आज़ादी के सिपाहियों और दूसरी बहुत सी महान हस्तियों की जीवनियों पर ज़्यादा से ज़्यादा फिल्में बननी चाहिए।
 
हम अपनी संस्कृति को भूलने की वजह से ऐसे नायकों को हाईलाइट नहीं कर रहे हैं। उनकी प्रतिमाएं बनाकर और उन पर फूल चढ़ा कर हम अपने कर्तव्यों की खानापूरी कर लेते हैं।
 
हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं, लेकिन बुझे मन से कहना पड़ रहा है कि सियासत में विचार की अहमियत ही ख़त्म हो गई है। लेकिन याद रखिए देश का आम आदमी उस हस्ती को ही याद रखता है, जो क़ुर्बानी देता है। क़ुर्बानी देने का मतलब यह नहीं कि जान ही दी जाए। क़ुर्बानी का मतलब है अपने लिए नहीं, समाज के लिए काम करना। अपना विकास नहीं, समाज का विकास करना। आज लोग रानी लक्ष्मी बाई को याद करते हैं, तो सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने खुले मैदान में अंग्रेज़ों से लोहा लिया। अपना बच्चा क़ुर्बान कर दिया और ख़ुद भी शहीद हो गईं। आज लोग महाराणा प्रताप को याद करते हैं, तो इसलिए कि अपने राज्य की रक्षा के लिए उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया, घास की रोटियां खाईं। सवाल यह भी है कि समाज क़ुर्बानी की उम्मीद किससे करता है। ज़ाहिर है कि उससे तो नहीं, जिसके पास कुछ क़ुर्बान करने के लिए हो ही नहीं। क़ुर्बानी उसे करनी पड़ती है, जो समृद्ध हो। लेकिन हमारी सियासत में अब यह सोच ख़त्म होती जा रही है।
 
नामचीन साधु-संत दवाएं बेचने में लगे हैं या कसरत के गुर बेच रहे हैं। तो आदमी का क्या होगा?  
 
आम लोगों की सियासी चेतना भी मंद पड़ी है। मुझे याद है कि दिल्ली के चांदनी चौक में मुझे गांधी–नेहरू, पटेल-सुभाष की प्रतिमाएं घरों के मुख्य द्वारों पर नज़र आ जाती थीं। पत्थर की प्रतिमाएं लोग मुख्य द्वारों पर लगाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोग बड़े पैमाने पर नए घर तो बना रहे हैं, लेकिन उनमें प्रेरणा देने वाले महापुरुषों और देवी देवताओं का केवल औपचारिक स्थान है। चार गुणा चार फुट की जगह में मंदिर सिमट गए हैं। पहले पूरा घर मंदिर होता था। अब तो सीढ़ियों के नीचे बची फ़ालतू जगह पर मंदिर बनने लगे हैं। आप अयोध्या जाइए, बनारस जाइए। पुरानी बस्तियों में कमरों से बड़े मंदिर बनाए जाते थे। अब ऐसा नहीं है। तो प्रेरणा कहां से मिलेगी।
 
सवाल यह है कि बदलते वक़्त में अपनी संस्कृति को अगर हमने नए और आसान
तरीक़े से नहीं परोसा, तो देश की कैसी सूरत बनने वाली है, यह सोचना मुश्किन नहीं है। बाबाओं ने अपने प्रवचनों को संगीत के साथ जोड़ा, तो ज्यादा लोग उनके पास आने लगे। ऐसी चीज़ें समाज में की जानी चाहिए, जिनसे लोग प्रेरित हों।
 
मैं बड़ी दृढ़ता से मानता हूं कि नई पीढ़ी के सामने हमें अपने महापुरुषों से जुड़ी अच्छी बातें ही रखनी चाहिए। आज के ऐतिहासिक-धार्मिक टीवी सीरियल तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। वे ऐसे-ऐसे प्रसंग दिखा रहे हैं, जिनसे महापुरुषों का चरित्र हनन होता है। गांधी-नेहरू के वे प्रसंग सामने नहीं लाए जाने चाहिए, जिनसे उनके प्रति स्वीकृति का भाव ख़त्म हो। हमें अपने बच्चों को अच्छी चीज़ें दिखानी चाहिए। 
 
ये हरगिज़ नहीं होना चाहिए कि हम नई पीढ़ी को स्किल्ड तो बना दें, लेकिन संस्कारवान न बना पाएं। हमारे ऐसे युवा विदेश जाएंगे, तो देश की क्या छवि बनेगी? दिक्क़त यही है कि नेता केवल भाषण दे रहे हैं और बाबा केवल प्रवचन। वे अपनी नसीहतों पर ख़ुद भी अमल नहीं करते। पहले महापुरुषों की नसीहतें इसलिए लोगों पर असर डालती थीं, क्योंकि वे ख़ुद उन्हें अमल में लाते थे। गांधी जी ने गुड़ खाना छोड़कर ही एक बच्चे से ऐसा करने को कहा।
 
पहले देश बनाना होगा और इसके लिए बहुत से स्तरों पर एक साथ काम करना होगा। मोदी सरकार ने यह मुहिम शुरू की है, लेकिन कामयाबी तभी मिलेगी, जब आम लोग पूरे मन से इसमें जुड़ें।
 
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अनधिकृत कालोनियों में रहने वालों का क्या कसूर है

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं)

रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की रैली थी। दिल्ली के चुनाव समीप आ रहे थे और दिल्ली में रहने वालों की सबसे बड़ी समस्या थी, रहने को सुरक्षित छत। चाहे वह झुग्गी-झोंपड़ी, चाहे स्लम, चाहे अनधिकृत कालोनी में रहने वाले लोग हों।

स्टेज पर चढ़ने से पहले मेरी मुलाकात प्रधानमंत्री से हुई, मैंने उनसे कहा कि दिल्ली वालों की छत के लिए कुछ करना चाहिए और मुझे सुखद आशचर्य हुआ कि उन्होंने घोशणा की कि दिल्ली में हम जीते तो ‘जहां झुग्गी, वहीं मकान’ देंगे और रामलीला मैदान तालियों से गूंज उठा। 

दिल्ली के चुनाव में भारी बहुमत से आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई। लोगों ने इस पार्टी के ऊपर बहुत भरोसा किया, भारी बहुमत से जिताया। लोगों में एक आस बन्धी थी कि ये लोग अनधिकृत कालोनियों को तरीके से नियमित करेंगे और झुग्गी-झोंपड़ी वालों को फ्लैट बनाकर देंगे, जैसा कि उनके घोषणा – पत्र में भी था। 

कई महीनों तक लोगों ने आम आदमी पार्टी की सरकार का इंतजार किया जब उन्हें लगा कि आम आदमी पार्टी राजनीति में उलझी है और जो योजनाएं बिना केन्द्र सरकार के पूरी नहीं हो सकती, उसमें केन्द्र का सहयोग लेने की बजाए लांछन लगा रही है तो जाहिर तौर पर उनका मकसद दिल्ली की समस्याएं हल करने का नहीं है। दिल्ली की समस्याओं के लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना उनका मकसद रह गया है। 

झुग्गी-झोंपड़ी और अनधिकृत कालोनी के लोगों ने इंतजार करके केअपने आपको भगवान के भरोसे छोड़ा और अपनी बची-खुची जमा-पूंजी से 20-20, 30-30, 50-50 गज के मकानों के ऊपर मंजिल डालनी षुरू की। अब पूछो उनसे कि कल कोई सरकार फ्लैट बनाने चाहे तो ये गरीब का पैसा जाया जाएगा या नहीं जाएगा ? या वो इसी तरह इन झुग्गियों में अपनी जिन्दगी काट देंगे। जहां गंदगी के अम्बार हैं, षौचालय नहीं हैं, यहां तक की चलने की जगह तक नहीं है। 

31 अगस्त, 2008 में जब दिल्ली में कांग्रेस की शीला दीक्षित की सरकार थी तब मैंने अनधिकृत कालोनी के लोगों को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली की थी। आडवाणी जी के शब्दों में ‘ऐसी रैली मैंने न कभी देखी, न सुनी।’ लाखों लोग उस रैली में उमड़ पड़े थे।

जो भी सरकारें आईं, उन्होंने केवल अनधिकृत कालोनियों के निवासियों को बेवकूफ बनाने का काम किया। ये कालोनियां तब तक नियमित नहीं हो सकती, जब तक कि केन्द्र और दिल्ली में एक ही पार्टी की सरकार न हो। दस साल जब दिल्ली और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, उन्होंने इस मौके को बड़ी बुरी तरह से गंवा दिया और तो और अनधिकृत कालोनी वालों को ठगने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इन 1639 अनधिकृत कालोनियों में रहने वाले 60 लाख लोगों के साथ ठगी कर नियमितिकरण के नाम पर प्रोविजनल सर्टिफिकेट का लाॅलीपोप पकड़ा दिया। 

अब पूछिए, आम आदमी पार्टी की सरकार से उन्हें दिल्ली का भला पहले चाहिए या अपनी नाक ऊंची रखनी है ? इसलिए कभी भी गम्भीर रूप से केजरीवाल सरकार ने अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने के लिए काम नहीं किया ।

सरकार ने जब आम और मध्यम वर्गीय लोगों के लिए सस्ते फ्लैट, प्लाॅटों की व्यवस्था नहीं की तब मजबूर होकर लोगों ने सिर पर छत के लिए छोटे-छोटे मकान बना लिए और दिल्ली में 1695 से ज्यादा कालोनियां उभर कर सामने आ गई। 

हांलाकि इन कालोनियों को ‘अनधिकृत कालोनी’ कहा जाता है, किन्तु मैं इनको अनधिकृत कालोनी नहीं कहता, मैं इन्हें ‘सेल्फ मेड’ कालोनी कहता हूं क्योंकि वर्षों तक कांग्रेस सरकार ने दिल्ली की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखकर लोगों के लिए सिर छुपाने का कोई इंतजाम नहीं किया। उसके कारण मजबूरन लालची लैंड माफियाओं ने और मजबूर लोगों ने कालोनियां बसाई – पानी तो अपना रास्ता बनाएगा ही। ये अनधिकृत कालोनियां या तो कृशि भूमि या वन भूमि या प्राइवेट जमीन या सरकारी जमीन या अन्य कहीं निर्मित हुईं।

मैं सरकार से पूछता हूं कि अगर ये लोग उस समय कालोनियां नहीं बसाते तो ये लोग आज कहां रहते और लाखों लोग जो निर्माण के काम में लगे है। घरों में काम करते हैं, वे कहां से आते। आज भी यह समस्या जस की तस है आज भी सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे रही कि हर साल छह लाख लोग बाहर से मजबूरी में रोजी-रोटी कमाने दिल्ली में आते हैं। दिल्ली की जनसंख्या बढ़ रही है, वे रहेंगे कहां ? 

जरूरत है दिल्ली सरकार आॅल पार्टी मीटिंग बुलाए, उनसे चर्चा करे और फिर सब मिलकर केन्द्र से इस बारे में सहयोग मांगे। लगातार केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री की आलोचना करने से आम आदमी पार्टी की सरकार की राजनीति तो चल सकती है, पर दिल्ली की जनता का भला नहीं हो सकता।

अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने के लिए दिल्ली नगर निगम, दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार में समन्वय होने की जरूरत है और इसके बाद न्यायालयों में चल रहे मुद्दों को भी पहले से सरकार को देखना पड़ेगा, क्योंकि दिल्ली हाई कोर्ट ने पहले ही केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार को एक याचिका के बारे में यह चुनौती दे रखी है कि इन सबको इन कालोनियों को नियमित करने का अधिकार नहीं है। ऐसे में डगर और कठिन हो जाएगी। 

दिल्ली सरकार को एक साल हो गया है, पर अभी तक उनके पास कोई ब्लू प्रिन्ट नहीं है कि 60 लाख लोग जो अनधिकृत कालोनियों में रहते हैं, उनके निवास का क्या होगा और न ही दिल्ली की सरकार के पास लोगों की हाउसिंग का ही होई प्लान है।

अभी पिछले दिनों जिन कालोनियों को कांग्रेस सरकार ने नियमित करने की घोशणा की थी, उनमें से बहुत सारी कालोनियां फर्जी पाई गई थीं। अनधिकृत कालोनियों और झुग्गी-झोंपड़ी तो एक मुद्दा है। बिजली के बिल भी अब बहुत ज्यादा बढ़कर आ रहे हैं और आधी दिल्ली में पानी ही उपलब्ध नहीं है। 

दिल्ली में जमीनों को लेकर लैण्ड माफिया बहुत सक्रिय है, जो गरीब लोगों को मोटे दामों पर झुग्गी किराए पर देता है तो जिसे हम झुग्गी वाला समझ रहे हैं, उस बेचारे गरीब की तो झुग्गी भी नहीं है। 

अनधिकृत कालोनियां तो अभी और बनती रहेंगी, क्योंकि दिल्ली सरकार की न योजना है, न कोई नियंत्रण। लोगों को यह भी मालूम है कि आज किसी भी पार्टी की सरकार में वोट बैंक की राजनीति के चलते जनता की सही या गलत बातों को चुनौती देने का आमदा नहीं बचा।

अनधिकृत कालोनियों की योजना इस तरह से बननी चाहिए ताकि उसको न्यायालय में चुनौती न दी जा सके और ये तभी नियमित हो पाएंगी, जब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर श्रेय लेने की होड़ नहीं मचेगी। यदि आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो एक और नया आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा।  

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संस्कृति का डिज़िटल होना

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं और पीएमओ में मंत्री रह चुके हैं)
 
अच्छी ख़बर है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुलसीदास के महान ग्रंथ रामचरित मानस का डिजिटल संस्करण जारी कर दिया है। रामचरित मानस केवल एक महाकाव्य भर नहीं है, बल्कि हिंदुओं के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यह ऐसा साहित्य है, जो घर-घर में मौजूद है।
 
मौजूदा दौर में पठन-पाठक की परंपरा भले ही ध्वस्त होती जा रही हो, लेकिन रामचरित मानस का पठन-पाठन आज भी ज़्यादातर हिंदू समाज में होता है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ भर नहीं है, कम से कम उत्तर भारत के लोगों के लिए यह ऐसा ग्रंथ है, जो जीवनचर्या में बाक़ायदा शामिल है। प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं कि रामचरित मानस भारत का सार है, तो यह बिल्कुल सही है। रामचरित मानस में नायक और खलनायक का द्वंद्व इतना प्रखर है कि ज़माना चाहे कोई भी हो, उसका प्रतिबिंब उसमें मिल जाएगा। आदर्श नायक, आदर्श राज्य व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, यह हमें रामचरित मानस बताती है।
 
दरअस्ल, रामचरित मानस को हम भले ही धार्मिक ग्रंथ मानें, लेकिन जिस वक़्त यह लिखी गई, उस वक़्त देश के माहौल को ज़रूर याद रखना चाहिए। भक्ति परंपरा के महान कवि तुलसीदास ने शैवों के गढ़ रहे काशी में रहकर विष्णु के अवतार राम को महानायक का दर्जा दिलवा दिया, तो यह उस व़क्त के सामाजिक द्वंद्व को दर्शाता है। रामचरित मानस की पांडुलिपियों की सुरक्षा के लिए तुलसीदास ने गांव-गांव में अखाड़ा परंपरा को नया जीवन दिया। मानस की पांडुलिपियां युवा लठैतों की सुरक्षा में रहती थीं। तुलसीदास ने भक्ति और श्रृद्धा पर मज़बूती से पड़े संस्कृत भाषा के मकड़जाल को तोड़ा, पंडों की साज़िशों का पर्दाफ़ाश किया। भक्ति साहित्य को आम आदमी की भाषा सिखाई, तो यह बड़ा सामाजिक काम था। रूढ़ियों को तोड़ना सबके बस की बात नहीं होती, इस लिहाज़ से तुलसीदास केवल धार्मिक कवि थे, यह कहना सही नहीं होगा। तुलसीदास की ऊर्जा समाज को नई दिशा देने वाली साबित हुई, यह मानने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
 
रामचरित मानस का डिजिटल संस्करण जारी करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि कलाकारों की इस पेशकश ने न सिर्फ़ संगीत साधना की है, बल्कि संस्कृति और संस्कार साधना भी की है। रामचरित मानस के एक और महान योगदान का उल्लेख मोदी जी ने किया। उनके मुताबिक मॉरीशस जैसे बहुत से देशों में भारतीय मूल के लोगों ने अपने स्थाई डेरे बसाए, तो रामचरित मानस ही थी, जिसके ज़रिए वे लोग भारत से संपर्क में रहे।
 
प्रसंगवश एक बुरी ख़बर भी ज़ेहन आ रही है। हमारे देश में धार्मिक और सामाजिक साहित्य के प्रचार-प्रसार करने वाली गीता प्रेस, गोरखपुर का नाम किसने नहीं सुना होगा? अपनी तरह का साहित्य घर-घर तक पहुंचाने वाली गीता प्रेस आज बंद पड़ी है। निश्चित ही सत्साहित्य में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह बुरी ख़बर है। सबको याद होगा कि गीता प्रेस ने किस तरह पिछले दौर की नई पीढ़ियों में संस्कार भरने का काम किया। कितना अच्छा कंटेंट और कितनी कम क़ीमत! हालांकि आज ज़माना डिजिटल है, लेकिन किताबों की भूमिका किसी भी दौर में कम करके नहीं आंकी जा सकती। लिहाज़ा अच्छा यही होगा कि गीता प्रेस, गोरखपुर के छापेखाने में दोबारा से हलचल शुरू हो। इसके लिए सरकार को भी अगर दख़ल करना पड़े, तो ऐसा तुरंत किया जाना चाहिए।
 
आकाशवाणी ने रामचरित मानस का डिज़िटल संस्करण तैयार किया है। यह बताना यहां अहम होगा कि आकाशवाणी के पास देश के हर हिस्से के दिग्गज कलाकारों की नौ लाख से ज़्यादा घंटों की रिकॉर्डिंग्स हैं। प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि इस अमूल्य ख़ज़ाने का डॉक्यूमेंटेशन विस्तार से होना चाहिए। इसी तरह दूरदर्शन की बात करें, तो उसके पास भी साहित्य, विज्ञान, कला, संस्कृति से जुड़ा अकूत ख़ज़ाना टेपों में भरा पड़ा है। ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठता कि ऐसे ख़ज़ाने को हम देश की युवा पीढ़ी में संस्कार भरने के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं कर पा रहे हैं?
 
अभी मैं राजस्थान से राज्यसभा का सदस्य हूं। राजस्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पहचान से पूरी दुनिया वाक़िफ़ है। पूरी दुनिया जानती है कि अगर ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्ध की बात की जाए, तो राजस्थान का ज़िक्र आए बिना वह पूरी नहीं हो सकती। इस सिलसिले में मैं राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थापित जवाहर कला केंद्र का ज़िक्र करना चाहूंगा। दो-ढाई दशक पहले जवाहर कला केंद्र के प्रशासन ने पूरे राज्य में एक सर्वे कराया था। इस सर्वे में गांव-गांव से जुड़े शिक्षकों और दूसरे सरकारी कर्मचारियों की मदद ली गई थी। सर्वे में गांव-गांव, ढांणी-ढांणी से यह जानकारी जुटाई गई थी कि वहां कोई ऐतिहासिक स्मृति चिन्ह हैं या नहीं। ऐतिहासिक स्मृति चिन्ह यानी पुरानी बावड़ी, मंदिर, क़िले या हवेलियां या उनके भग्नावशेष वगैरह। सर्वे के नतीजों को बाक़ायदा किताबों का रूप दिया गया था। उस वक़्त तो काम अच्छा हुआ, लेकिन बाद में हमने उस जानकारी का क्या इस्तेमाल किया, यह मुझे पता नहीं। लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूं कि उस सर्वे के नतीजों के आधार पर पर्यटन को बढ़ावा देने की कोई ईमानदार कोशिश किसी राज्य सरकार ने नहीं की।
 
जवाहर कला केंद्र में राजस्थान की कलाओं, लोकनृत्यों, लोकनाट्यों और दूसरी सांस्कृतिक विधाओं का अपार ख़ज़ाना मौजूद है। बहुत बड़ा सवाल यह है कि आज के राजस्थान के लिए यह ख़ज़ाना कितने माइने रखता है? कोई भी ख़ज़ाना जुटाने का मक़सद होता है कि ज़रूरत पड़ने पर उसे ख़र्च कर जीवन बचाया जा सके।
 
आज जब नई पीढ़ी संस्कृति से दूर होती जा रही है, तब क्या इस ख़ज़ाने का सटीक इस्तेमाल हमें नहीं करना चाहिए? हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर आख़िर कब हमारे काम आएंगी? सांस्कृतिक विधाओं के संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपए हर साल ख़र्च किए जाते हैं, तो उस तमाम डॉक्यूमेंटेशन का इस्तेमाल देश के बच्चों के ज़ेहन में अच्छे भाव, देश प्रेम, समाज प्रेम की भावनाएं बचपन से ही भरने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता? एक दिक़्क़त तो होती है कि हमारे पास साधन ही नहीं हों। लेकिन अगर साधन भरपूर मात्रा में हों, तब तो कोई बहानेबाज़ी नहीं की जा सकती। असल दिक़्क़त है तालमेल के साथ काम नहीं करने की।
 
शिक्षा प्रणाली अगर ऐसे संस्थानों से सीधे-सीधे जोड़ दी जाए, तो दोहरा फ़ायदा होगा। कलाओं के डॉक्यूमेंटेशन का एक मक़सद भी होगा और नई पीढ़ी को हम अपनी जड़ों की संस्कृति और संस्कार से परिचित भी करा पाएंगे।
 
रामचरित मानस के डिज़िटल संस्करण के बहाने मैंने प्रसंगवश सोचा, तो विचार मन में आया कि ऐसा किया जा सकता है। बात केवल जयपुर के जवाहर कला केंद्र की नहीं है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी ऐसा ही केंद्र है- भारत भवन। देश की राजधानी दिल्ली के साथ-साथ इस तरह के केंद्र करीब-करीब सभी राज्यों में हैं। लेकिन इनकी मौजूदगी के अलावा इनकी सार्थकता क्या है? यह भी हक़ीक़त है कि जवाहर कला केंद्र या भारत भवन जैसे केंद्रों में अच्छा-ख़ासा काम हो भी रहा है, जिस पर अच्छा-ख़ासा बजट भी ख़र्च हो रहा है। तो फिर क्या यह केवल सामाजिक कलाओं के डॉक्यूमेंटेशन के लिए ही हो रहा है? इसका इस्तेमाल समाज को बनाने और आगे बढ़ाने में क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
 
मैं चाहता हूं कि आकाशवाणी, दूरदर्शन नेशनल और दूरदर्शन के सभी क्षेत्रीय केंद्रों के साथ-साथ देश भर के तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थान तालमेल के साथ काम करें और इसे शुरुआती शिक्षा के साथ भी जोड़ा जाए। स्कूलों में आधे घंटे की डिज़िटल कक्षाएं चलाई जाएं। बच्चों को महान लोगों के ऑडियो-विडियो सुनाए जाएं। देश की महान सांस्कृतिक परंपराओं को डिज़िटल फॉर्मेट में दिखाया जाए, तो इसका बेहद सकारात्मक असर नई पीढ़ी पर पड़ेगा। ऐसा किया गया, तो आने वाली युवा पीढ़ियां अंदर से मज़बूत होंगी। हमारा देश इस समय युवाओं का देश है। 35 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या पूरी आबादी की 60 फीसदी से ज़्यादा है। लेकिन अफ़सोस होता है कि इतनी बड़ी आबादी अपने मूल सांस्कृतिक आधार से कटी हुई दिखाई देती है। ज़्यादातर नौजवानों में हताषा-निराशा ही दिखाई देती है। ऐसे में अगर हम अपनी तमाम समृद्ध परंपराओं के डिज़िटल संस्करण तैयार कर यानी परंपरा को विज्ञान से जोड़कर युवाओं के सामने परोसेंगे, तो इससे देश और ताक़तवर होगा, इसमें कम से कम मुझे तो शक नहीं है।
 
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दिल्ली विश्वविद्यालय में हर दाख़िले के लिए हो एंट्रेंस टेस्ट

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व अध्यक्ष, DUSU हैं)
 
दिल्ली यूनिवर्सिटी में गहमा-गहमी है। सुनहरे भविष्य के सपने लेकर छात्र-छात्राएं एडमीशन के लिए परेशान हैं। लेकिन मुझे लगता है कि डीयू में दिल्ली के बच्चों के साथ
अन्याय हो रहा है। क्योंकि मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ का अध्यक्ष रह चुका हूं और वहां से दिल्ली यूनिवर्सिटी से जुड़ा रहाI लिहाज़ा मुझे तब बहुत दुख होता है, जब दिल्ली के 12वीं पास हज़ारों बच्चों का दाख़िला अपनी ही दिल्ली के कॉलेजों में नहीं हो पाता। ऐसे में दाख़िला प्रक्रिया बदले जाने की सख़्त ज़रूरत है।
 
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में हर दाख़िले के लिए प्रवेश परीक्षा (एंट्रेंस टेस्ट) की मांग करता हूं। मुझे मालूम है कि बहुत से लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे, लेकिन मेरी यह मांग चार तथ्यों पर आधारित है-
 
पहला, इन दिनों बड़े पैमाने पर फ़र्ज़ी डिग्री, फ़र्ज़ी मार्क्स शीट और फ़र्ज़ी कॉलेजों की बात लगातार सामने आ रही है। क्या पता किस-किस ने फर्जीवाड़े से दाखिला लिया है, उसे चेक कैसे किया जायेगा?
 
दूसरा, यह कि कुछ राज्यों, ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर सामूहिक नकल की बात सामने आ रही है। ऐसे में वहां से परीक्षा पास करने वालों के ज़्यादा नंबर आना स्वाभाविक है, फिर दाखिले में बराबर की लड़ाई कैसे हुई?
 
तीसरा तथ्य यह कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अब 70 प्रतिशत दाखिला दिल्ली के बाहर के राज्यों के बच्चों को मिलता है। यानी दिल्ली में रहने वाले लोगों के बहुत से बच्चों को सीबीएसई की परीक्षा पास करने के बावजूद अपनी ही दिल्ली में दाख़िला नहीं मिलता। मैं श्रीराम कॉलेज से पढ़ा हूं। वहां के प्रिंसिपल का कहना है कि पिछले साल बीकॉम ऑनर्स के 720 छात्रों में से दिल्ली के 245 ही छात्र थे। यानी बाहर के राज्यों के छात्रों की संख्या 475 थी।
 
चौथी बात यह कि हर राज्य में शिक्षा बोर्ड भी अलग-अलग हैं। अलग-अलग कोर्स हैं और अलग-अलग परीक्षा पद्धतियां हैं। इस वजह से छात्रों की योग्यता भी अलग-अलग है और परीक्षा में नंबर देने का स्तर भी अलग-अलग है। कहीं खुले नंबर दिए जाते हैं और कहीं सख़्ती बरती जाती है।
 
ऐसे में सिर्फ़ नंबरों के आधार पर आप दिल्ली में दाख़िला लेने वाले 54 हज़ार छात्रों का मैरिट के आधार पर चयन कैसे कर सकते हैं? अभी जिन छात्रों के दाख़िले हुए हैं, कल अगर उनका एंट्रेंस टेस्ट लिया जाए, तो मेरा दावा है कि बहुत से फेल हो जाएंगे और दाख़िले से वंचित रह गए बहुत से छात्र पास हो जाएंगे।
 
डीयू के स्नातक पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए इस साल लगभग 2.9 लाख आवेदन आए,
जो पिछले साल से करीब 50 हज़ार ज्यादा हैं। लेकिन डीयू में सीटें हैं केवल 54 हज़ार। यानी डीयू में एक सीट के लिए पांच से छह छात्र दावेदार होते हैं। यानी छात्रों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है, लेकिन डीयू में पांच साल से सीटें नहीं बढ़ाई गई हैं। दिल्ली से सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा में इस साल क़रीब एक लाख, 70 हज़ार छात्र-छात्राएं पास हुई हैं। यदि सब आवेदन करें तो एक लाख 70 हज़ार दिल्ली के छात्र वंचित हो जायेंगे I
 
दिल्ली में बाहर के राज्य से वर्षों से आकर बसे माता-पिता ने क्या कसूर किया है कि उनके बच्चों का दाख़िला दिल्ली में नहीं हो पाता? जो दिल्ली में वर्षों से खाते-कमाते हैं और दिल्ली के विकास में भी जिनका अच्छा-ख़ासा योगदान है, दिल्ली में उनके बच्चों को ही दाख़िला नहीं मिलेगा, तो क्या यह अन्याय नहीं है? दिल्ली के हज़ारों मां-बाप दिल्ली से बाहर दूसरे राज्यों में दाख़िले कराने को मजबूर हैं। उनके बच्चे लाखों रुपए ख़र्च कर दड़बेनुमा हॉस्टलों में रहने को मजबूर हैं। या फिर अच्छे-ख़ासे मेधावी छात्र-छात्राएं पत्राचार से पढ़ाई करने या दिल्ली से बाहर मोटी फीस वाले प्राइवेट कॉलेजों में पढ़ाई करने को मजबूर हैं।
 
इसलिए मैं पिछले कई वर्षों से मांग कर रहा हूं कि सीबीएसई से 12वीं पास करने वाले राजधानी के छात्रों को दिल्ली में दाख़िले के लिए चार प्रतिशत अंकों की छूट दी जाए। फिर भले ही उनके माता-पिता किसी भी राज्य से आकर दिल्ली में बसे हों। अब तो इस मांग का सब राजनीतिक पार्टियाँ समर्थन कर रही है I
 
इसके साथ-साथ दिल्ली सरकार के 21 कॉलेजों में भी दिल्ली के छात्रों के लिए 85 फ़ीसदी आरक्षण किया जाए। जैसे कि दिल्ली सरकार के ही आईपी यूनिवर्सिटी, नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, डॉ. अंबेडकर यूनिवर्सिटी और आईजीआईटी में दिल्ली के छात्रों के लिए 85 प्रतिशत आरक्षण है। जब दिल्ली सरकार के इन कॉलेजों में दिल्ली के 12वीं पास छात्रों के लिए 85 फ़ीसदी आरक्षण कर सकती है, तब दिल्ली के 21 कॉलेजों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
 
एक बड़ी समस्या यह है कि दिल्ली की 54 हज़ार सीटों में से 67.50 फ़ीसदी सीटें यानी 36,450 सीटें एससी, एसटी, ओबीसी, स्पोर्ट्स, विकलांग, विदेशी छात्रों के आरक्षित हैं। यानी सामान्य छात्रों के लिए केवल 17 हज़ार सीटें बचती हैं और इन बची हुई 1700 सीटों में भी 70 प्रतिशत दाख़िले बाहर के छात्रों के हो जाएं तो  आम दिल्ली वालों के लिए क्या बचेगा ?
 
श्रेणी
प्रतिशत
एससी
15
एसटी
7.5
ओबीसी
27
आर्म्ड फोर्स
5
स्पोर्ट्स/ईसीए
5
फॉरेन स्टूडेंट
5
विकलांग
5
कुल
67.5
सामान्य
32.5
कुल
100
 
जिस तरह दिल्ली में रहने वाले छात्र-छात्राओं के साथ नाइंसाफ़ी हो रही है, उसी तरह दूसरे राज्यों के बहुत से छात्र-छात्राओं को भी दाख़िलों के लिए हर साल बेहद मानसिक तनाव से गुज़रना पड़ता है। मैं उनका दुख भी समझता हूं और बाहर के  राज्यों की सरकारों से अपील करता हूं कि वे अपने यहां ज़्यादा कॉलेज खोलें, स्तरीय कॉलेज खोलें, ताकि हमारी नई पीढ़ी को पढ़ाई के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़े। देश में स्तरीय कॉलेजों की संख्या बढ़ेगी, तो छात्र-छात्राओं को पढ़ाई के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। उनके माता-पिता की जेब पर लाखों रुपए का अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि देश का भविष्य सवांरने के लिए अच्छे युवा मिलेंगे। युवा देश के नौजवानों को पढ़ाई के अच्छे मौक़े ही नहीं मिलेंगे, तो फिर देश के विकास में उनकी मेधा का इस्तेमाल किस तरह हो पाएगा? 
 
बाहर के छात्र अच्छे कॉलेजों में दाखिले के लिए बाहर से आते है क्यों नहीं हम श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स , सेंट स्टीफेंस , हिन्दू कॉलेज की शाखाएं दिल्ली के बाहर के राज्यों में खोल सकते I क्योंकि मैं दिल्ली में रहता हूं, लिहाज़ा दिल्ली के छात्रों के हितों की बात करना मेरी पहली प्राथमिकता है। दिल्ली में रह रहे परिवारों का दुख-दर्द मैं लंबे अरसे से महसूस कर रहा हूं। मैं एक बार फिर कर दूं कि दिल्ली के छात्र-छात्राओं से मेरा मतलब हर उस मां-बाप के बेटे-बेटियों से है, जो किसी भी राज्य से आकर दिल्ली में वर्षों से बसे हों जिनके बच्चों ने दिल्ली से CBSE की परीक्षा पास की हो I कुल मिलाकर मैं दिल्ली के छात्रों के लिए इंसाफ़ की मांग करता रहा हूं और करता रहूंगा।

हिंदी को फिर बनाइए माथे की बिंदी

विजय गोयल
(लेखक बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं और अटल जी के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री थे)
 
दिल्ली में डिजिटल इंडिया वीक के उदघाटन पर मेदांता हॉस्पिटल के डॉ. अनिल अग्रवाल ने हिंदी में बोलना शुरू किया, तो स्टेडियम तालियों से गूंज उठा। इससे पहले रिलायंस ग्रुप के मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी और टाटा ग्रुप के साइरस मिस्त्री, भारती ग्रुप के सुनील मित्तल, आदित्य बिरला और अज़ीम प्रेमजी जैसे बहुत से बड़े उद्योगपतियों ने अंग्रेज़ी में विचार रखे। डॉ. अनिल अग्रवाल के हिंदी में भाषण का स्वागत जिस तरह हुआ, उसने मुझे सोचने को मजबूर किया।
 
मुझे लगा कि अंग्रेज़ी में बोलने वालों को क्या हिंदी आती नहीं? या फिर वे सोचते हैं कि हिंदी में बोलेंगे, तो श्रोता समझेंगे नहीं या फिर उनके दिल में हीन भावना है कि हिंदी बोलेंगे, तो कोई उन्हें बड़ा आदमी नहीं समझेगा? या फिर उन्हें अंग्रेज़ी बोलने की आदत पड़ गई है? बहरहाल, मैं काफ़ी वक़्त तक मानता रहा कि अंग्रेज़ी बोलने वालों को देश के लोग श्रेष्ठ मानते होंगे। मेरी पार्टी के कई वरिष्ठ नेता भी अंग्रेज़ी बोलने वालों को बुद्धिजीवी समझते हैं। बाद में साफ़ हुआ कि अंग्रेज़ी बोलने वाले नेताओं की साख लोगों के बीच है ही नहीं। वे कितने लोकप्रिय हैं, इस बात का पता तो तब चलता, जब वे कभी चुनाव लड़ते। हम इस बात को इस तरह समझ सकते हैं कि जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी, ये सभी नेता हिंदी बोलकर ही लोकप्रिय हुए हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी में ही बोलते रहे, तो कुछ लोगों ने समझा होगा कि अंग्रेज़ी में वे तंग हैं। लेकिन अब जब कई मौक़ों पर वे धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं, तो बहुत से अंग्रेज़ीदां भी दातों तले उंगली दबा लेते हैं। मोदी जी को हिंदी बोलना इसलिए अच्छा लगता है। यह हमारी मातृ भाषा है। कहने का मतलब कोई हिंदी बोलता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह अंग्रेज़ी बोल ही नहीं सकता। 
 
मुझे तब बहुत ताज़्जुब होता है, जब अच्छी तरह हिंदी जानने-बोलने वाले बहुत से
नेता संसद में अंग्रेज़ी में ही भाषण देते हैं। वे समझते हैं कि इससे उनका कॉलर
ऊंचा हो जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि ये सभी नेता हिंदी में वोट मांगकर ही संसद तक पहुंचते हैं। तो क्या उनको लगता है कि संसद में हिंदी बोलेंगे, तो स्टेटस कम हो जाएगा?
 
मैं मानता हूं कि अंग्रेज़ी अच्छी भाषा है। ग्लोबलाइज़ेशन के मौजूदा दौर में दुनिया
भर में समझी जाती है। लिहाज़ा तरक़्की के लिए, रोज़गार पाने के लिए नौजवानों को अंग्रेज़ी सीखना बहुत ज़रूरी है। लेकिन अपने ही देश में अगर हम अंग्रेज़ी को हिंदी के सिर पर बैठाएंगे, तो हमारी अस्मिता, हमारा वजूद ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी। पता नहीं क्यों हमारे नौजवान अंग्रेज़ी को लेकर हीन भावना से भरे रहते हैं। यह मैंने ख़ुद महसूस किया है, क्योंकि बारहवीं तक मेरी शिक्षा का माध्यम हिंदी था। बाद में दिल्ली के श्रीराम कॉलेज से बीकॉम, एमकॉम अंग्रेज़ी माध्यम से करा. हमारे पिताजी ने हमें यही सिखाया कि भाषा अपनी ही अच्छी होती है। यही सीख थी, जिसने बाद में सियासी जिंदगी में मुझे प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री पद तक पहुंचाया।
 
अभी मैं संसद की कई अहम कमेटियों जैसे- पब्लिक अकाउंट्स कमेटी यानी लोक
लेखा समिति, पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन होम अफ़ेयर्स यानी गृह मंत्रालय से जुड़ी संसदीय स्थाई समिति और कंसलटेटिव कमेटी ऑफ अरबन डेवलपमेंट यानी शहरी विकास से जुड़ी सलाहकार समिति का सदस्य हूं। इन कमेटियों की बैठकों में अफ़सर अक्सर हिंदी जानते हुए भी सभी अफसर अंग्रेज़ी में राय रखते हैं। कमेटियों के कई सांसद अंग्रेज़ी नहीं जानते, फिर भी उनमें अफ़सरों को टोकने का साहस नहीं होता। कमेटी की कारवाई ज्यादातर अंग्रेजी में चलती रहती है।
 
यह विडंबना ही है कि जो सांसद देश का क़ानून बनाने में योगदान करता है, वह किसी हीन भावना की वजह से अंग्रेज़ी के सामने ख़ुद दब्बू हो जाता है। बहुत अच्छा लगता है, जब हिंदी और अंग्रेज़ी बोलने वाले हिंदी में ही अपनी बात रखते हैं। कमेटियों की मींटिंग से पहले अगर सदस्यों से राय ली जाए, तो शायद बहुमत हमेशा हिंदी के पक्ष में ही रहेगा।
 
आमतौर पर दलील रहती है कि संसद में दक्षिण भाषी सांसद भी होते हैं, लिहाज़ा अंग्रेज़ी बोलना ही सही होता है। लेकिन यहां सवाल उत्तर और दक्षिण भारतीय सांसदों का नहीं, बल्कि भाषा की समझ का है। ज़्यादातर दक्षिण भारतीय सांसद हिंदी समझते हैं, बोल भले ही न पाएं। फिर हिंदी में बोलने में क्या दिक़्कत होनी चाहिए। आख़िर हिंदी हमारी मातृ भाषा है। मैं ख़ुद दक्षिण भारतीय भाषाओं का बहुत आदर करता हूं। हमारे घर पर एक दक्षिण भारतीय परिवार 20 साल तक किराए पर रहा। वे अच्छी हिंदी सीखें।
 
हिंदी के साथ एक और वैज्ञानिक सहूलियत जुड़ी है। दुनिया की शायद ही ऐसी कोई भाषा होगी, जो जैसे बोली जाती है, देवनागरी लिपि में वैसे ही लिखी भी जाती है। मेरा मानना है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक हिंदी को फैलाने का काम हिंदी फिल्मों ने बख़ूबी किया है। इसके लिए बॉलीवुड को बड़े से बड़ा सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन यहां भी एक विडंबना है। हिंदी सिनेमा के हीरो-हीरोइन फिल्मों में अच्छी हिंदी में ज़ोरदार और सही उच्चारण के साथ डायलॉग बोलते हैं, लेकिन इंटरव्यू या फिर अवॉर्ड लेते वक़्त अंग्रेज़ी में ही बोलते हैं। यानी फ़िल्मों के बाहर वे अंग्रेज़ी में बोलना शान समझते हैं। जो भाषा आपको देश-विदेश में सम्मान दिलाए, अगर उसे बोलना शान नहीं है, तो माफ़ कीजिएगा, मेरे विचार से यह देश का अपमान है।
 
अभी मुझे हिंदी सलाहकार समिति में शामिल किया गया। हर साल हमारी सरकारें और सरकारी विभाग हिंदी सप्ताह या पखवाड़ा मनाते हैं। आज़ादी के इतने साल बाद भी हिंदी पखवाड़े की ज़रूरत अगर पड़ रही है, तो यह शर्म की बात है। ऐसा लगता है कि हम भारत में ‘फ्रेंच वीक’ या और किसी विदेशी भाषा का हफ्ता या पखवाड़ा मना रहे हैं। दरअसल अंग्रेज़ियत आज की पीढ़ी के पूरे वजूद पर हावी है।
 
यही वजह है कि वह हिंदी बोलना अपनी तौहीन समझने लगी है। अब के बच्चों को बताओ कि ताश के बावन पत्ते होते हैं, तो उन्हें बताना पड़ता है कि बावन यानी फ़िफ़्टी टू। पिछले दिनों एक बच्चा दूसरे बच्चे को रामायण का एक प्रसंग समझा रहा था- यू नो, वन रावना स्टोल द वाइफ़ ऑफ़ रामा। (बिकॉज़) लक्ष्मना टुक पंगा विद सूर्पनखा। सो लाइक दिस डूड हैड लाइक अ बिग कूल किंगडम एंड पीपल लाईकड हिम. बट, लाइक, हिज स्टेप-मॉम शी फोर्सड हर हसबंड टू लाइक, सेंड दिस कूल डूड, ही वास राम, टू सम नेशनल फारेस्ट और समथिंग…(You know, one Rawana stole the wife of Rama, because Laxmana took panga with Supernakhan. So like this dude had, like a big cool kingdom and people liked him. But, like, his steep-mom she forced her husband to, like, send this cool-dude, he was Ram, to some national forest or something…)
 
एक ज़माना था जब, देवकीनंदन खत्री जी के उपन्यासों की सीरीज़ ‘चंद्रकांता संतति’
पढ़ने के लिए पूरी दुनिया के लोगों ने हिंदी सीखी थी। मैंने स्कूल के दिनों में ही
चंद्रकांता संतति के अलावा भूतनाथ समेत कई उपन्यास पढ़ लिए थे। मुझे तो अपने हिंदी भाषी होने पर गर्व है।
 
एक समस्या और है। हिंदी को हमारे कुछ विद्वानों या कहें कि लकीर के फ़कीर लोगों ने इतना कठिन बना दिया है कि पूछिए मत। अगर कोई सरकारी अफ़सर हिंदी में काम करना भी चाहे, तो उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है। संसद में भी जो परिपत्र हिंदी में आते हैं, उन्हें समझने में मुझ जैसे हिंदी प्रेमी को एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता है। सरकारी हिंदी को जन साधारण की हिंदी से बहुत अलग कर दिया गया है। अटल जी जब प्रधानमंत्री थे, तो एक बार वहां आर्य समाज के कार्यक्रम में मैंने सुझाव दिया कि क्यों नहीं सत्यार्थ प्रकाश को सरल बनाया जाता, ताकि देश के बहुत से लोग आसानी से उसे समझ पाएं। 
 
यह सोचकर बहुत परेशानी होती है कि हमारे बहुत से नेताओं ने हिंदी को महज़ वोट बैंक बना कर रख दिया है। जबकि हालात यह हैं कि आज भी जब संसद में हिंदी में अच्छे भाषण दिए जाते हैं, तब जमकर तालियां बजती हैं। बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्में अंग्रेज़ीदां होते जा रहे मिडिल और अपर मिडिल क्लास के दर्शकों की वजह से ही खरबों का कारोबार कर रही हैं। हिंदी के किसी डायलॉग पर सिनेमा हॉल में जब तालियां बजती हैं, तब अंग्रेज़ीपन कहां ग़ायब हो जाता है, पता नहीं।
 
मुझे याद है कि एक दौर में सारिका, दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नंदन, पराग, हंस, कथादेश, ज्ञानोदय, पहल जैसी बहुत सी हिंदी पत्रिकाओं का बोलबाला था। पढ़े-लिखे परिवारों के ड्राइंग रूम में इनकी मौजूदगी स्टेटस सिंबल मानी जाती थी, लेकिन आज इसका उल्टा हो गया है। एक तो बहुत सी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया, फिर अंग्रेज़ियत हमारे स्वभाव में पता नहीं किस साज़िश के तहत घोल दी गई है। बहुत से मिडिल और अपर मिडिल क्लास माता-पिता ही अपने बच्चों को हिंदी से दूर होने का संदेश देते हैं। लेकिन मैं पूरी शिद्दत से कहना चाहता हूं- अंग्रेज़ी पढ़ो, जहां ज़रूरत हो गढ़ो, लेकिन हिंदी के ऊपर मत मढ़ो। भारतेंदु का सूत्र वाक्य मानो- निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

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My visions for Delhi stems from these inspiring words of Swami Vivekanada. I sincerely believe that Delhi has enough number of brave, bold men and women who can make it not only one of the best cities.

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